हो जुनूं-ए-मोहब्बत तो नायाब हो
पुरसुकूं दिल रहे रूह बेताब हो
सिलसिला हो शुरू तो रवायत बने
तेरी आमद हो तो ख़्वाब दर ख़्वाब हो
ये: जबीं नूर-ए-अल्लः से रौशन रहे
तेरी तस्वीर भी रश्क़-ए-महताब हो
हो ज़माने की आंखों में बदनीयती
तो मुक़ाबिल तेरी नज़्र-ए-तेज़ाब हो
हैं तरक़्क़ी के मानी तभी मुल्क में
तिफ़्ल दर तिफ़्ल ईमां से ज़रयाब हो
एक क़तरा गिरे गर तेरी आंख से
दो-जहां चार सू ज़ेरे-सैलाब हो !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: जुनूं-ए-मोहब्बत: प्रेमोन्माद; नायाब: अलभ्य, अप्राप्य; पुरसुकूं: विश्रांति-पूर्ण; रूह: आत्मा; बेताब: विकल; सिलसिला: क्रम; रवायत: परंपरा; आमद: आगमन; जबीं: मस्तक; नूर-ए-अल्लः : ईश्वरीय प्रकाश; रौशन: प्रकाशित; रश्क़-ए-महताब: चन्द्रमा की ईर्ष्या का पात्र; मुक़ाबिल: समक्ष; नज़्र-ए-तेज़ाब: तेज़ाब जैसी दृष्टि; तिफ़्ल दर तिफ़्ल: बच्चा-बच्चा; ईमां से ज़रयाब: ईमान के सोने से समृद्ध; क़तरा: बूंद; गर: यदि; दो-जहां: इहलोक-परलोक; चार सू: चारों दिशाएं; ज़ेरे-सैलाब: जल-प्लावित।
पुरसुकूं दिल रहे रूह बेताब हो
सिलसिला हो शुरू तो रवायत बने
तेरी आमद हो तो ख़्वाब दर ख़्वाब हो
ये: जबीं नूर-ए-अल्लः से रौशन रहे
तेरी तस्वीर भी रश्क़-ए-महताब हो
हो ज़माने की आंखों में बदनीयती
तो मुक़ाबिल तेरी नज़्र-ए-तेज़ाब हो
हैं तरक़्क़ी के मानी तभी मुल्क में
तिफ़्ल दर तिफ़्ल ईमां से ज़रयाब हो
एक क़तरा गिरे गर तेरी आंख से
दो-जहां चार सू ज़ेरे-सैलाब हो !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: जुनूं-ए-मोहब्बत: प्रेमोन्माद; नायाब: अलभ्य, अप्राप्य; पुरसुकूं: विश्रांति-पूर्ण; रूह: आत्मा; बेताब: विकल; सिलसिला: क्रम; रवायत: परंपरा; आमद: आगमन; जबीं: मस्तक; नूर-ए-अल्लः : ईश्वरीय प्रकाश; रौशन: प्रकाशित; रश्क़-ए-महताब: चन्द्रमा की ईर्ष्या का पात्र; मुक़ाबिल: समक्ष; नज़्र-ए-तेज़ाब: तेज़ाब जैसी दृष्टि; तिफ़्ल दर तिफ़्ल: बच्चा-बच्चा; ईमां से ज़रयाब: ईमान के सोने से समृद्ध; क़तरा: बूंद; गर: यदि; दो-जहां: इहलोक-परलोक; चार सू: चारों दिशाएं; ज़ेरे-सैलाब: जल-प्लावित।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें