हमारा ज़र्फ़ गर मानिंदे-ए-दरिया हो गया होता
तो पानी दो-जहां के सर से ऊपर बह रहा होता
मरासिम टूटने के बाद ये: अफ़सोस मत करियो
के: तुमने ये: कहा होता के: शायद वो: कहा होता
ख़बर क्या थी हमें तुम ही हमारे हो ख़ुदा वरना
तुम्हारी दीद से पहले वज़ीफ़ा पढ़ लिया होता
बड़ा मासूम क़ातिल था के: 'हां' पे जां लुटा बैठा
हमीं कुछ सब्र कर लेते तो शायद जी गया होता
मेरे एहबाब मुंसिफ़ से अगर फ़रियाद कर आते
तो तख़्तो-ताज से ज़्याद: हमारा ख़ूं-बहा होता
तेरे इक फ़ैसले ने कर दिया बदनाम दोनों को
न जलता दिल मेरा तो क्यूं ज़माने में धुंवा होता
ज़रा-सा वक़्त मिल जाता हवा का रुख़ बदलने का
तो हम भी देखते कैसे वो: हमसे बेवफ़ा होता !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ज़र्फ़: धैर्य, गहराई; मानिंदे-ए-दरिया: नदी की भांति; मरासिम: सम्बंध; अफ़सोस: खेद; दीद: दर्शन;
वज़ीफ़ा: अभिमंत्र: क़ातिल: वधिक; एहबाब: मित्र-गण; मुंसिफ़: न्यायाधिकारी; फ़रियाद: न्याय की मांग;
तख़्तो-ताज: राजासन एवं मुकुट; ख़ूं-बहा: वध-मूल्य, न्यायोचित क्षति-पूर्त्ति; बेवफ़ा: विमुख।
तो पानी दो-जहां के सर से ऊपर बह रहा होता
मरासिम टूटने के बाद ये: अफ़सोस मत करियो
के: तुमने ये: कहा होता के: शायद वो: कहा होता
ख़बर क्या थी हमें तुम ही हमारे हो ख़ुदा वरना
तुम्हारी दीद से पहले वज़ीफ़ा पढ़ लिया होता
बड़ा मासूम क़ातिल था के: 'हां' पे जां लुटा बैठा
हमीं कुछ सब्र कर लेते तो शायद जी गया होता
मेरे एहबाब मुंसिफ़ से अगर फ़रियाद कर आते
तो तख़्तो-ताज से ज़्याद: हमारा ख़ूं-बहा होता
तेरे इक फ़ैसले ने कर दिया बदनाम दोनों को
न जलता दिल मेरा तो क्यूं ज़माने में धुंवा होता
ज़रा-सा वक़्त मिल जाता हवा का रुख़ बदलने का
तो हम भी देखते कैसे वो: हमसे बेवफ़ा होता !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ज़र्फ़: धैर्य, गहराई; मानिंदे-ए-दरिया: नदी की भांति; मरासिम: सम्बंध; अफ़सोस: खेद; दीद: दर्शन;
वज़ीफ़ा: अभिमंत्र: क़ातिल: वधिक; एहबाब: मित्र-गण; मुंसिफ़: न्यायाधिकारी; फ़रियाद: न्याय की मांग;
तख़्तो-ताज: राजासन एवं मुकुट; ख़ूं-बहा: वध-मूल्य, न्यायोचित क्षति-पूर्त्ति; बेवफ़ा: विमुख।
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन ५ रुपये मे भरने का तो पता नहीं खाली हो जाता है - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंbehtareen rachna... !!
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