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बुधवार, 10 जुलाई 2013

शे'रो-सुख़न के रास्ते

जब  से  वो:   दर्दे-दिल  के  ख़रीदार  हो  गए
लगता  है  हमें,   हम  तो  गुनहगार  हो  गए

बैठे  हैं  घर  में   उनकी  तमन्ना   किए  हुए
शे'रो-सुख़न    के    रास्ते    दुश्वार    हो  गए

बैठे-बिठाए    इश्क़  का  आज़ार   लग  गया
सारे   जतन    तबीब   के    बेकार   हो   गए

ईमां  लुटा  के   उनपे   ये:  ईनाम   मिला  है
दोनों   जहां     हमारे    तलबगार    हो   गए

रहबर  बताएं  कौन  है  हाफ़िज़  अवाम  का
तकिया था जिनपे लोग वो:  बदकार हो  गए

कुछ सिलसिल:-ए-रिज़्क़ हो कुछ ज़रिए-माश हो
चर्चे     हमारे    यूं   तो    बे-शुमार   हो  गए

वो:  आ  गए  हैं  सफ़  में  हमारी  कहे  बग़ैर
मौसम  शहर  के  आज  ख़ुशगवार  हो  गए !

                                                              ( 2013 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तमन्ना: अभिलाषा; शे'रो-सुख़न: काव्य और अभिव्यक्ति; दुश्वार: दुर्गम; आज़ार: रोग; जतन: प्रयास; तबीब: हकीम, उपचारक; ईमां: आस्था; दोनों जहां: इहलोक-परलोक;  तलबगार: अभिलाषी; रहबर: नेता, मार्गदर्शक; तकिया: विश्वास; बदकार: कुकर्मी; सिलसिल:-ए-रिज़्क़: रोज़ी-रोटी की व्यवस्था; ज़रिए-माश: अर्थ-प्राप्ति का साधन; चर्चे: चर्चाएं, प्रसिद्धि;  बे-शुमार: अनगिनत; सफ़: पंक्ति, (यहां आशय नमाज़ की पंक्ति से); ख़ुशगवार: प्रसन्नता-दायक।


सोमवार, 8 जुलाई 2013

उनसे उम्मीद क्यूं ?

गम-ए-आशिक़ी  की  ज़रूरत  नहीं  है
हमें  इस   ख़ुशी   की  ज़रूरत  नहीं  है

कई   और   भी   हैं   वफ़ा   के   तरीक़े
अभी   ख़ुदकुशी   की  ज़रूरत  नहीं  है

न  जाने  हमें   उनसे  उम्मीद   क्यूं  है
उन्हें  तो   किसी  की  ज़रूरत  नहीं  है

मैं   तारीकियों   में   तुम्हें   चाहता  हूं
मुझे   चांदनी   की    ज़रूरत   नहीं  है


तेरे   असलहे   के   मुक़ाबिल  है  ईमां
हमें    बेबसी    की    ज़रूरत   नहीं   है


करम है ख़ुदा का  के:  घर  चल रहा  है
ज़राए-बदी     की     ज़रूरत   नहीं   है

तू  कैसा  ख़ुदा  है  जिसे  इस  जहां  में
मेरी   बंदगी    की    ज़रूरत   नहीं   है !

                                                ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गम-ए-आशिक़ी: प्रेम के दुःख; वफ़ा: निर्वाह;  ख़ुदकुशी: आत्महत्या; तारीकियां: अंधेरे;  असलहे: अस्त्र-शस्त्र;  ईमां: आस्था; ज़राए-बदी: भ्रष्ट साधन;  बंदगी: भक्ति।

रविवार, 7 जुलाई 2013

मौत जीना सिखा दे...

आसमां  ही   दग़ा  दे   तो  मैं  क्या  करूं
बर्क़  घर  पे  गिरा  दे  तो  मैं  क्या  करूं

जो   कहा   मैंने    संजीदगी   से    कहा
वो:  लतीफ़ा  बना  दे  तो  मैं  क्या  करूं

हो  चुका   हूं    बहुत  दूर    मैं  इश्क़  से
कोई  ईमां   लुटा  दे    तो  मैं  क्या  करूं

जिसकी  दरियादिली  पे   हमें  नाज़  है
वो:  बहाना  बना  दे    तो  मैं  क्या  करूं

ख़ुदकुशी     की     हज़ारों    वजूहात  हैं
मौत  जीना सिखा दे  तो  मैं  क्या  करूं

अपनी   दीवानगी   की   ख़बर  है  मुझे
तू  मसीहा  बता  दे    तो  मैं  क्या  करूं

मैं   मदीने  में    बरसों    भटकता  रहा
कोई  झूठा  पता  दे  तो  मैं  क्या  करूं !

                                                    ( 2013 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आसमां: विधाता; दग़ा: धोखा; बर्क़: आकाशीय बिजली; संजीदगी:गंभीरता; लतीफ़ा: चुटकुला; दरियादिली: विशाल-हृदयता; नाज़: गर्व; ख़ुदकुशी: आत्महत्या; वजूहात: ( वजह का बहुव.): कारण; दीवानगी: पागलपन; मसीहा: देवदूत।


शनिवार, 6 जुलाई 2013

आप रास्ते में थे !

