Translate

शुक्रवार, 21 जून 2013

आशिक़ी मुबारक हो

आपको    हर    ख़ुशी    मुबारक  हो
हमको     फ़ाक़ाकशी    मुबारक  हो

शहर     सैलाब    ने     मिटा   डाला
मौत   को    ज़िंदगी     मुबारक  हो

उम्र    है     ख़्वाब    हैं      ज़राए  हैं
आपको     आशिक़ी     मुबारक  हो

हम   यहां    दिल   जलाए   बैठे  हैं
उनको    ज़िंदादिली    मुबारक  हो

हम  मुसाफ़िर  हमारा  फ़र्ज़  सफ़र
राह      कांटों-भरी      मुबारक  हो

जिस्म    बदकार    हुए    जाते  हैं
रूह  की    ख़ुदकुशी    मुबारक  हो

जब  तलक  ताज-तख़्त  क़ायम  हैं
शाह   को   ज़िंदगी    मुबारक  हो  !

                                                 ( 2013 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़ाक़ाकशी: भुखमरी; सैलाब: बाढ़;  ज़राए: बहुत-से साधन; बदकार: कुकर्मी।

बुधवार, 19 जून 2013

ख़ुदा गवाह किया !

नज़्म   कह   के   बड़ा   गुनाह   किया
शैख़   साहब   का   घर   तबाह  किया

उसको  मंज़िल  ने   हाथों-हाथ  लिया
जिसको  हमने  शरीक़-ए-राह  किया

कौन    सिखलाएगा    वफ़ा     हमको
हमने   घर   बेच   के    निबाह  किया

तेरी    यादों    से    घर     दहक़ता   था
दश्त-ओ-सहरा  को  ख़्वाबगाह  किया

चैन    पाते    तो    किस    तरह    पाते
दुश्मन-ए-जां   को    ख़ैरख़्वाह    किया

शान-ओ-शौक़त    लुटाई    यूं   हमने
अपने    दिल    को  जहांपनाह  किया

सुर्ख़रू:    क्यूं     भला    न    हम  होते
हर    क़दम   पे   ख़ुदा   गवाह   किया।

                                                ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शैख़ साहब: धार्मिक व्यक्ति; शरीक़-ए-राह: सहयात्री; दश्त-ओ-सहरा: वन और मरुस्थल; ख़्वाबगाह: सोने का स्थान, विश्रामालय; ख़ैरख़्वाह: शुभचिंतक; शान-ओ-शौक़त: ऐश्वर्य और समृद्धि; जहांपनाह: सब को आश्रय देने वाला, राजसी स्वभाव का; सुर्ख़रू: : सफल।

रविवार, 16 जून 2013

सिलसिला हो शुरू ...

हो  जुनूं-ए-मोहब्बत  तो  नायाब  हो
पुरसुकूं   दिल   रहे    रूह  बेताब  हो

सिलसिला  हो  शुरू  तो  रवायत  बने
तेरी आमद हो तो  ख़्वाब दर ख़्वाब हो

ये:  जबीं  नूर-ए-अल्लः  से  रौशन  रहे
तेरी  तस्वीर  भी  रश्क़-ए-महताब  हो

हो  ज़माने  की   आंखों  में   बदनीयती
तो  मुक़ाबिल  तेरी  नज़्र-ए-तेज़ाब  हो

हैं  तरक़्क़ी  के  मानी  तभी   मुल्क  में
तिफ़्ल दर तिफ़्ल  ईमां से  ज़रयाब  हो

एक  क़तरा  गिरे  गर  तेरी  आंख  से
दो-जहां    चार  सू      ज़ेरे-सैलाब  हो !

                                                                    ( 2013 )

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जुनूं-ए-मोहब्बत: प्रेमोन्माद; नायाब: अलभ्य, अप्राप्य; पुरसुकूं: विश्रांति-पूर्ण; रूह: आत्मा; बेताब: विकल; सिलसिला: क्रम; रवायत: परंपरा; आमद: आगमन; जबीं: मस्तक; नूर-ए-अल्लः : ईश्वरीय प्रकाश; रौशन: प्रकाशित; रश्क़-ए-महताब: चन्द्रमा की ईर्ष्या का पात्र; मुक़ाबिल: समक्ष; नज़्र-ए-तेज़ाब: तेज़ाब जैसी दृष्टि; तिफ़्ल दर तिफ़्ल: बच्चा-बच्चा;  ईमां  से  ज़रयाब: ईमान के सोने से समृद्ध; क़तरा: बूंद; गर: यदि; दो-जहां: इहलोक-परलोक; चार सू: चारों दिशाएं;  ज़ेरे-सैलाब: जल-प्लावित।

शनिवार, 15 जून 2013

हमें रोने वाला तो है !

इस  शब-ए-तार  में  कुछ  निराला  तो  है
नूर-ए-अल्लाह  का   कुछ  उजाला  तो  है

ये:   तेरा   शह्र    यूं    अजनबी   भी   नहीं
ख़्वाब   में   ही   सही    देखा-भाला  तो  है

थम   गए    मेरी    आवारगी   के    क़दम
ठोकरों   ने   मुझे     कुछ   संभाला  तो  है

मुफ़लिसी  में  भी   मेहमां  अगर  आ  रहें
वाजवां   हो   न   हो   पर   निवाला  तो  है

मुस्कुरा  के   गले  मिल  रहे  हैं   वो:  फिर
दाल  में  कुछ  न  कुछ  आज  काला  तो  है

रंग     लाने    लगी    है     बग़ावत    मेरी
वक़्त  ने  ख़ुद  को  सांचे  में   ढाला  तो  है

बदगुमां  हो  के  भी   हमको  प्यारा  है  तू
एक   दुश्मन   हमें   रोने   वाला   तो   है !

