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बुधवार, 18 मई 2016

हैरान है अवाम...

सर  चढ़  के  शाह  का  ग़ुरूर  बोल  रहा  है
नफ़्रत  से  मुफ़्लिसों  का  लहू  ख़ौल  रहा  है

निगरां-ए-मुल्क  दुश्मने-अवाम  हो  गया
बदबख़्त  ज़ुल्मतों  से  वफ़ा  तौल  रहा  है

हैरान  है  अवाम  कि  ईमां  कहां  गया
किसके  गुनाह  कौन  यहां  खोल  रहा  है

हर  कोई  जानता  है  कि  ग़द्दार  कौन  है
है  कौन  जो  फ़िज़ा  में  ज़हर  घोल  रहा  है

अय  अंदलीब  सोज़े-सुख़न  को  संभालना
सय्याद  के  हाथों  में  क़फ़स  डोल  रहा  है

पेशीनगोई  हो  कि  तब्सिरा-ए-वक़्त  हो
हर  दौर  में  अदब  का  बड़ा  मोल  रहा  है

उठ  जाएंगे  जहां  से  जहां  दिल  बिगड़  गया
मुल्के-अदम  को  अपना  यही  क़ौल  रहा  है

क़त्ताल  आ  गया  कि  ज़ुबां  काट  ले  मेरी
कहता  है  ये  फ़क़ीर  बहुत  बोल  रहा  है  !

                                                                                    (2016)

                                                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ग़ुरूर : अभिमान ; मुफ़्लिसों : निर्धनों ; लहू : रक्त ; ख़ौल : उबल ; निगरां-ए-मुल्क : देश का प्रहरी ; दुश्मने-अवाम : जन-शत्रु ; बदबख़्त : दुर्भाग्यशाली ; ज़ुल्मतों : अत्याचारों ; वफ़ा : निष्ठा ; ईमां : आस्था ; गुनाह : अपराध ; ग़द्दार : द्रोही ; फ़िज़ा : वातावरण ; अंदलीब : कोयल ; सोज़े-सुख़न : गायन का माधुर्य ; सय्याद : बहेलिया ; क़फ़स : पिंजरा ; पेशीनगोई : भविष्यवाणी ; तब्सिरा-ए-वक़्त : समय/वर्त्तमान की समीक्षा ; दौर : काल-खंड ; अदब : साहित्य ; मुल्के-अदम : परमपिता / ईश्वर का देश, नियति ; क़ौल : वचन ; क़त्ताल : प्रवृत्ति से हत्यारा ; ज़ुबां : जिव्हा ; फ़क़ीर : भिक्षुक ।


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