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शनिवार, 27 जुलाई 2013

हमारा ख़ूं-बहा

हमारा  ज़र्फ़    गर  मानिंदे-ए-दरिया    हो  गया  होता
तो  पानी  दो-जहां  के   सर  से  ऊपर   बह  रहा  होता

मरासिम  टूटने  के  बाद   ये:  अफ़सोस   मत  करियो
के:  तुमने  ये:  कहा  होता  के:  शायद  वो:  कहा  होता

ख़बर  क्या  थी  हमें   तुम  ही  हमारे  हो  ख़ुदा   वरना
तुम्हारी   दीद  से  पहले    वज़ीफ़ा    पढ़   लिया  होता

बड़ा  मासूम  क़ातिल  था   के:  'हां'  पे  जां   लुटा  बैठा
हमीं  कुछ  सब्र  कर  लेते   तो  शायद  जी  गया  होता

मेरे  एहबाब   मुंसिफ़  से   अगर   फ़रियाद  कर  आते
तो   तख़्तो-ताज  से   ज़्याद:    हमारा    ख़ूं-बहा  होता

तेरे   इक  फ़ैसले  ने    कर  दिया    बदनाम  दोनों  को
न  जलता  दिल  मेरा  तो  क्यूं  ज़माने  में  धुंवा  होता

ज़रा-सा  वक़्त  मिल  जाता  हवा  का  रुख़  बदलने  का
तो   हम  भी  देखते    कैसे    वो:   हमसे    बेवफ़ा  होता !

                                                                           ( 2013 )

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़र्फ़: धैर्य, गहराई; मानिंदे-ए-दरिया: नदी की भांति; मरासिम: सम्बंध;  अफ़सोस: खेद; दीद: दर्शन;
वज़ीफ़ा: अभिमंत्र: क़ातिल: वधिक; एहबाब: मित्र-गण;  मुंसिफ़: न्यायाधिकारी; फ़रियाद: न्याय की मांग; 
तख़्तो-ताज: राजासन एवं मुकुट; ख़ूं-बहा: वध-मूल्य, न्यायोचित क्षति-पूर्त्ति; बेवफ़ा: विमुख।

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

दुआओं में असर

मेरी  आंखों  में    समंदर   वो:    नज़र  आता  है
प्यास  लगती  है  तो  दरिया  मेरे  घर  आता  है

एक   हम  ही   जहां   में    राज़    जानते  हैं   ये:
किस  तरह    ख़्वाब   कोई  ज़ेरे-बहर  आता  है

यक़ीं  न  हो   तो   मेरे  साथ    जाग  कर   देखो
चांद   हर  रात    मेरी  छत  पे   उतर  आता  है

मेरी  सोहबत  का    असर   आइना  बतलाएगा
कैसे    रग़-रग़  पे    नया  नूर  निखर  आता  है

तू  सबाबों  का  सिला  बन  के  मिला  है  मुझको
देख  के    तुझको   ये:   एहसास   उभर  आता  है

मोमिनों !  बाम  पे   आ  जाओ   दुआएं   पढ़  लो
आसमां   से    कोई    मेहमान    इधर    आता  है

सफ़  में  हिर्सो-हवस  को  दिल  से  दूर  ही  रखियो
पाक   दामन     से    दुआओं  में   असर  आता  है !

                                                                    ( 2013 )

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दरिया: नदी; राज़: रहस्य; ज़ेरे-बहर: छंद की सीमा में;  सोहबत: संगति; सबाबों  का  सिला: पुण्य-कर्मों का फल;  एहसास: भाव; मोमिनों: श्रद्धालु-गण; बाम: झरोखा; सफ़: पंक्ति, नमाज़ पढने के लिए लगाई गई; हिर्सो-हवस: ईर्ष्या-द्वेष; पाक  दामन: पवित्र हृदय। 


