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शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

...सर झुका पाया

पूछिए  किसने  मर्तबा  पाया
हर  कहीं  दिल  बुझा-बुझा  पाया

जो  न  थे  आपकी  नज़र  में  हम
किस  तरह  दिल  में  रास्ता  पाया

या  इलाही  ! हमें  मु'आफ़  न  कर
तेरी  तख़्लीक़  में  मज़ा  पाया

लोग  कहते  थे  शाहे-मीर  उसे
हमने  देखा  तो  सर  झुका  पाया

रोएगा  वो  हज़ारहा  दिल  को
गर  ज़माना  हमें  भुला  पाया

ये   फ़रिश्ते   हमें  न   बख़्शेंगे
घर  हमारा  कहीं   खुला  पाया

गुमशुदा  है  हमें  ख़बर  कीजे
आपने  गर  कहीं  ख़ुदा  पाया  !

                                                                     (2016)

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : मर्तबा : उच्च पद, प्रतिष्ठा; या इलाही : हे ईश्वर; मु'आफ़ : क्षमा; तख़्लीक़: सृष्टि; शाहे-मीर: पहल करने वाला शासक; 
हज़ारहा : सहस्रों बार; गुमशुदा : खोया हुआ।  

बुधवार, 3 फ़रवरी 2016

जबसे राहगीर हुए ...

मीरो-ग़ालिब  हुए   न  पीर  हुए
शे'र  दर  शे'र  बस  फ़क़ीर  हुए

तीर  देखा     न  तेग़  ही    पकड़ी
वक़्त  की  शह  से  शाहमीर  हुए

दूसरी      आंख  भी     गंवा  बैठे
जबसे  काने  मियां  वज़ीर  हुए

नोच   लेते    हैं     बाल      अब्बू  के
तिफ़्ल  कुछ  इस  क़दर  शरीर  हुए

रिज़्क़  का   ज़िक्र  तक  नहीं  करते
दादे-तहसीन        से       अमीर  हुए

आपका  अक्स   बन  गए   जबसे
देखिए,  हम  भी   दिलपज़ीर  हुए

चैन  दिल  को  न  रूह  को  तस्कीं
आपके     जबसे       राहगीर  हुए  !


                                                                       (2016)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मीरो-ग़ालिब : हज़रत मीर तक़ी 'मीर' और हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू के महानतम शायर; पीर: सिद्ध मनुष्य; फ़क़ीर : त्यागी, सन्यासी, भिक्षुक; तेग़ : तलवार; शह : बढ़ावा, प्रोत्साहन; शाहमीर : संकट मोल लेने वाला शासक; वज़ीर : मंत्री; अब्बू: पिता; तिफ़्ल : छोटे बच्चे; शरीर : उपद्रवी; रिज़्क़ : आजीविका; ज़िक्र : उल्लेख; दादे-तहसीन : सुंदर शब्दों में की गई प्रशंसा; अमीर : धनी, दरबारी; अक्स : प्रतिबिंब; दिलपज़ीर : चित्ताकर्षक, मन मोहक; तस्कीं : आश्वस्ति; राहगीर : पथिक, अनुगामी ।

तख़्त ख़ैरात में...

लग  गए  शैख़  फिर  से  ख़ुराफ़ात  में
सर  मुसल्ले  पे  तो  दिल  ख़राबात  में

ज़िंदगी  का यक़ीं   कीजिए  मोहतरम
फ़ैसले  लीजिए  यूं  न  जज़्बात  में

ख़ुदकुशी  के  मवाक़े  बहुत  आएंगे
कीजिए  सब्र  पहली  मुलाक़ात  में

वस्ल  से  हिज्र  तक  रुत  बदलती  गई
कट  गई  उम्र  यूं  चंद  सदमात  में

शुक्रिया  दुश्मनों  का  अदा  कीजिए
दे  गए  आपको  तख़्त  ख़ैरात  में

कौन  सी  आग  पी  कर  चले  हो  मियां
रख  दिया  दिल  जला  कर  हसीं  रात  में

वक़्त  है  तो  फ़राइज़  निभा  लीजिए
दिल  लगे  ना  लगे  फिर  मुनाजात  में  !

