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बुधवार, 20 जनवरी 2016

दिल मांग रहे हैं...

आदाबे-शिकायत  क्या  कहिए  वो  शाद  भी  हैं  नाशाद  भी  हैं
कहते  हैं  हमें  वो  भूल  गए  फिर  कहते  हैं   कुछ  याद  भी  हैं

दिल  मांग  रहे  हैं    जो  हमसे    सौ  बार    हमें  छू  कर  देखें
हम  मोम  कलेजा  रखते  हैं  पर  बाज़  जगह  फ़ौलाद  भी  हैं

मासूम  अदाओं  से    अब  वो     धोखा  न  हमें       दे  पाएंगे
पहचान  चुके  हैं  हम  उनको  वो  क़ातिल  हैं  सय्याद  भी  हैं

अफ़सोस नहीं  कुछ शिकवे हैं  कहिए तो सुना दें महफ़िल  में
बेज़ार   सही   बर्बाद   सही   मुश्ताक़  भी  हैं    आज़ाद  भी  हैं

गुमनाम सही  इस  बस्ती  में  कहते हैं  ग़ज़ल  सच्चे  दिल  से
शागिर्द  अगर  हैं  ग़ालिब  के   तो  चार  जगह   उस्ताद  भी  हैं

या  ख़ुश हो कर  ख़ुम  दे हमको  या  और कहीं का रुख़  कर  लें
यूं  हम  दीवाने  तश्ना  लब    ज़िद  कर  लें    तो  फ़रहाद  भी  हैं

वो  अर्शे-नुहुम  पर    रहते  हैं    हम  हैं  कि   असीरे-दुनिया  हैं
नज़दीक  बहुत  हैं  हम  दोनों  कहने  को  कई  अब्आद  भी  है !

(2016)

-सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आदाबे-शिकायत : शिकायत करने के शिष्टाचार;  शाद : प्रसन्न;  नाशाद : अप्रसन्न; बाज़ : कुछ, विशिष्ट; फ़ौलाद : इस्पात; मासूम : भोली;  अदाओं : भंगिमाओं;  क़ातिल : हत्यारा; सय्याद : बहेलिया; अफ़सोस : खेद ; शिकवे : पूर्वाग्रह; महफ़िल : गोष्ठी; बेज़ार : परेशान; मुश्ताक़ : आतुर; शागिर्द : शिष्य; ग़ालिब : हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, महान शायर ; उस्ताद : गुरु; ख़ुम : मदिरा पात्र; रुख़ : दिशा; तश्नालब : प्यासे अधर वाले; फ़रहाद : शीरीं-फ़रहाद की प्रेम-कथा का नायक, जो पहाड़ खोद कर नहर निकाल लाया था ; अर्शे-नुहुम : नौवां आकाश, मिथक के अनुसार ख़ुदा के रहने का स्थान ; असीरे-दुनिया : संसार के बंदी ; अब्आद : दूरियां, अंतराल ।

शनिवार, 16 जनवरी 2016

बात कुछ तो है...

क्या  कमी  है  शाह  की  तदबीर  में
है  मुक़य्यद  हर  ख़ुशी   ज़ंजीर  में

ढूंढिए, हम  हैं  कहां  वो  हैं  कहां
मुल्क  की  इस  बदनुमा  ताबीर  में

याद  रखिए  जंग  में  जाते  हुए
दिल  नहीं  है  सीनए-शमशीर  में

कौन  बे-पर्दा  हुआ  कब-किस  जगह
क्या  यही  सब  रह  गया  तहरीर  में

मत  उसे  दीवानगी  पर  छेड़िए
गुमशुदा  है  आपकी  तस्वीर  में

क्यूं  फ़रिश्ते  दिन ब दिन  आया  करें
बात  कुछ  तो  है  मेरी  तासीर  में

ज़ीस्त  से  उम्मीद  बाक़ी  है  अभी
हो  असर  शायद  दुआए-पीर  में  !

