आदाब अर्ज़, दोस्तों !
आज आपका 'साझा आसमान' अपनी पहली सालगिरह मना रहा है।
पिछले साल ठीक इसी दिन, यानी 29 अक्टूबर को हमने-यानी आपका यह ख़ादिम और भाई जनाब शरद कोकास ने दुर्ग में 'साझा आसमान' की शुरुआत की थी। इस एक साल के दरमियान हमने तक़रीबन 275 ग़ज़लें क़ारीन के सामने पेश कीं जिनमें 225 एकदम नई ग़ज़लें हैं ! हमें इस दौरान दुनिया के तक़रीबन 190 मुमालिक के क़ारीन का भरपूर प्यार मिला।
'साझा आसमान' जैसे संजीदा शायरी पेश करने वाले ब्लॉग के लिए यह एक बेहद अहम् मक़ाम और बड़ी कामयाबी ही मानी जाएगी। ज़ाहिर है कि हम ख़ुश हैं, हालांकि हम यह भी जानते हैं कि हम इससे कहीं बेहतर काम कर सकते थे…!
इस कामयाबी का सेहरा सबसे पहले आप सब क़ारीन के सर जाता है। यह आप सब के उन्सो-ख़ुलूस और त'अव्वुन का ही नतीजा है कि आज हम यहां तक आ सके।
शुक्रिया, दोस्तों !
इस मौक़े पर मैं ख़ास तौर पर जिन साथियों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं, उनमें अव्वल हैं मेरी शरीक़े-हयात मोहतरिमा कविता जी, जिन्होंने मेरी चोरी हो चुकी क़रीब 150 ग़ज़लें दोबारा ढूंढ निकालीं; और दूसरे हैं भाई जनाब शरद कोकास, जिन्होंने 'साझा आसमान' का ख़ाका तैयार किया। वक़्त-ज़रूरत भाई जनाब प्रमोद ताम्बट और भाई पल्लव आज़ाद ने भी काफ़ी मदद की। इन सभी साथियों का तहे-दिल से शुक्रिया !
इस मौक़े पर ज़ाहिर है, एक नई ग़ज़ल बनती ही है, वह पेश कर रहा हूं।
अर्ज़ किया है,
देख लो पीछा छुड़ा कर देख लो
दो क़दम भी दूर जा कर देख लो
अब कहां वो: दोस्त जो जां दे सकें
दांव ये: भी आज़मा कर देख लो
यूं हमें उम्मीद ख़ुद से ही नहीं
हो सके तो तुम निभा कर देख लो
है मु'अय्यन मौत जब भी आएगी
एक पल आगे बढ़ा कर देख लो
लाख बेहतर है हमारा आशियां
ख़ुल्द में फेरा लगा कर देख लो
वो: जहां चाहे अयां हो जाएगा
मयकदे में सर झुका कर देख लो !
( 29/10/2013 )
- सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ख़ाक: धूल; नक़्शे-पा: पग-चिह्न; मु'अय्यन: सुनिश्चित; आशियां: आवास, घर; ख़ुल्द: ईश्वर का घर, स्वर्ग; अयां: प्रकट; मयकदा: मदिरालय।
आज आपका 'साझा आसमान' अपनी पहली सालगिरह मना रहा है।
पिछले साल ठीक इसी दिन, यानी 29 अक्टूबर को हमने-यानी आपका यह ख़ादिम और भाई जनाब शरद कोकास ने दुर्ग में 'साझा आसमान' की शुरुआत की थी। इस एक साल के दरमियान हमने तक़रीबन 275 ग़ज़लें क़ारीन के सामने पेश कीं जिनमें 225 एकदम नई ग़ज़लें हैं ! हमें इस दौरान दुनिया के तक़रीबन 190 मुमालिक के क़ारीन का भरपूर प्यार मिला।
'साझा आसमान' जैसे संजीदा शायरी पेश करने वाले ब्लॉग के लिए यह एक बेहद अहम् मक़ाम और बड़ी कामयाबी ही मानी जाएगी। ज़ाहिर है कि हम ख़ुश हैं, हालांकि हम यह भी जानते हैं कि हम इससे कहीं बेहतर काम कर सकते थे…!
इस कामयाबी का सेहरा सबसे पहले आप सब क़ारीन के सर जाता है। यह आप सब के उन्सो-ख़ुलूस और त'अव्वुन का ही नतीजा है कि आज हम यहां तक आ सके।
शुक्रिया, दोस्तों !
इस मौक़े पर मैं ख़ास तौर पर जिन साथियों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं, उनमें अव्वल हैं मेरी शरीक़े-हयात मोहतरिमा कविता जी, जिन्होंने मेरी चोरी हो चुकी क़रीब 150 ग़ज़लें दोबारा ढूंढ निकालीं; और दूसरे हैं भाई जनाब शरद कोकास, जिन्होंने 'साझा आसमान' का ख़ाका तैयार किया। वक़्त-ज़रूरत भाई जनाब प्रमोद ताम्बट और भाई पल्लव आज़ाद ने भी काफ़ी मदद की। इन सभी साथियों का तहे-दिल से शुक्रिया !
इस मौक़े पर ज़ाहिर है, एक नई ग़ज़ल बनती ही है, वह पेश कर रहा हूं।
अर्ज़ किया है,
रहेंगे याद हम
देख लो पीछा छुड़ा कर देख लो
दो क़दम भी दूर जा कर देख लो
अब कहां वो: दोस्त जो जां दे सकें
दांव ये: भी आज़मा कर देख लो
यूं हमें उम्मीद ख़ुद से ही नहीं
हो सके तो तुम निभा कर देख लो
ख़ाक हो के भी रहेंगे याद हम
नक़्शे-पा दिल से मिटा कर देख लोहै मु'अय्यन मौत जब भी आएगी
एक पल आगे बढ़ा कर देख लो
लाख बेहतर है हमारा आशियां
ख़ुल्द में फेरा लगा कर देख लो
वो: जहां चाहे अयां हो जाएगा
मयकदे में सर झुका कर देख लो !
( 29/10/2013 )
- सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ख़ाक: धूल; नक़्शे-पा: पग-चिह्न; मु'अय्यन: सुनिश्चित; आशियां: आवास, घर; ख़ुल्द: ईश्वर का घर, स्वर्ग; अयां: प्रकट; मयकदा: मदिरालय।
बेहतरीन ग़ज़ल, और यह साल गिराह बहुत-बहुत मुबारक हो...
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