                                                                             (2016)

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शैख़: धर्म-भीरु; ख़ुराफ़ात: उपद्रव; मुसल्ले: जा-ए-नमाज़,नमाज़ पढ़ने के लिए बिछाने वाला कपड़ा; ख़राबात: मदिरालय; 
यक़ीं: विश्वास;  मोहतरम : आदरणीय; जज़्बात: भावनाओं; ख़ुदकुशी: आत्म-हत्या; मवाक़े : 'मौक़े' का बहुवचन, अवसर; सब्र: धैर्य; मुलाक़ात: भेंट; वस्ल : मिलन, हिज्र : विछोह; रुत : ऋतु; सदमात : आघातों; अदा : चुकाना, व्यक्त करना; तख़्त : राजासन; ख़ैरात: दान, भिक्षा; फ़राइज़: 'फ़र्ज़' का बहुव., कर्त्तव्य; मुनाजात : पूजा-पाठ, प्रार्थना ।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2016

सब्ज़े के निशां ...

वो  अपना  अज़्म  हम  में  ढूंढते  हैं
ख़ुशी  की  राह  ग़म  में  ढूंढते  हैं

हमारी  बदनसीबी  हम  अभी  तक
वफ़ाओं  को  क़सम  में  ढूंढते  हैं

बसे  हैं  जो  रग़े-दिल  में  उन्हें  हम
न  जाने  किस  वहम  में  ढूंढते  हैं

दिले-सहरा  में  सब्ज़े  के  निशां  हम
किसी  की  चश्मे-नम  में  ढूंढते  हैं  

मिटाना  चाहते  हैं  जो  ख़ुदी  को
वो  ख़ुद्दारी  सितम  में  ढूंढते  हैं

मिला  दुनिया-ए-फ़ानी  में  हमें  जो
उसे  मुल्के -अदम  में  ढूंढते  हैं

ख़ुदा  का  घर  हमें  कोई  दिखा  दे
इनायत  के  भरम  में  ढूंढते  हैं  ! 

                                                                         (2016)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अज़्म: अस्मिता, महत्व; वफ़ाओं: निष्ठाओं; रग़े-दिल: हृदय के तंतु, वहम: संदेह; दिले-सहरा : मरुस्थल का हृदय; सब्ज़ा : हरीतिमा;  निशां : चिह्न ; चश्मे-नम : द्रवित नयन ; ख़ुदी : आत्म-बोध;  ख़ुद्दारी : स्वाभिमान; सितम : अत्याचार ; दुनिया-ए-फ़ानी : नश्वर संसार; मुल्के-अदम : ईश्वर का देश, परलोक; इनायत : कृपा ; भरम : भ्रम ।

सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

...अपना नाम पढ़ !

अर्श  पर  लिक्खा  हुआ  पैग़ाम  पढ़
और  उसमें  दर्ज   अपना  नाम  पढ़

बात ऐसी कह कि  दिल पर जा  लगे
मीर  का    दीवान    सुब्हो-शाम  पढ़

एह्तरामे - शैख़    मंहगा    शौक़  है
रिंदे-नादां  !  बोतलों   के   दाम  पढ़

क़त्ले-नाहक़  वहशियत  है  कुफ़्र  है
ऐ  मुजाहिद ! ठीक  से  इस्लाम  पढ़

क्या  हुआ  चंगेज़ो-हिटलर  का  बता
जाबिरे-तारीख़    का     अंजाम   पढ़

शर्म  से    गड़   जाएगी    जम्हूरियत 
ताजदारों    के    नए     एहकाम  पढ़

जी, कहा हमने  'अनलहक़'  दें  सज़ा
ऐ  फ़रिश्ते !  ज़ोर  से   इल्ज़ाम  पढ़  !'

