Translate

मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013

पहली सालगिरह !

आदाब अर्ज़, दोस्तों !
आज आपका 'साझा आसमान' अपनी पहली सालगिरह मना रहा है।
पिछले साल ठीक इसी दिन, यानी 29 अक्टूबर को हमने-यानी आपका यह ख़ादिम और भाई जनाब शरद कोकास ने दुर्ग में 'साझा आसमान' की शुरुआत की थी। इस एक साल के दरमियान हमने तक़रीबन 275 ग़ज़लें क़ारीन के सामने पेश कीं जिनमें  225 एकदम नई ग़ज़लें हैं ! हमें इस दौरान दुनिया के तक़रीबन 190 मुमालिक के क़ारीन का भरपूर प्यार मिला।
'साझा आसमान' जैसे संजीदा शायरी पेश करने वाले ब्लॉग के लिए यह एक बेहद अहम् मक़ाम और बड़ी कामयाबी ही मानी जाएगी। ज़ाहिर है कि हम ख़ुश हैं, हालांकि हम यह भी जानते हैं कि हम इससे कहीं बेहतर काम कर सकते थे…!
इस कामयाबी का सेहरा सबसे पहले आप सब क़ारीन के सर जाता है। यह आप सब के उन्सो-ख़ुलूस और त'अव्वुन का ही नतीजा है कि आज हम यहां तक आ सके।
शुक्रिया, दोस्तों !
इस मौक़े पर मैं ख़ास तौर पर जिन साथियों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं, उनमें अव्वल हैं मेरी शरीक़े-हयात मोहतरिमा कविता जी, जिन्होंने मेरी चोरी हो चुकी क़रीब 150 ग़ज़लें दोबारा ढूंढ निकालीं; और दूसरे हैं भाई जनाब शरद कोकास, जिन्होंने 'साझा आसमान' का ख़ाका तैयार किया। वक़्त-ज़रूरत भाई जनाब प्रमोद ताम्बट और भाई पल्लव आज़ाद ने भी काफ़ी मदद की। इन सभी साथियों का तहे-दिल से शुक्रिया !
इस मौक़े पर ज़ाहिर है, एक नई ग़ज़ल बनती ही है, वह पेश कर रहा हूं।
अर्ज़ किया है,

             रहेंगे  याद  हम


देख  लो    पीछा  छुड़ा  कर    देख  लो
दो  क़दम  भी   दूर  जा  कर  देख  लो

अब  कहां  वो:  दोस्त  जो  जां  दे  सकें
दांव  ये:  भी   आज़मा  कर   देख  लो

यूं   हमें    उम्मीद    ख़ुद  से  ही  नहीं
हो  सके  तो  तुम  निभा  कर  देख  लो

ख़ाक   हो  के  भी    रहेंगे    याद  हम 
नक़्शे-पा  दिल  से  मिटा  कर  देख  लो

है  मु'अय्यन   मौत  जब  भी  आएगी
एक  पल   आगे   बढ़ा  कर    देख  लो

लाख     बेहतर  है     हमारा  आशियां 
ख़ुल्द  में    फेरा  लगा  कर    देख  लो

वो:     जहां  चाहे     अयां   हो  जाएगा
मयकदे  में  सर  झुका  कर  देख  लो !

                                                     ( 29/10/2013 )

                                                   - सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ: ख़ाक: धूल;  नक़्शे-पा: पग-चिह्न;   मु'अय्यन: सुनिश्चित; आशियां: आवास, घर;  ख़ुल्द: ईश्वर का घर, स्वर्ग;   अयां: प्रकट; मयकदा: मदिरालय।     

बुधवार, 23 अक्टूबर 2013

ख़ेराजे-अकीदत: मन्ना दा

                                                      ख़ेराजे-अकीदत: मन्ना  दा

हिंदी फिल्मों के अज़ीम-तरीन गुलूकार जनाब प्रबोध चन्द्र डे उर्फ़ मन्ना डे, अपने करोड़ों मुरीदों के दिल में मेयारी मक़ाम रखने वाले और हम सब के अज़ीज़ फ़नकार मन्ना दा आज अल-फ़जर दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह गए…। 'साझा आसमान' उस लाजवाब फ़नकार और लासानी इन्सान को तहे-दिल से अपनी ख़ेराजे-अक़ीदत पेश करता है:


                                       ग़ुरुब  हुआ  वो:  शम्से-मौसिक़ी  अल-सुब्हा 

                                      जिसकी  आवाज़  थी  अज़ां-ए-फ़जर  के मानिंद!


