राह उम्मीद की पुरख़तर हो गई
क़ौम की नौजवानी सिफ़र हो गई
रिज़्क़ का कुछ भरोसा न मंहगाई का
मुल्क पर मुश्किलों की मेहर हो गई
लब हिले भी न थे के: नज़र झुक गई
ये मुलाक़ात भी मुख़्तसर हो गई
याद आती रही ज़ख़्म खुलते गए
थी दवा जो कभी अब ज़हर हो गई
मिट गए इस तरह आशियां के निशां
रूहे-दीवार भी रहगुज़र हो गई
कुछ हमीं बेख़ुदी के असर में रहे
कुछ दुआ आपकी बे-असर हो गई
कौन कहता है हमसे पराए हैं वो
मर्ग़ से क़ब्ल उनको ख़बर हो गई
ये समंदर कभी सूखता ही नहीं
फिर किसी ख़्वाब की चश्म तर हो गई
ये भी क्या ज़िंदगी से बिछड़ना हुआ
हर ख़ुशी दूसरों की नज़र हो गई !
(2016)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: पुरख़तर: संकट पूर्ण; सिफ़र : शून्य; रिज़्क़: आजीविका; मेहर: कृपा; मुख़्तसर : संक्षिप्त; ज़ख़्म:घाव
बेख़ुदी : आत्म-विस्मृति; असर: प्रभाव; बे-असर: निष्प्रभावी; मर्ग़ : मृत्यु; क़ब्ल : पूर्व; चश्म: आंख; तर : गीली ।
क़ौम की नौजवानी सिफ़र हो गई
रिज़्क़ का कुछ भरोसा न मंहगाई का
मुल्क पर मुश्किलों की मेहर हो गई
लब हिले भी न थे के: नज़र झुक गई
ये मुलाक़ात भी मुख़्तसर हो गई
याद आती रही ज़ख़्म खुलते गए
थी दवा जो कभी अब ज़हर हो गई
मिट गए इस तरह आशियां के निशां
रूहे-दीवार भी रहगुज़र हो गई
कुछ हमीं बेख़ुदी के असर में रहे
कुछ दुआ आपकी बे-असर हो गई
कौन कहता है हमसे पराए हैं वो
मर्ग़ से क़ब्ल उनको ख़बर हो गई
ये समंदर कभी सूखता ही नहीं
फिर किसी ख़्वाब की चश्म तर हो गई
ये भी क्या ज़िंदगी से बिछड़ना हुआ
हर ख़ुशी दूसरों की नज़र हो गई !
(2016)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: पुरख़तर: संकट पूर्ण; सिफ़र : शून्य; रिज़्क़: आजीविका; मेहर: कृपा; मुख़्तसर : संक्षिप्त; ज़ख़्म:घाव
बेख़ुदी : आत्म-विस्मृति; असर: प्रभाव; बे-असर: निष्प्रभावी; मर्ग़ : मृत्यु; क़ब्ल : पूर्व; चश्म: आंख; तर : गीली ।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 14 - 01- 2016 को चर्चा मंच पर <a href="http://charchamanch.blogspot.com/2016/01/2221.html> चर्चा - 2221 </a> में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार! मकर संक्रान्ति पर्व की शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...