                                                                        (2016)

                                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अर्श:  आकाश, क्षितिज;  पैग़ाम : संदेश;  दर्ज : अंकित; मीर : हज़रत मीर तक़ी 'मीर', 19 वीं सदी के महान शायर; दीवान : रचना-संग्रह; एह्तरामे - शैख़ : मदिरा-विरोधी धर्म-भीरु का सम्मान; क़त्ले-नाहक़ : निरर्थक हत्या; वहशियत : उन्माद, पागलपन; कुफ़्र : ईश्वर-द्रोह; चंगेज़ो-हिटलर : चंगेज़ ख़ान, मंगोलिया का एक आततायी, आक्रमणकारी शासक और हिटलर, जर्मनी का नस्लवादी शासक; जाबिरे-तारीख़ : इतिहास-प्रसिद्ध अत्याचारी; अंजाम : परिणाम; जम्हूरियत : लोकतंत्र; ताजदारों : राष्ट्र-प्रमुखों ; एहकाम : आदेश; अनलहक़ : 'अहं ब्रह्मास्मि', इस्लाम के महान अद्वैतवादी दार्शनिक हज़रत मंसूर अ.स., का उद्घोष, जिन्हें उनके विचारों के कारण सूली पर चढ़ा दिया गया था; फ़रिश्ते : मृत्यु-दूत ; इल्ज़ाम : आरोप ।


शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

रंगे-ख़ुद्दारी न हो ...

हिज्र  हम  पर  इस  तरह  भारी  न  हो
जिस्म  में  हर  वक़्त   बेज़ारी    न  हो

दीद  का  दिन  है  मुक़र्रर   आज  फिर
ये:  ख़बर  तो काश !  सरकारी   न  हो

आ  गए    वो     सरबरहना      सामने
आईने   पर   बेख़ुदी       तारी     न  हो

शैख़    पी  कर    आए  हैं    बाज़ार  से
रिंद  के  घर   बेवजह   ख़्वारी   न   हो

ख़ुशनसीबी  आजकल  मुमकिन   नहीं
शाह  से    गर     दोस्ती-यारी      न  हो

इंक़िलाबी    सोच  भी   किस  काम  का
गर    मुकम्मल    रोज़    तैयारी  न  हो

चल   पड़े   हैं   वो   ख़ुदा  की    राह  पर
देखिए      इस    बार      दुश्वारी    न  हो

नाम     से     मेरे    उसे     मत   जोड़िए
जिस   ग़ज़ल   में    रंगे-ख़ुद्दारी     न  हो  !

                                                                               (2016)

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हिज्र: वियोग; जिस्म : शरीर; बेज़ारी : विमुखता; दीद: दर्शन; मुक़र्रर: सुनिश्चित; सरबरहना: बिना सिर ढांके; बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; तारी: छा जाना; शैख़: धर्म-भीरु, मदिरा-विरोधी; रिंद: मदिरा-प्रेमी; बेवजह :  अकारण; ख़्वारी: अपमान; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; मुमकिन : संभव; गर: यदि; इंक़िलाबी: क्रांतिकारी; मुकम्मल: परिपूर्ण; दुश्वारी :कठिनाई;रंगे-ख़ुद्दारी: स्वाभिमान का रंग ।




पासबां कोई नहीं

शायरी  का  क़द्रदां   कोई  नहीं
इस  शग़ल  का  आसमां  कोई  नहीं

आलिमो-उस्ताद  हैं  सब  बज़्म  में
बस  हमारा  हमज़ुबां  कोई  नहीं

आज़मा  लें  तीर  सारे  आज  ही
बाद  इसके  इम्तिहां  कोई  नहीं

दोस्तों  की  भीड़  में  हैं  सैकड़ों
और  हम  पर  मेह्रबां  कोई  नहीं

नफ़्रतों की  आग  में  सब  जल  गया
क्या  वतन  का  पासबां   कोई  नहीं 

चाहता  है  जब्र  से  दिल   जीतना
शाह  जैसा  बदगुमां  कोई  नहीं

जाएंगे  सारे  अकेले  क़ब्र  तक
इस  सफ़र  में  कारवां  कोई  नहीं  !


                                                                            (2016)


                                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: क़द्रदां: मूल्य समझने वाला; शग़ल : अभिरुचि, समय बिताने का साधन; आसमां : आकाश, संभावना; आलिमो-उस्ताद : विद्वान एवं गुरु ; बज़्म : गोष्ठी; हमज़ुबां : सम भाषी; मेह्रबां : कृपालु; नफ़्रतों: घृणाओं; पासबां : रक्षक, ध्यान रखने वाला; जब्र: अत्याचार; बदगुमां : कु-विचारी, भ्रमित; कारवां : यात्री-समूह।