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सोमवार, 30 मई 2016

रस्मे-राहत ...

जश्ने-वहशत  मना  रहे  हैं  वो:
ख़ूब  ताक़त  दिखा  रहे  हैं  वो:

बांट  कर  अस्लहे  मुरीदों  को
और  दहशत  बढ़ा  रहे  हैं  वो:

क़त्ल  करना  सवाब  है  जिनको
क्यूं  मुहब्बत  जता  रहे  हैं  वो:

ताजिरों  को  नियाज़  के  बदले
रोज़  दौलत  लुटा  रहे  हैं  वो:

चंद  दाने  उछाल  कर  हम  पर
रस्मे-राहत  निभा  रहे  हैं  वो:

नस्लो-मज़्हब  में  बांट  कर  दुनिया
क़स्रे-नफ़्रत  बना  रहे  हैं  वो :

कोई  वादा  निभा  नहीं  पाए
तो  सियासत  सिखा  रहे  हैं  वो !

                                                                       (2016)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जश्ने-वहशत : उन्माद-पर्व ; अस्लहे : अस्त्र-शस्त्र ; मुरीदों : भक्त जन ; दहशत : भय, आतंक ; सवाब : पुण्य-कर्म ; ताजिरों : व्यापारियों ; नियाज़ : भिक्षा ; रस्मे-राहत : सहायता की प्रथा / औपचारिकता ;
नस्लो-मज़्हब : प्रजाति और धर्म ; क़स्रे-नफ़्रत : घृणा का महल ।


शनिवार, 28 मई 2016

...खुले दिल से

लोग  क्या  ख़ूब  ग़मगुसार  रहे
मर्ग़  तक  जान  पर  सवार  रहे

थी  कमी  इस  क़दर  दुआओं  की
हर  जगह  हम  ही  शर्मसार  रहे

फंस  गए  हैं  अजीब  मुश्किल  में
ग़म  रहे  या  कि  रोज़गार  रहे 

निभ  गई  चार  दिन  ख़िज़ां  से  भी
चार  दिन  मौसमे-बहार  रहे

तंज़  यूं  हो  कि  चीर  दे  दिल  को
लफ़्ज  दर  लफ़्ज  धारदार  रहे

कह  गए  बात  जो  खुले  दिल  से
वो  सभी  ज़ुल्म  के  शिकार  रहे

मुल्क  बर्बाद  हो  तो  हो  जाए
शाह  का  शौक़  बरक़रार  रहे

क़ब्र  से  भी  चुकाएंगे   क़िश्तें
हम  अगर  और  क़र्ज़दार  रहे

थे  ज़मीं  पर  भी  आपके  मेहमां
ख़ुल्द  में  भी  किराय:दार  रहे  !

आएं  या  भेज  दें  फ़रिश्तों  को
क्यूं  उन्हें  और  इंतज़ार  रहे  !

                                                                  (2016)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ग़मगुसार : संवेदनशील, दुःख समझने वाले ; मर्ग़ : मृत्यु ; शर्मसार : लज्जित ; रोज़गार : आजीविका ; ख़िज़ां : पतझड़ ; मौसमे-बहार : बसंत ऋतु ; तंज़ : व्यंग्य ; लफ़्ज़ दर लफ़्ज़ : शब्द प्रति शब्द ; ज़ुल्म : अत्याचार ; शौक़ : विलास ; बरक़रार : स्थायी, शास्वत ; क़ब्र : समाधि ; क़र्ज़दार : ऋणी ; ज़मीं : पृथ्वी ; मेहमां : अतिथि ; ख़ुल्द : स्वर्ग, परलोक ; फ़रिश्तों : मृत्यु-दूतों ।





शुक्रवार, 27 मई 2016

नफ़्रतों की हवा ...

इज़्हार  से  हमें  तो  अना  रोक  रही  है
अब  आप  कहें  किसकी  वफ़ा  रोक  रही  है

कल  तक  वो  बेक़रार  रहे  वस्ल  के  लिए
हैरत  है  उन्हें  आज  हया  रोक  रही  है

बंदिश  नहीं  है  कोई  ग़ज़लगोई  पर  यहां
बस  हमको  मुंतज़िम  की  अदा  रोक  रही  है

मक़्तूल  के  अज़ीज़  परेशां  हैं  दर ब दर
सरकार  क़ातिलों  की  सज़ा  रोक  रही  है

आने  में  ऐतराज़  नहीं  है  बहार  को
ऐ  शाह !  नफ़्रतों  की  हवा  रोक  रही  है

आसां  नहीं  है  सैले-तीरगी  को  थामना
क्या  ख़ूब  कि  नन्ही-सी  शम्'.अ  रोक  रही  है

तैयार  नहीं  अर्श  हमारे  लिए  अभी
हमको  भी  दोस्तों  की  दुआ  रोक  रही  है  !

