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रविवार, 14 जुलाई 2013

दुश्मने - ख़ानुमां ...

उम्र     इतनी    रवां     हुई     कैसे
दुश्मने - ख़ानुमां         हुई     कैसे

आप  गर  हमपे  मेहरबान  न  थे
रात     इतनी   जवां    हुई    कैसे

उनपे मख़्सूस थी  गली  दिल  की
वो:        रहे - कारवां      हुई  कैसे

क्या  ख़बर   होश  कब   गंवा  बैठे
ये:      अदा    बदगुमां     हुई  कैसे

हम  अगर  हमनज़र  नहीं  हैं  तो
ख़ामुशी      ये:    ज़ुबां    हुई  कैसे

उसपे    दारोमदार  था    दिल  का
याद      दर्दे - निहाँ       हुई    कैसे

वक़्त  पे   पांव   कब   रखा  हमने
मौत   फिर    मेहरबां    हुई   कैसे ? !

                                                ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रवां: गतिवान; दुश्मने - ख़ानुमां: घर-गृहस्थी की शत्रु; मख़्सूस: विशिष्ट, आरक्षित; रहे-कारवां: यात्री-समूह का मार्ग;      बदगुमां:भ्रमित; हमनज़र: सम-दृष्टि; ख़ामुशी: चुप्पी; दारोमदार: उत्तरदायित्व;   दर्दे - निहाँ: छुपी हुई पीड़ा।

शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

दर्दे-दिल की दवा

आज   बादे-सबा   चली  आई
लब  पे  मेरे  दुआ  चली  आई

नाम:बर  की  ख़ुशी  से  ज़ाहिर  है
दर्दे-दिल  की  दवा  चली  आई

कोसते  ही  ज़रा  मुअज़्ज़िन  को
मैकदे    से     सदा     चली  आई

ज़िक्र    मेरा    हुआ    हरीफ़ों  में
उनके  रुख़  पे  हिना  चली  आई

याद  जब  भी  किया  तहे-दिल  से
उनके  दिल  में  वफ़ा  चली  आई

अह्द  हमने  किया  मुहब्बत  का
आसमां  से  रज़ा  चली  आई

ख़ुल्द  के  ख़्वाब  में  महव  थे  हम
पास  हंस  के  क़ज़ा  चली  आई !

                                              ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बादे-सबा: प्रातः की शीतल समीर; नाम:बर: सन्देश लाने वाला; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; मैकदा: मदिरालय; सदा: स्वर; हरीफ़: प्रतिद्वंद्वी; रुख़: चेहरा; हिना: मेंहदी का लाल रंग, लाली; तहे-दिल: हृदय की गहराई; वफ़ा: निर्वाह की इच्छा; अह्द: संकल्प; रज़ा: स्वीकृति; ख़ुल्द: स्वर्ग;  महव: खोए हुए;  क़ज़ा: मृत्यु। 

गुरुवार, 11 जुलाई 2013

ज़ीस्त की रस्साकशी

वो:  हमें   ज़ेहन   में   लाते    तो   कोई   बात  भी  थी
अपने    अरमान    जगाते    तो  कोई    बात  भी  थी

तुमने  ख़ुशियों  को   तहे-दिल  से   निभाया  हर  दम
शान   से   ग़म  को  निभाते   तो  कोई   बात  भी  थी

ऐश-ओ-इशरत   की   हर  इक   चीज़    चाहने  वालों
घर   को    ईमां   से    सजाते  तो  कोई  बात  भी  थी

क्या   मिला    सोहबत-ए-कमज़र्फ़    से    वही  जानें
दायरा     अपना    बढ़ाते    तो   कोई   बात     भी  थी

दाग़-ए-सदमात      पे      हंसते    हैं    ज़माने    वाले
ख़ुद   को    फ़ौलाद    बनाते   तो  कोई   बात  भी  थी

तर्क-ए-उल्फ़त   में    टूट    जाना    तो     रवायत  है
कुछ   नया   करके   दिखाते   तो  कोई  बात  भी  थी

ज़ीस्त    की     रस्साकशी    हारते      रहे    हर  दम
इक   सिरा   हमको   थमाते   तो  कोई  बात  भी  थी !

