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शनिवार, 6 जुलाई 2013

आप रास्ते में थे !

काश !  उसने   जो   ऐतबार   कर  लिया   होता
हमने  इस  ज़िंदगी  से  प्यार  कर  लिया  होता

दरिय:-ए-अश्क   अगर   ख़ुश्क़  ना  हुआ  होता
हमने  हर  ग़म  को   ख़रीदार  कर  लिया  होता

लाख    रुसवाइयों    से    आप-हम   बचे   रहते
एक-दूजे   को    ग़मग़ुसार    कर   लिया   होता

माल-ओ-ज़र  की   जो  चाहत   हमें  रही  होती
अपने  जज़्बात  को   बाज़ार   कर  लिया  होता

जान  थी   लब   पे   और  आप    रास्ते  में  थे
हमने  क्यूं  कर  न  इंतज़ार  कर  लिया  होता

क्या   ज़रूरत   थी    दर्द-ए-इश्क़    सहे  जाने  की
दिल  को  अल्ल:  का  तलबगार  कर  लिया  होता

चार  दिन   रोज़:-ओ-नमाज़  प'   रह   के   क़ायम
रूह   के   बाग़   को    गुलज़ार    कर   लिया  होता !

                                                               ( 2013)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   ऐतबार: विश्वास; दरिय:-ए-अश्क: आंसुओं की नदी; ख़ुश्क़: शुष्क; रुसवाइयां: अपमान;  ग़मग़ुसार: दुःख का साझीदार; माल-ओ-ज़र: धन-संपत्ति;  जज़्बात: भावनाएं;  लब: होंठ; तलबगार: ग्राहक, इच्छुक;  रोज़:-ओ-नमाज़: व्रत और प्रार्थना;  क़ायम: दृढ़; गुलज़ार: पुष्प-पल्लवित।

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