                                                          ( 2013 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शब-ए-तार: काली रात, अमावस्या; नूर-ए-अल्लाह: ईश्वर का प्रकाश; मुफ़लिसी: कंगाली; वाजवां: कश्मीरी समाज में विवाह के अवसर पर दिया जाने वाला भोज जिसमें 56 प्रकार के मांसाहारी व्यंजन परोसे जाते हैं;  बग़ावत: विद्रोह; बदगुमां: बहका हुआ, भ्रमित।

बुधवार, 12 जून 2013

उसको ईमां दिया

इश्क़  ही  कर  लिया  तो  बुरा  क्या  किया
एक    सज्दा   किया  तो  बुरा  क्या  किया

आबे-ज़मज़म  को  ठुकरा  के  हमने  अगर
जामे-उल्फ़त  पिया   तो  बुरा  क्या  किया

जिस  पे  आशिक़  हैं  हम  उसके  लायक़  नहीं
उसने  अपना  लिया   तो  बुरा  क्या  किया

हमको  साक़ी  ने  दिल  से  लगा  के  अगर
चाक   दामन  सिया   तो  बुरा  क्या  किया

जिसको  अल्लाहो-अकबर  बताते  हैं  सब
उसको   ईमां   दिया   तो  बुरा  क्या  किया ?

                                                           ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सज्दा: धरती पर सर झुका कर प्रणाम; आबे-ज़मज़म: पवित्र मक्का के एक आरोग्य दायक स्रोत का जल; जामे-उल्फ़त: प्रेम          का  पात्र; साक़ी: मदिरा देने वाला; चाक   दामन: फटा हुआ उत्तरीय, विदीर्ण हृदय; अल्लाहो-अकबर: सर्व-शक्तिमान ईश्वर।

सोमवार, 10 जून 2013

दस्तरख़्वान सजा है...

मैं  हूं  तू  है  और  ख़ुदा  है  अपना  घर
वाल्दैन  की  नेक  दुआ  है  अपना  घर

टूटे     और     थके-हारे    इंसानों    को
उम्मीदों  की  एक  शुआ  है  अपना  घर

शानो-शौक़त  इशरत  के  सामान  नहीं
मस्जिद-सा  सीधा-सादा  है  अपना  घर

दस्तरख़्वान  सजा  है  जो  है  हाज़िर  है
हर मुफ़लिस पर खुला हुआ है अपना घर

शाम-सुबह   जी  हल्का  करने   आते  हैं
दीवानों   ने    देख  रखा  है    अपना  घर

एहतराम  औ' इश्क़  रवायत  है  जिसकी
दुनियां  में   जाना-माना  है   अपना  घर।

व्हाइट हाउस से   दस जनपथ तक  शर्त्त  रही
हर  पैमाने  पर   अच्छा  है   अपना  घर !

                                                       ( 2013 )

                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: वाल्दैन: माता-पिता; शुआ: किरण; शानो-शौक़त: ऐश्वर्य और समृद्धि;  इशरत: विलासिता; दस्तरख़्वान: सामूहिक भोजन हेतु बिछाया जाने वाला आसन; मुफ़लिस: विपन्न, निर्धन; एहतराम: सम्मान; रवायत: परंपरा।


रविवार, 9 जून 2013

उफ़ ! तेरा इंतज़ार...

उसके  क़िस्से  में   मेरा  नाम   तक  नहीं  आता
दोस्त  कहता  है   मुझे    बाम  तक  नहीं  आता

तेरी   वफ़ा   की   हक़ीक़त    बता  न  दूं   सबको
वस्ल   तो    दूर   है    पैग़ाम   तक   नहीं   आता

सोह्बते-शैख़   ने    आदत    मेरी   बदल   डाली
हाथ  उठता  तो  है   पर  जाम  तक  नहीं  आता

बोल  क्या  नाम  दूं  क़ातिल  तेरी  नफ़ासत  को
क़त्ल  करता  है  तो  इल्ज़ाम  तक  नहीं  आता

ये:  मेरा  शौक़-ए-सुख़न  मर्ज़  ला-इलाज  हुआ
सोह्बते-हुस्न   में    आराम  तक    नहीं  आता

उफ़ !   तेरा    इंतज़ार   है     के:   उम्र-क़ैद   मेरी
घर  से  चलता  है  सुबह  शाम  तक  नहीं  आता !

                                                                  ( 2013 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बाम: झरोखा; वफ़ा: निर्वाह; हक़ीक़त यथार्थ;वस्ल: मिलन; पैग़ाम: सन्देश; सोह्बते-शैख़: अति-धार्मिक व्यक्ति का साथ; 
          जाम: मदिरा-पात्र; नफ़ासत: सुगढ़ता; इल्ज़ाम: आरोप; शौक़-ए-सुख़न: सृजन की रुचि; मर्ज़: रोग; ला-इलाज: असाध्य; 
         सोह्बते-हुस्न: सौंदर्य का साथ।