अलविदा,  मन्ना  दा ! अल्लाह आपकी रूह को अपने क़रीब जगह अता करे…. ! आमीन !


.

ख़्वाब पर ऐतबार...!

वो:  हक़ीक़त  से  प्यार  करते  हैं
ख़्वाब  पर     ऐतबार    करते  हैं

हो  ज़रूरत    तो   जान  ले  जाएं
हम    ख़ुशी  से   उधार  करते  हैं

हमपे  दावा   न   कीजिए  साहब
आप  आशिक़    हज़ार  करते  हैं

ख़्वाब  आंखों  से  दूर  ही  बेहतर
रूह   को     बेक़रार       करते  हैं

डालिए  ख़ाक  उनपे  जो  शो'अरा
दर्द    का     इश्तिहार     करते  हैं

चांद  से  उनको  दुश्मनी  क्या  है
शबो-शब     शर्मसार     करते  हैं

क़त्ल  कीजे     कभी    क़रीने  से
क्यूं  ज़िबह    बार-बार   करते  हैं

असलहे    आपको    मुबारक  हों
हम  नज़र     धारदार    करते  हैं

हममें  कुछ  है  के:  आसमां  वाले
दोस्तों   में     शुमार     करते  हैं  !

                                                   ( 2013 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ऐतबार: विश्वास; बेक़रार: बेचैन, विचलित;  ख़ाक: धूल, भस्म; शो'अरा: शायर का बहुवचन;  इश्तिहार: विज्ञापन; शबो-शब: निशा-प्रतिनिशा; शर्मसार: लज्जित;  क़रीने से: शिष्टाचार पूर्वक;  ज़िबह: छुरी फेरना; असलहे: शस्त्रास्त्र; आसमां वाले: परलोक वासी, देवता-गण; शुमार: गणना। 

मंगलवार, 22 अक्टूबर 2013

बदी न कर बैठें !

ख़ुदी  को  भूल  के   हम  ख़ुदकुशी  न  कर  बैठें
ग़मों  से  टूट  के    ये:   बुजदिली    न  कर  बैठें

ख़ुदा   बचाए     जा   रहे   हैं  वो:   सियासत  में
रवायतों   के   मुताबिक़     बदी     न  कर  बैठें

नज़र  नज़र  में  कर  लिया  किसी  से  अह्दे-वफ़ा
हंसी  हंसी  में     वो:    दीवानगी     न  कर  बैठें

उठाए       ख़ूब       मफ़ायद       चुकाएंगे  कैसे
दबाव  में    वो:   ग़लत  को   सही  न  कर  बैठें

ख़ुदा  पे    हमको     यक़ीं  है    कभी   न  हारेंगे
मगर    जूनून    में    बादाकशी     न  कर  बैठें

की    एक  बार    जो  तौबा    हज़ार  बार  करी
कहीं  ख़ुदा  से  भी  हम  दिल्लगी  न  कर  बैठें !

                                                                  ( 2013 )

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुदी: अस्मिता, स्वाभिमान; ख़ुदकुशी: आत्म-घात; बुजदिली: कायरता; सियासत: राजनीति; रवायतों: परम्पराओं; 
मुताबिक़: अनुसार; बदी: अ-कर्म, बुरा काम; अह्दे-वफ़ा: निर्वाह का संकल्प; दीवानगी: पागलपन, मूर्खता;मफ़ायद: फ़ायदा का बहुवचन, लाभ; जूनून: उन्माद; बादाकशी: मद्यपान;  दिल्लगी: परिहास। 

रविवार, 20 अक्टूबर 2013

वारदात बाक़ी है !