बुधवार, 24 जुलाई 2013

रंग-ए-वफ़ा कुछ और

ज़ेहन  में  कुछ  और  था  दिल  चाहता  कुछ  और  था
हर  शिकस्ता  आदमी  का   फ़लसफ़ा   कुछ  और  था

आप  जानें   मैकदे  में   आ  के    क्या   हासिल  किया
शैख़  साहब    आपका  तो     मरतबा    कुछ  और  था

क्या   न  जाने    दे  गया    हमको  दवा    वो:  चारागर
इल्मे-तिब्बी   के  मुताबिक़   मशवरा   कुछ  और  था

खैंच    लाते    थे     अकेले     कश्तियां     गिरदाब   से
थे   जवां   जब    तो    हमारा    माद्दा   कुछ    और  था

ढूंढते    थे     सौ    बहाने      लोग     मिलने   के   लिए
कुछ  बरस  पहले   शहर  का   क़ायदा   कुछ  और  था

मंज़िलें   दर   मंज़िलें      हम     छोड़ते      चलते   गए
हम   मुसाफ़िर   थे    सफ़र  से  वास्ता   कुछ  और  था

क्या   अक़ीदत   थी    के:   सूली    चढ़  गए   हंसते  हुए
हज़रत-ए-मंसूर   का     रंग-ए-वफ़ा     कुछ    और  था !

                                                                            ( 2013 )

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ-संदर्भ: ज़ेहन: मस्तिष्क; शिकस्ता: हारे-थके; फ़लसफ़ा: दर्शन;  मैकदा: मदिरालय; शैख़: धर्मभीरु;   
मरतबा: लक्ष्य; चारागर: उपचारक; इल्मे-तिब्बी: चिकित्सा-शास्त्र;  मशवरा: परामर्श; गिरदाब: भंवर; माद्दा:सामर्थ्य; क़ायदा: नियम; वास्ता: सम्बंध;  अक़ीदत: आस्था; हज़रत मंसूर: इस्लाम के अद्वैत वादी दार्शनिक, जिन्होंने 'अनलहक़' का उदघोष किया जिसे तत्कालीन शासक ने ईश्वर-विरोधी मानते हुए उन्हें सार्वजनिक रूप से फांसी पर चढ़वा दिया, कालांतर में उन्हें ईश्वर का संदेश-वाहक ( पैगम्बर )
माना गया; रंग-ए-वफ़ा: प्रमाणित करने का ढंग !

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

हुक्काम के फ़रेब

इस  साल  उम्मीदों  के  मुताबिक़  फ़सल  हुई
मुद्दत  के  बाद    एक  मुकम्मल    ग़ज़ल  हुई

बाज़ार  ने   सब  लूट  लिया   चैन-अमन-नींद
मेहनतकशां  को  दाल  भी  ख़्वाबे-अज़ल  हुई

हुक्काम   के    फ़रेब   पे    हैरान   है    अवाम
मुश्किल  हरेक    सिर्फ़  काग़ज़ों  पे    हल  हुई

हो  क़ुदरती  क़हर  के:  तिजारत  के  दाव-पेच
राहत  की  बात  आई    और    आज-कल  हुई

क्या-क्या  दिखाए  ख़्वाब  रहबरों  ने  गांव  को
दह्क़ां  की    ज़िंदगी    ज़मीं  से   बे-दख़ल  हुई

सारे     जहां   में     धूम   थी    हिन्दोस्तान  की
फिर  किसके हक़ में  किसलिए  रद्दो-बदल  हुई

क्या  शाह  मिला  है    के:    बेचता  फिरे  ज़मीर
इज़्ज़त  जहां  में  हिंद  की   यूं  सर  के  बल  हुई

हैरत    से    देखते    हैं     तरक़्क़ी    के    आंकड़े
कोई   बताए     ज़िंदगी    किसकी    सहल  हुई ! ?