                                                                                           (2016)

                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : इज़्हार :(प्रेम की) स्वीकारोक्ति ; अना : आत्मसम्मान ; वफ़ा : निष्ठा ; बेक़रार : व्यग्र ; वस्ल :मिलन ;
हैरत : आश्चर्य ; हया : लज्जा ; बंदिश : बंधन, प्रतिबंध ; ग़ज़लगोई : ग़ज़ल कहना ; मुंतज़िम : व्यवस्थापक ; अदा : भंगिमा ; मक़्तूल : वधित व्यक्ति ; अज़ीज़ : प्रिय जन ; दर ब दर : द्वार-द्वार ; क़ातिलों : हत्यारों ; ऐतराज़ : आपत्ति ; बहार : बसंत ; नफ़्रतों : घृणाओं ; आसां : सरल ; सैले-तीरगी : अंधकार का प्रवाह ; शम्'.अ : दीपिका ;
अर्श : आकाश, परलोक ।

बुधवार, 25 मई 2016

अज़ीज़ों से गुज़ारिश

चुरा  कर  दिल  परेशां  हैं  यहां  रक्खें  वहां  रक्खें
हमीं  से  पूछ  लेते  हम  बता  देते  कहां  रक्खें

मनाएं  जश्न  अपनी  कामयाबी  का  मगर  पहले
ज़मीं  पर  पांव  रख  लें  तब  नज़र  में  आस्मां  रक्खें

अज़ीज़ों  से  गुज़ारिश  है  कि  जब  लें  फ़ैसला  ख़ुद  पर
हमारा  नाम  भी  अपने  ज़ेहन  में  मेह्रबां  रक्खें

ज़ईफ़ी  मस्'.अला  है  जिस्म  का  दिल  पर  असर  क्यूं  हो
मियां  जी ! कम  अज़  कम  अपने  ख़्यालों  को  जवां  रक्खें

जिन्हें  है  शौक़  मन  की  बात  दुनिया  को  सुनाने  का
मजालिस  से  मुख़ातिब  हों  तो  फूलों  सी  ज़ुबां  रक्खें

बने  हैं  जो  चमन  के  बाग़बां  यह  फ़र्ज़  है  उनका
बरस  में  दो  महीने  तो  बहारों  का  समां  रक्खें

फ़रिश्तों  को  बता  दीजे  कि  हम  तैयार  बैठे  हैं
हमारे  वास्ते  भी  अर्श  पर  ख़ाली  मकां  रक्खें  !

                                                                                                                (2016)

                                                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : परेशां : चिंतित ; जश्न : समारोह ; कामयाबी : सफलता ; अज़ीज़ों : प्रिय जन ; गुज़ारिश : अनुरोध ; ज़ेहन : मस्तिष्क, ध्यान ; मेह्रबां : कृपालु ; ज़ईफ़ी : वृद्धावस्था ; मस्'.अला : समस्या ; जिस्म : शरीर ; अज़ :से ; मजालिस : सभाओं ; मुख़ातिब : संबोधित ; ज़ुबां :भाषा, शब्दावली ; चमन : उपवन ,देश ; बाग़बां : माली ;
फर्ज़ : कर्त्तव्य ; समां : वातावरण ; फ़रिश्तों : मृत्यु-दूतों ; अर्श : आकाश, परलोक ; ख़ाली : रिक्त ;  मकां : आवास ।


सोमवार, 23 मई 2016

...जो नवाज़े गए

हो  जहां  ज़िंदगी  तेग़  की  धार  पर
जब्र  होने  न  दें  अपने  किरदार  पर

आईना  भी  कहां  तक  मज़म्मत  करे
दाग़  ही  दाग़  हैं  जिस्मे-सरकार  पर

नाम  जम्हूरियत  का  बदल  दीजिए
हो  अक़ीदा  अगर  रस्मे-बाज़ार  पर

आप  शायद  समझ  ही  न  पाएं  कभी
लोग  ख़ुश  क्यूं  हुए  आपकी  हार  पर

मज्लिसे-शाह  में  जो  नवाज़े  गए
अब  सफ़ाई  न  दें  अपनी  दस्तार  पर

रोज़  मिलना  ज़रूरी  नहीं  ना  सही
आइए  तो  कभी  तीज-त्यौहार  पर

' तूर  की  राह  रौशन  हमीं  ने  रखी
हक़  हमें  क्यूं  न  हो  आपके  प्यार  पर ?

                                                                                          (2016)

                                                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तेग़ : कृपाण ; जब्र : बल-प्रयोग ; किरदार : चरित्र ; मज़म्मत : निंदा, आलोचना ; जिस्मे-सरकार : शासन का शरीर, शासन-तंत्र ; जम्हूरियत : लोकतंत्र ; अक़ीदा : आस्था ; रस्मे-बाज़ार : व्यापार की प्रथा ; मज्लिसे-शाह : राजसभा ; राजा की सभा ; नवाज़े : पुरस्कृत , सम्मानित ; दस्तार : शिरो-वस्त्र, प्रतिष्ठा ; तूर : कोहे-तूर, अरब का एक मिथकीय पर्वत, जहां हज़रत मूसा अ.स. को ख़ुदा की झलक दिखाई दी थी ; रौशन : प्रकाशित ; हक़ : अधिकार ।



गुरुवार, 19 मई 2016

ख़ुदी का रसूख़...