रंजो-ग़म  से  निजात  बाक़ी  है
क्यूं  ये:    क़ैदे-हयात   बाक़ी  है

कोई  हमदर्द    आसपास   नहीं
दुश्मनों  की   जमात  बाक़ी  है

एक  हम  ही    नहीं  रहे   बाक़ी
कुल  जमा  कायनात  बाक़ी  है

क़त्लो-ग़ारत  ज़िना-ओ-बदकारी
कौन  सी    वारदात     बाक़ी  है

मौत  कमबख़्त     रास्ते  में  है
और  बदबख़्त    रात  बाक़ी  है

शाह  बे-ख़ौफ़  चाल  चलता  है
पैदली  शह-ओ-मात  बाक़ी  है

उस  गली  पे  ख़ुदा  का  साया  है
जिस गली  में  निशात  बाक़ी  है !

                                               ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: निजात: मुक्ति; क़ैदे-हयात: जीवन-रूपी कारावास; हमदर्द: पीड़ा बंटाने वाला; जमात: समूह; कुल जमा  कायनात: समग्र सृष्टि; हत्या और हिंसा; ज़िना-ओ-बदकारी: बलात्कार और दुष्कर्म; वारदात: आपराधिक घटना; कमबख़्त:हतभाग्य; बदबख़्त:अभागी;  
बे-ख़ौफ़: निर्द्वन्द्व; पैदली  शह-ओ-मात: पैदल सेना की चुनौती और विरोधी राजा की हार;  साया: छाँव; निशात: हर्ष। 

शनिवार, 19 अक्टूबर 2013

ख़ुदा ख़िलाफ़ रहे ...

हुए  हैं  हम  शिकार  जबसे  उसके  अहसां  के
उठा    रहे     हैं  नाज़     बे- शुमार  मेहमां  के

है    फ़िक्रे-दोस्ती    तो   क्यूं  न  हो  गए  मेरे
मिज़ाज    पूछते   हैं    अब   दिले-पशेमां  के

अना   संभाल   के   उड़ते   गए    ख़यालों  में
न  महफ़िलों  के   रहे   और  न    बियाबां के

जहां  में  नाम  है   जिनका   हरामख़ोरी   में
सुबूत   मांग   रहे  हैं    वो:    हमसे  ईमां  के

वक़्त  जाता  है  तो  आंसू  भी  पलट  जाते  हैं
ख़ुदा   ख़िलाफ़    रहे  या  न    रहे  इन्सां  के

करेंगे  लाख  जतन   वो:  शम्अ  बुझाने  के
ख़याल   नेक  नहीं    आज  अहले-तूफ़ां  के

ख़ुदा  भी     देख   रहा  है    इनायतें  उनकी
बने  हुए  हैं  जो  दुश्मन  हमारे  अरमां  के !

                                                            ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नाज़: नख़रे; बे-शुमार: अगणित; फ़िक्रे-दोस्ती: मित्रता की चिंता; मिज़ाज: हाल-चाल; दिले-पशेमां: लज्जित हृदय; अना: अहंकार;  महफ़िलों: सभा, गोष्ठी; बियाबां: उजाड़, निर्जन प्रदेश; अहले-तूफ़ां: झंझावात के साथी; इनायतें: कृपाएं; अरमां: अभिलाषा। 

घर जला बैठे !

रहे-अज़ल  में  फ़रिश्ते   से  दिल  लगा  बैठे
विसाल  हो  न  सका  मग़फ़िरत  गंवा   बैठे

न  राहे-रास्त  लगा  रिंद    लाख  समझाया
ग़लत  जगह  पे  शैख़    हाथ  आज़मा   बैठे

ख़ुदा  को  रास  न  आया   बयान  शायर  का
सज़ाए-ज़ीस्त    सात   बार   की    सुना  बैठे

हमें  जहां  न  मिला  हम  जहां  को  मिल  न  सके
जहां-जहां      से    उठे     रास्ता    भुला  बैठे

हुआ  हबीब  से  रिश्ता    तो   खुल  गईं  रहें
ख़ुदा  को  याद  किया  और  घर  जला  बैठे !

                                                              ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रहे-अज़ल: मृत्यु-मार्ग; फ़रिश्ते: देवदूत; विसाल: मिलन; मग़फ़िरत: मोक्ष; राहे-रास्त: उचित मार्ग; 
रिंद: मद्यप; शैख़: उत्साही धर्मोपदेशक; सज़ाए-ज़ीस्त: जीवन-दंड;  हबीब: प्रेमी, गुरु, पीर।