                                                                ( 2005 / 2013 )

                                                           -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मुकम्मल: सम्पूर्ण; मेहनतकशां: श्रमिक-वर्ग;  ख़्वाबे-अज़ल: मृत्यु-स्वप्न; हुक्काम: शासक-वर्ग;    फ़रेब: छद्म;  
अवाम: जन-सामान्य; क़ुदरती  क़हर: प्राकृतिक आपदा; तिजारत: व्यापार; रहबरों: नेताओं; दह्क़ां: कृषक-वर्ग;  बे-दख़ल: विस्थापित; रद्दो-बदल: फेर-बदल;  ज़मीर: स्वाभिमान;  सहल: सरल.
                                                                  

सोमवार, 22 जुलाई 2013

मंहगाइयां नहीं होतीं

काश !    बेताबियां    नहीं  होतीं
अपनी  बदनामियां   नहीं  होतीं

तरबियत  ने  अदब  सिखाया  है
हमसे  ग़ुस्ताख़ियां    नहीं  होतीं

हम  सियासत  अगर  किया  करते
रोज़    नाकामियां    नहीं  होतीं

सब्र   करते   ज़रा  निगाहों  का
लाख    रुस्वाइयां    नहीं  होतीं

मैकशी      बेबसी     बढ़ाती  है
दूर       तन्हाइयां    नहीं  होतीं


शायरी    रोज़गार     हो  रहती
तो   ये:  मंहगाइयां  नहीं  होतीं

तू    हमारा    ख़ुदा   हुआ  होता
इतनी  दुश् वारियां नहीं  होतीं!

                                     ( 2013 )

                              -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: बेताबियां: आतुरता(बहुव.); तरबियत: पालन-पोषण, संस्कार; ग़ुस्ताख़ियां: उद्दण्डताएं; रुस्वाइयां: अपमान (बहुव.); 
मैकशी: मदिरापान; बेबसी: विवशता; तनहाइयां: अकेलापन; दुश् वारियां: कठिनाइयां।



रविवार, 21 जुलाई 2013

रोज़ेदारी का जज़्बा

आपको  बिन  कहे  दिल  में  आना  न  था
आ   गए   तो    कहीं  और    जाना  न  था

दोस्तों    की    ज़रूरत     नहीं   तो   तुम्हें
हाथ    मेरी    तरफ़    यूं     बढ़ाना  न  था

छोड़   के    जो   गए    दुश्मनों  की  तरह
लौट  के  ख़्वाब  में   फिर  सताना  न  था

ख़्वाहमख़्वाह  रात  भर  जी  जलाते  रहे
उनके    वादे   पे    ईमान    लाना  न  था

तिश्नगी  जब   सहन  ही   नहीं  तो  तुम्हें
रोज़ेदारी    का    जज़्बा   दिखाना  न  था !

                                                         ( 2013 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ख़्वाहमख़्वाह: अकारण, व्यर्थ;   ईमान: आस्था; तिश्नगी: प्यास; रोज़ेदारी: निर्जल उपवास; जज़्बा: भावना, उत्साह।

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

कुछ नहीं बाक़ी !

आज   कहने    को  कुछ  नहीं  बाक़ी
चुप  भी  रहने  को  कुछ  नहीं  बाक़ी

बेच    डाला    वतन    सियासत   ने
फ़ख़्र    करने   को  कुछ  नहीं  बाक़ी

ख़्वाब  तक  ख़्वाब  हो  गए  जब से
तब  से  डरने  को  कुछ  नहीं  बाक़ी

रूह      थर्रा      गई     उम्मीदों    की
हाथ   मलने    को  कुछ  नहीं  बाक़ी

लोग      घबरा    गए   वफ़ाओं    से
दिल  बहलने  को  कुछ  नहीं  बाक़ी

देख     ली   मौत    नौनिहालों    की
दर्द    सहने    को   कुछ  नहीं  बाक़ी

तोड़     ली     डोर    ख़ुदा    ने    हमसे
सर  के  झुकने  को  कुछ  नहीं  बाक़ी !

                                                 ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़ख़्र: गर्व।