हिज्र हम पर इस तरह भारी न हो
जिस्म में हर वक़्त बेज़ारी न हो
दीद का दिन है मुक़र्रर आज फिर
ये: ख़बर तो काश ! सरकारी न हो
आ गए वो सरबरहना सामने
आईने पर बेख़ुदी तारी न हो
शैख़ पी कर आए हैं बाज़ार से
रिंद के घर बेवजह ख़्वारी न हो
ख़ुशनसीबी आजकल मुमकिन नहीं
शाह से गर दोस्ती-यारी न हो
इंक़िलाबी सोच भी किस काम का
गर मुकम्मल रोज़ तैयारी न हो
चल पड़े हैं वो ख़ुदा की राह पर
देखिए इस बार दुश्वारी न हो
नाम से मेरे उसे मत जोड़िए
जिस ग़ज़ल में रंगे-ख़ुद्दारी न हो !
(2016)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: हिज्र: वियोग; जिस्म : शरीर; बेज़ारी : विमुखता; दीद: दर्शन; मुक़र्रर: सुनिश्चित; सरबरहना: बिना सिर ढांके; बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; तारी: छा जाना; शैख़: धर्म-भीरु, मदिरा-विरोधी; रिंद: मदिरा-प्रेमी; बेवजह : अकारण; ख़्वारी: अपमान; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; मुमकिन : संभव; गर: यदि; इंक़िलाबी: क्रांतिकारी; मुकम्मल: परिपूर्ण; दुश्वारी :कठिनाई;रंगे-ख़ुद्दारी: स्वाभिमान का रंग ।
जिस्म में हर वक़्त बेज़ारी न हो
दीद का दिन है मुक़र्रर आज फिर
ये: ख़बर तो काश ! सरकारी न हो
आ गए वो सरबरहना सामने
आईने पर बेख़ुदी तारी न हो
शैख़ पी कर आए हैं बाज़ार से
रिंद के घर बेवजह ख़्वारी न हो
ख़ुशनसीबी आजकल मुमकिन नहीं
शाह से गर दोस्ती-यारी न हो
इंक़िलाबी सोच भी किस काम का
गर मुकम्मल रोज़ तैयारी न हो
चल पड़े हैं वो ख़ुदा की राह पर
देखिए इस बार दुश्वारी न हो
नाम से मेरे उसे मत जोड़िए
जिस ग़ज़ल में रंगे-ख़ुद्दारी न हो !
(2016)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: हिज्र: वियोग; जिस्म : शरीर; बेज़ारी : विमुखता; दीद: दर्शन; मुक़र्रर: सुनिश्चित; सरबरहना: बिना सिर ढांके; बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; तारी: छा जाना; शैख़: धर्म-भीरु, मदिरा-विरोधी; रिंद: मदिरा-प्रेमी; बेवजह : अकारण; ख़्वारी: अपमान; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; मुमकिन : संभव; गर: यदि; इंक़िलाबी: क्रांतिकारी; मुकम्मल: परिपूर्ण; दुश्वारी :कठिनाई;रंगे-ख़ुद्दारी: स्वाभिमान का रंग ।
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (31-01-2016) को "माँ का हृदय उदार" (चर्चा अंक-2238) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'