                                                                          ( 2013 )

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  ज़ेहन: मस्तिष्क, विचार; तहे-दिल: हृदय की गहराई;ऐश-ओ-इशरत: विलासिता और समृद्धि; ईमां: आस्था; सोहबत-ए-कमज़र्फ़: ओछे व्यक्ति की संगति; दाग़-ए-सदमात : दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के चिह्न; तर्क-ए-उल्फ़त: प्रेम-भंग;  रवायत: परंपरा;ज़ीस्त: जीवन।

                                                                       

बुधवार, 10 जुलाई 2013

शे'रो-सुख़न के रास्ते

जब  से  वो:   दर्दे-दिल  के  ख़रीदार  हो  गए
लगता  है  हमें,   हम  तो  गुनहगार  हो  गए

बैठे  हैं  घर  में   उनकी  तमन्ना   किए  हुए
शे'रो-सुख़न    के    रास्ते    दुश्वार    हो  गए

बैठे-बिठाए    इश्क़  का  आज़ार   लग  गया
सारे   जतन    तबीब   के    बेकार   हो   गए

ईमां  लुटा  के   उनपे   ये:  ईनाम   मिला  है
दोनों   जहां     हमारे    तलबगार    हो   गए

रहबर  बताएं  कौन  है  हाफ़िज़  अवाम  का
तकिया था जिनपे लोग वो:  बदकार हो  गए

कुछ सिलसिल:-ए-रिज़्क़ हो कुछ ज़रिए-माश हो
चर्चे     हमारे    यूं   तो    बे-शुमार   हो  गए

वो:  आ  गए  हैं  सफ़  में  हमारी  कहे  बग़ैर
मौसम  शहर  के  आज  ख़ुशगवार  हो  गए !

                                                              ( 2013 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तमन्ना: अभिलाषा; शे'रो-सुख़न: काव्य और अभिव्यक्ति; दुश्वार: दुर्गम; आज़ार: रोग; जतन: प्रयास; तबीब: हकीम, उपचारक; ईमां: आस्था; दोनों जहां: इहलोक-परलोक;  तलबगार: अभिलाषी; रहबर: नेता, मार्गदर्शक; तकिया: विश्वास; बदकार: कुकर्मी; सिलसिल:-ए-रिज़्क़: रोज़ी-रोटी की व्यवस्था; ज़रिए-माश: अर्थ-प्राप्ति का साधन; चर्चे: चर्चाएं, प्रसिद्धि;  बे-शुमार: अनगिनत; सफ़: पंक्ति, (यहां आशय नमाज़ की पंक्ति से); ख़ुशगवार: प्रसन्नता-दायक।


सोमवार, 8 जुलाई 2013

उनसे उम्मीद क्यूं ?

गम-ए-आशिक़ी  की  ज़रूरत  नहीं  है
हमें  इस   ख़ुशी   की  ज़रूरत  नहीं  है

कई   और   भी   हैं   वफ़ा   के   तरीक़े
अभी   ख़ुदकुशी   की  ज़रूरत  नहीं  है

न  जाने  हमें   उनसे  उम्मीद   क्यूं  है
उन्हें  तो   किसी  की  ज़रूरत  नहीं  है

मैं   तारीकियों   में   तुम्हें   चाहता  हूं
मुझे   चांदनी   की    ज़रूरत   नहीं  है


तेरे   असलहे   के   मुक़ाबिल  है  ईमां
हमें    बेबसी    की    ज़रूरत   नहीं   है


करम है ख़ुदा का  के:  घर  चल रहा  है
ज़राए-बदी     की     ज़रूरत   नहीं   है

तू  कैसा  ख़ुदा  है  जिसे  इस  जहां  में
मेरी   बंदगी    की    ज़रूरत   नहीं   है !