                                                                       (2016)

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तदबीर: प्रयास; मुक़य्यद : बंदी; ज़ंजीर : श्रृंखला; बदनुमा: अ-सुंदर, फूहड़, आदि; ताबीर: निर्माण; जंग : युद्ध; सीनए शमशीर : म्यान; बे-पर्दा : अनावृत; तहरीर : लेखन-शैली, हस्तलिपि; तस्वीर: चित्र; तासीर: प्रभाव; ज़ीस्त: जीवन; दुआए-पीर : गुरु की शुभेच्छा, आशीष।  



शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

शऊरे-बेक़रारी


शैख़  जी !  कुछ   शर्मसारी  सीखिए
दोस्तों   की      पर्द: दारी      सीखिए

मैकदे   में    मोमिनों   पर   फ़र्ज़  है
आप       आदाबे-ख़ुमारी     सीखिए

इक़्तिदारे  मुल्क  तो  हथिया  लिया
अब  ज़रा  सी    ख़ाकसारी   सीखिए

बे-हयाई      बदजुबानी       बदज़नी
ख़ाक     ऐसे     ताजदारी     सीखिए

आशिक़ी    में    कामरानी     चाहिए
तो          शऊरे-बेक़रारी       सीखिए

दर्द   देने   का    सलीक़ा      सीख  लें
क़ब्ल  उसके    ग़म-गुसारी   सीखिए

वस्ल  की  शब   सब्र  करना  सीखिए
सब्र   हो   तो     राज़दारी       सीखिए  !

                                                                     (2016)

                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शर्मसारी: लज्जा अनुभव करना; पर्द: दारी: अकारण बात/रहस्य प्रकट न करना; मैकदे : मधुशाला; मोमिनों : आस्तिकों, आस्थावानों; फ़र्ज़ : अनिवार्य कर्त्तव्य; आदाबे-ख़ुमारी : मदोन्मत्त होने के शिष्टाचार; इक़्तिदारे-मुल्क : देश की सत्ता; ख़ाकसारी: विनम्रता;
बे-हयाई : निर्लज्जता;  बदजुबानी : अभद्र भाषा बोलना; बदज़नी : कुकृत्य; ख़ाक : निरर्थक; ताजदारी : शासन करने की कला;  
आशिक़ी: उत्कट प्रेम; कामरानी : सफलता, विजयी होना; शऊरे-बेक़रारी : व्यग्र/व्याकुल अवस्था के व्यवहार; सलीक़ा : कला/ ढंग; 
क़ब्ल : पूर्व; ग़म-गुसारी : संवेदना अनुभव/व्यक्त करना; वस्ल : मिलन; शब: निशा; सब्र: धैर्य; राज़दारी : गोपनीयता की कला।  

बुधवार, 13 जनवरी 2016

एक तोहफ़ा है ....

ईंट  गारा  कम  सही  घर  के  लिए
हम  कभी  तरसे  नहीं  ज़र  के  लिए

मुफ़लिसी  की  शान  हमसे  पूछिए
एक  टोपी  तक  नहीं  सर  के  लिए

ख़ुम्र  से  दिल  भर  गया  है  रिंद  का
शैख़  हैं  नाशाद   साग़र  के  लिए

चंद  क़तरे  ही  सही  अब  चश्म  में
एक  तोहफ़ा  है  समंदर  के  लिए

है  हमारी  भी  दुआओं  में  असर
साथ  रखिए  रोज़े-महशर  के  लिए

हिंद  से  हम  वादिए-सीन:  तलक
दौड़  आए  एक  मंज़र  के  लिए

कर  रहे  हैं  नक़्श  हम  क़ुत्बा  यहां
ख़ुल्द  में  दीवार-ओ-दर  के  लिए !

                                                                             (2016)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ज़र: सोना, धन; मुफ़लिसी: निर्धनता; ख़ुम्र: मदिरा; रिंद: मदिरा-प्रेमी; शैख़: धर्म-भीरु; नाशाद: दुःखी, अप्रसन्न; साग़र : मदिरा-पात्र; चंद: कुछ; क़तरे : बूंदें; चश्म : नयन; तोहफ़ा : उपहार; रोज़े-महशर : प्रलय का दिन, न्याय का दिन; वादिए-सीन: : अरब में सीना की घाटी, जहां ईश्वर के प्रकट होने का मिथक है; मंज़र : दृश्य, ईश्वर के प्रकट होने का दृश्य; नक़्श: अंकित; क़ुत्बा : क़ब्र/समाधि पर मृतक के परिचय के लिए लगाया जाने वाला पत्थर।

मुश्किलों की मेहर ...