शिद्दते-दर्द  को  बढ़ाना  है
आशिक़ी  तो  महज़  बहाना  है

सामना  कीजिए  हक़ीक़त  का
वक़्त  को  फ़ैसला  सुनाना  है

ज़िक्र  मत  छेड़िए  शराफ़त  का
हर  कहीं  झूठ  है  फ़साना  है

रिंद  तैयार  है  इबादत  को
शैख़  को  आइना  दिखाना  है

मांगना  छोड़  दें  ख़ुदा  से  भी
गर  ख़ुदी  का  रसूख़  पाना  है

ख़ुल्द  का  ख़्वाब  बेचते  हैं  जो
अब  उन्हें  राहे-रास्त  लाना  है

एक  मक़सूद  एक  ही  मंज़िल
बेकसों  से  वफ़ा  निभाना  है

मुस्तक़िल  रोज़गार  है  अपना
शाह  का  मक़बरा  बनाना   है

राह  अब  इंक़िलाब  की  तय  है
आख़िरी  दांव  आज़माना  है  !

                                                                                       (2016)

                                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : शिद्दते-दर्द : पीड़ा की तीव्रता ; महज़ : मात्र ; हक़ीक़त : यथार्थ, वास्तविकता ; ज़िक्र : उल्लेख ; शराफ़त : संभ्रांत व्यवहार ; फ़साना : मिथ्या कथा ; रिंद : मद्यप ; इबादत : पूजा-पाठ, प्रार्थना ; शैख़ : धर्मभीरु ; गर: यदि; ख़ुदी  : स्वाभिमान ; रसूख़ : दृढ़ता ; ख़ुल्द : स्वर्ग ; राहे -रास्त : सन्मार्ग ; मक़सूद : अभिप्रेत, अभीष्ट ; बेकसों : असहायों ; वफ़ा : निष्ठां ; मुस्तक़िल  रोज़गार : स्थायी आजीविका ; इंक़िलाब : क्रांति।  


बुधवार, 18 मई 2016

हैरान है अवाम...

सर  चढ़  के  शाह  का  ग़ुरूर  बोल  रहा  है
नफ़्रत  से  मुफ़्लिसों  का  लहू  ख़ौल  रहा  है

निगरां-ए-मुल्क  दुश्मने-अवाम  हो  गया
बदबख़्त  ज़ुल्मतों  से  वफ़ा  तौल  रहा  है

हैरान  है  अवाम  कि  ईमां  कहां  गया
किसके  गुनाह  कौन  यहां  खोल  रहा  है

हर  कोई  जानता  है  कि  ग़द्दार  कौन  है
है  कौन  जो  फ़िज़ा  में  ज़हर  घोल  रहा  है

अय  अंदलीब  सोज़े-सुख़न  को  संभालना
सय्याद  के  हाथों  में  क़फ़स  डोल  रहा  है

पेशीनगोई  हो  कि  तब्सिरा-ए-वक़्त  हो
हर  दौर  में  अदब  का  बड़ा  मोल  रहा  है

उठ  जाएंगे  जहां  से  जहां  दिल  बिगड़  गया
मुल्के-अदम  को  अपना  यही  क़ौल  रहा  है

क़त्ताल  आ  गया  कि  ज़ुबां  काट  ले  मेरी
कहता  है  ये  फ़क़ीर  बहुत  बोल  रहा  है  !

                                                                                    (2016)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ग़ुरूर : अभिमान ; मुफ़्लिसों : निर्धनों ; लहू : रक्त ; ख़ौल : उबल ; निगरां-ए-मुल्क : देश का प्रहरी ; दुश्मने-अवाम : जन-शत्रु ; बदबख़्त : दुर्भाग्यशाली ; ज़ुल्मतों : अत्याचारों ; वफ़ा : निष्ठा ; ईमां : आस्था ; गुनाह : अपराध ; ग़द्दार : द्रोही ; फ़िज़ा : वातावरण ; अंदलीब : कोयल ; सोज़े-सुख़न : गायन का माधुर्य ; सय्याद : बहेलिया ; क़फ़स : पिंजरा ; पेशीनगोई : भविष्यवाणी ; तब्सिरा-ए-वक़्त : समय/वर्त्तमान की समीक्षा ; दौर : काल-खंड ; अदब : साहित्य ; मुल्के-अदम : परमपिता / ईश्वर का देश, नियति ; क़ौल : वचन ; क़त्ताल : प्रवृत्ति से हत्यारा ; ज़ुबां : जिव्हा ; फ़क़ीर : भिक्षुक ।