                                                ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गम-ए-आशिक़ी: प्रेम के दुःख; वफ़ा: निर्वाह;  ख़ुदकुशी: आत्महत्या; तारीकियां: अंधेरे;  असलहे: अस्त्र-शस्त्र;  ईमां: आस्था; ज़राए-बदी: भ्रष्ट साधन;  बंदगी: भक्ति।

रविवार, 7 जुलाई 2013

मौत जीना सिखा दे...

आसमां  ही   दग़ा  दे   तो  मैं  क्या  करूं
बर्क़  घर  पे  गिरा  दे  तो  मैं  क्या  करूं

जो   कहा   मैंने    संजीदगी   से    कहा
वो:  लतीफ़ा  बना  दे  तो  मैं  क्या  करूं

हो  चुका   हूं    बहुत  दूर    मैं  इश्क़  से
कोई  ईमां   लुटा  दे    तो  मैं  क्या  करूं

जिसकी  दरियादिली  पे   हमें  नाज़  है
वो:  बहाना  बना  दे    तो  मैं  क्या  करूं

ख़ुदकुशी     की     हज़ारों    वजूहात  हैं
मौत  जीना सिखा दे  तो  मैं  क्या  करूं

अपनी   दीवानगी   की   ख़बर  है  मुझे
तू  मसीहा  बता  दे    तो  मैं  क्या  करूं

मैं   मदीने  में    बरसों    भटकता  रहा
कोई  झूठा  पता  दे  तो  मैं  क्या  करूं !

                                                    ( 2013 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आसमां: विधाता; दग़ा: धोखा; बर्क़: आकाशीय बिजली; संजीदगी:गंभीरता; लतीफ़ा: चुटकुला; दरियादिली: विशाल-हृदयता; नाज़: गर्व; ख़ुदकुशी: आत्महत्या; वजूहात: ( वजह का बहुव.): कारण; दीवानगी: पागलपन; मसीहा: देवदूत।


शनिवार, 6 जुलाई 2013

आप रास्ते में थे !

काश !  उसने   जो   ऐतबार   कर  लिया   होता
हमने  इस  ज़िंदगी  से  प्यार  कर  लिया  होता

दरिय:-ए-अश्क   अगर   ख़ुश्क़  ना  हुआ  होता
हमने  हर  ग़म  को   ख़रीदार  कर  लिया  होता

लाख    रुसवाइयों    से    आप-हम   बचे   रहते
एक-दूजे   को    ग़मग़ुसार    कर   लिया   होता

माल-ओ-ज़र  की   जो  चाहत   हमें  रही  होती
अपने  जज़्बात  को   बाज़ार   कर  लिया  होता

जान  थी   लब   पे   और  आप    रास्ते  में  थे
हमने  क्यूं  कर  न  इंतज़ार  कर  लिया  होता

क्या   ज़रूरत   थी    दर्द-ए-इश्क़    सहे  जाने  की
दिल  को  अल्ल:  का  तलबगार  कर  लिया  होता

चार  दिन   रोज़:-ओ-नमाज़  प'   रह   के   क़ायम
रूह   के   बाग़   को    गुलज़ार    कर   लिया  होता !

                                                               ( 2013)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   ऐतबार: विश्वास; दरिय:-ए-अश्क: आंसुओं की नदी; ख़ुश्क़: शुष्क; रुसवाइयां: अपमान;  ग़मग़ुसार: दुःख का साझीदार; माल-ओ-ज़र: धन-संपत्ति;  जज़्बात: भावनाएं;  लब: होंठ; तलबगार: ग्राहक, इच्छुक;  रोज़:-ओ-नमाज़: व्रत और प्रार्थना;  क़ायम: दृढ़; गुलज़ार: पुष्प-पल्लवित।