राह  उम्मीद  की  पुरख़तर  हो  गई
क़ौम  की  नौजवानी  सिफ़र  हो  गई

रिज़्क़  का  कुछ  भरोसा  न  मंहगाई  का
मुल्क   पर  मुश्किलों  की  मेहर  हो  गई

लब  हिले  भी  न  थे  के:  नज़र  झुक  गई
ये  मुलाक़ात  भी  मुख़्तसर  हो  गई

याद  आती  रही  ज़ख़्म  खुलते  गए
थी  दवा  जो  कभी  अब  ज़हर  हो  गई

मिट  गए  इस  तरह आशियां  के  निशां
रूहे-दीवार  भी  रहगुज़र  हो  गई 

कुछ  हमीं  बेख़ुदी  के  असर  में  रहे
कुछ  दुआ  आपकी  बे-असर  हो  गई

कौन  कहता  है  हमसे  पराए  हैं  वो
मर्ग़  से  क़ब्ल  उनको  ख़बर  हो  गई

ये  समंदर  कभी  सूखता  ही  नहीं
फिर  किसी  ख़्वाब  की  चश्म  तर  हो  गई

ये  भी  क्या  ज़िंदगी  से  बिछड़ना  हुआ
हर  ख़ुशी  दूसरों  की  नज़र  हो  गई  !

                                                                                    (2016)

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: पुरख़तर: संकट पूर्ण; सिफ़र : शून्य;  रिज़्क़: आजीविका; मेहर: कृपा; मुख़्तसर : संक्षिप्त; ज़ख़्म:घाव
बेख़ुदी : आत्म-विस्मृति; असर: प्रभाव; बे-असर: निष्प्रभावी; मर्ग़ : मृत्यु; क़ब्ल : पूर्व; चश्म: आंख; तर : गीली

सोमवार, 11 जनवरी 2016

दुआ में शराब ...

आप    उल्टी  किताब   पढ़ते  हैं
किस  सदी  में  जनाब  पढ़ते  हैं

याद  करते  नहीं    महीनों  तक
रोज़  ख़त  का  जवाब  पढ़ते  हैं

मयकशों को वफ़ा  मुबारक  हो
हर   दुआ  में   शराब   पढ़ते  हैं

हैफ़ ! ये  मज़्हबी  उलेमा   सब
क़त्ल को  भी  सवाब  पढ़ते  हैं

छीन कर रिज़्क़ कमनसीबों का
शाह  ज़र  का  हिसाब  पढ़ते  हैं

सुर्ख़  परचम  तले  नए  इंसां
नग़म:-ए-इंक़लाब  पढ़ते  हैं

छोड़िए  शायरी  मियां  अब तो
सिर्फ़  ख़ाना-ख़राब  पढ़ते  हैं !

                                                                 (2016)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मयकशों: मद्यपों ; वफ़ा: निष्ठां; हैफ़ : खेद है कि ; मज़्हबी उलेमा : धार्मिक विद्वान, धर्म-गुरु; सवाब: पुण्य; रिज़्क़ : दो समय का भोजन; कमनसीबों : भाग्यहीनों; ज़र : स्वर्ण, संपत्ति; सुर्ख़ : रक्तिम; परचम : ध्वज; ख़ाना -ख़राब : घर बिगाड़ू। 




रविवार, 10 जनवरी 2016

शौक़ जल्व:गरी का

आशिक़ी  को  उसूल  मत  कीजे
ये:  ख़तरनाक  भूल  मत  कीजे

शौक़  जल्व:गरी  का  भी  रखिए
हर  कहीं  तो  नज़ूल  मत  कीजे

दोस्तों  से    दुआओं  के    बदले
कोई  हदिया  वसूल  मत  कीजे

जब  तलक  सामने  न हो  मक़सद
तोहफ़:-ए-दिल  क़ुबूल  मत  कीजे

दिल  दुखाना  शग़ल  है  दुनिया  का
मुफ़्त  में  दिल  मलूल  मत  कीजे

हर  गली  में  ख़ुदाओं  के  घर  हैं
आप  सज्दा   फ़ुज़ूल  मत  कीजे

हैं      हमारे     ख़ुतूत     पाक़ीज़ा
नक़्श  कीजे   नुक़ूल  मत  कीजे  !

                                                              (2016)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आशिक़ी: प्रेम में पड़ना; उसूल: सिद्धांत; जल्व:गरी :बनना-संवरना, दिव्य रूप में प्रकट होना; नज़ूल : प्रदर्शित; हदिया: दक्षिणा, शुल्क; मक़सद: उद्देश्य; तोहफ़:-ए-दिल : हृदय रूपी उपहार, प्रेमोपहार; क़ुबूल: स्वीकार; शग़ल: समय बिताने का माध्यम; मलूल: खिन्न, मलिन; सज्दा: भूमिवत प्रणाम; फ़ुज़ूल: व्यर्थ, निरर्थक; ख़ुतूत: हस्तलिखित पत्र, हस्तलिपि, अक्षर; पाक़ीज़ा: पवित्र , नि:कलंक; नक़्श: हृदय में अंकित, यंत्र बना कर भुजा या कंठ में धारण करना; नुक़ूल : प्रतिलिपियां ।