काश !  उसने   जो   ऐतबार   कर  लिया   होता
हमने  इस  ज़िंदगी  से  प्यार  कर  लिया  होता

दरिय:-ए-अश्क   अगर   ख़ुश्क़  ना  हुआ  होता
हमने  हर  ग़म  को   ख़रीदार  कर  लिया  होता

लाख    रुसवाइयों    से    आप-हम   बचे   रहते
एक-दूजे   को    ग़मग़ुसार    कर   लिया   होता

माल-ओ-ज़र  की   जो  चाहत   हमें  रही  होती
अपने  जज़्बात  को   बाज़ार   कर  लिया  होता

जान  थी   लब   पे   और  आप    रास्ते  में  थे
हमने  क्यूं  कर  न  इंतज़ार  कर  लिया  होता

क्या   ज़रूरत   थी    दर्द-ए-इश्क़    सहे  जाने  की
दिल  को  अल्ल:  का  तलबगार  कर  लिया  होता

चार  दिन   रोज़:-ओ-नमाज़  प'   रह   के   क़ायम
रूह   के   बाग़   को    गुलज़ार    कर   लिया  होता !

                                                               ( 2013)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   ऐतबार: विश्वास; दरिय:-ए-अश्क: आंसुओं की नदी; ख़ुश्क़: शुष्क; रुसवाइयां: अपमान;  ग़मग़ुसार: दुःख का साझीदार; माल-ओ-ज़र: धन-संपत्ति;  जज़्बात: भावनाएं;  लब: होंठ; तलबगार: ग्राहक, इच्छुक;  रोज़:-ओ-नमाज़: व्रत और प्रार्थना;  क़ायम: दृढ़; गुलज़ार: पुष्प-पल्लवित।

शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

मुस्कुराना पड़ेगा !

उमीदों  को  फिर  से  जगाना  पड़ेगा
जो  जीना  है  तो  मुस्कुराना  पड़ेगा

न मानें अगर वो: जो दो-चार दिन में
तो  अश्कों  का  दरिया  बहाना  पड़ेगा

बहुत  मुस्कुराते  हैं  हमको  सता  के
किसी  रोज़   हदिया  चुकाना   पड़ेगा

हमें  ख़ुदकुशी में भी दिक़्क़त न होगी
मगर तुमको मय्यत में आना  पड़ेगा

है दरकार  इंसाफ़  की तो  समझ  लो
कभी  न  कभी    सर   उठाना  पड़ेगा

सुना  है   इबादत  दवा  है   ग़मों  की
ये:  नुस्ख़ा  कभी  आज़माना  पड़ेगा !

                                                ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हदिया: धर्म-सम्मत सेवा-मूल्य, दक्षिणा; मय्यत: अंतिम यात्रा; इबादत: भक्ति।

गुरुवार, 4 जुलाई 2013

फ़राइज़-ए-रमज़ान

मुहब्बत  से  दिल  को  बचाना  पड़ेगा
हसीनों    से    पीछा     छुड़ाना  पड़ेगा

इलाजे-ग़मे-दिल  को  जाएं  कहां  हम
हकीमों   को   क़िस्सा   सुनाना  पड़ेगा

मेरी    बंदगी     उनको    भारी   पड़ेगी
गिरा   तो   उन्हीं   को    उठाना  पड़ेगा

बड़े  आए   आशिक़   मुहब्बत  जताने
ख़बर भी  है  क्या-क्या  लुटाना  पड़ेगा

न  खोलेंगे  वो: आज दरवाज़े  दिल  के
हमें     ज़ोर   से      खटखटाना  पड़ेगा

इबादत   में   अल्ल:  वफ़ा   चाहता  है
तो  ज़ाहिर  है    ईमान   लाना   पड़ेगा

फ़राइज़-ए-रमज़ान   आसां    न  होंगे
के: मस्जिद में हर  रोज़  जाना  पड़ेगा !

                                                     ( 2013 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: इलाजे-ग़मे-दिल: हृदय के दु:खों का उपचार; बंदगी: भक्ति; फ़राइज़-ए-रमज़ान: रमज़ान के कर्त्तव्य।


मंगलवार, 2 जुलाई 2013

तारीकियों में नाम-ए -ख़ुदा

ग़म  किसी  का  हो   मेरे  दिल  में   ठहर  जाता  है
कुछ  न  कुछ  रोज़  मेरे  जिस्म  में  मर  जाता  है

इतना  हस्सास   कर  दिया  है   हवादिस  ने  मुझे
आईना    देखता  है   मुझको    तो    डर  जाता  है

ख़्वाब    देता  तो  है   अल्लाह    मेरी  आंखों   को
क्यूं   मगर   टूट  के   मिट्टी  में  बिखर  जाता  है

तेरी   तकलीफ़   का    इल्हाम-सा  होता  है  मुझे
और   हर    दर्द    मेरे   दिल  में    उतर  जाता  है

हैं   मुक़ाबिल   मेरा   घर    और    शिवाला   तेरा
देखते   हैं     के:    मेरा   यार     किधर   जाता  है

जब  भी   तारीकियों  में   नाम-ए -ख़ुदा  लेता  हूं
देखते  देखते    घर    नूर   से      भर    जाता  है !

                                                                ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल