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मंगलवार, 23 जुलाई 2013

हुक्काम के फ़रेब

इस  साल  उम्मीदों  के  मुताबिक़  फ़सल  हुई
मुद्दत  के  बाद    एक  मुकम्मल    ग़ज़ल  हुई

बाज़ार  ने   सब  लूट  लिया   चैन-अमन-नींद
मेहनतकशां  को  दाल  भी  ख़्वाबे-अज़ल  हुई

हुक्काम   के    फ़रेब   पे    हैरान   है    अवाम
मुश्किल  हरेक    सिर्फ़  काग़ज़ों  पे    हल  हुई

हो  क़ुदरती  क़हर  के:  तिजारत  के  दाव-पेच
राहत  की  बात  आई    और    आज-कल  हुई

क्या-क्या  दिखाए  ख़्वाब  रहबरों  ने  गांव  को
दह्क़ां  की    ज़िंदगी    ज़मीं  से   बे-दख़ल  हुई

सारे     जहां   में     धूम   थी    हिन्दोस्तान  की
फिर  किसके हक़ में  किसलिए  रद्दो-बदल  हुई

क्या  शाह  मिला  है    के:    बेचता  फिरे  ज़मीर
इज़्ज़त  जहां  में  हिंद  की   यूं  सर  के  बल  हुई

हैरत    से    देखते    हैं     तरक़्क़ी    के    आंकड़े
कोई   बताए     ज़िंदगी    किसकी    सहल  हुई ! ?

                                                                ( 2005 / 2013 )

                                                           -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मुकम्मल: सम्पूर्ण; मेहनतकशां: श्रमिक-वर्ग;  ख़्वाबे-अज़ल: मृत्यु-स्वप्न; हुक्काम: शासक-वर्ग;    फ़रेब: छद्म;  
अवाम: जन-सामान्य; क़ुदरती  क़हर: प्राकृतिक आपदा; तिजारत: व्यापार; रहबरों: नेताओं; दह्क़ां: कृषक-वर्ग;  बे-दख़ल: विस्थापित; रद्दो-बदल: फेर-बदल;  ज़मीर: स्वाभिमान;  सहल: सरल.
                                                                  

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