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शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

...सर झुका पाया

पूछिए  किसने  मर्तबा  पाया
हर  कहीं  दिल  बुझा-बुझा  पाया

जो  न  थे  आपकी  नज़र  में  हम
किस  तरह  दिल  में  रास्ता  पाया

या  इलाही  ! हमें  मु'आफ़  न  कर
तेरी  तख़्लीक़  में  मज़ा  पाया

लोग  कहते  थे  शाहे-मीर  उसे
हमने  देखा  तो  सर  झुका  पाया

रोएगा  वो  हज़ारहा  दिल  को
गर  ज़माना  हमें  भुला  पाया

ये   फ़रिश्ते   हमें  न   बख़्शेंगे
घर  हमारा  कहीं   खुला  पाया

गुमशुदा  है  हमें  ख़बर  कीजे
आपने  गर  कहीं  ख़ुदा  पाया  !

                                                                     (2016)

                                                             -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ : मर्तबा : उच्च पद, प्रतिष्ठा; या इलाही : हे ईश्वर; मु'आफ़ : क्षमा; तख़्लीक़: सृष्टि; शाहे-मीर: पहल करने वाला शासक; 
हज़ारहा : सहस्रों बार; गुमशुदा : खोया हुआ।  

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (06-02-2016) को "घिर आए हैं ख्वाब" (चर्चा अंक-2244) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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