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सोमवार, 11 जनवरी 2016

दुआ में शराब ...

आप    उल्टी  किताब   पढ़ते  हैं
किस  सदी  में  जनाब  पढ़ते  हैं

याद  करते  नहीं    महीनों  तक
रोज़  ख़त  का  जवाब  पढ़ते  हैं

मयकशों को वफ़ा  मुबारक  हो
हर   दुआ  में   शराब   पढ़ते  हैं

हैफ़ ! ये  मज़्हबी  उलेमा   सब
क़त्ल को  भी  सवाब  पढ़ते  हैं

छीन कर रिज़्क़ कमनसीबों का
शाह  ज़र  का  हिसाब  पढ़ते  हैं

सुर्ख़  परचम  तले  नए  इंसां
नग़म:-ए-इंक़लाब  पढ़ते  हैं

छोड़िए  शायरी  मियां  अब तो
सिर्फ़  ख़ाना-ख़राब  पढ़ते  हैं !

                                                                 (2016)

                                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मयकशों: मद्यपों ; वफ़ा: निष्ठां; हैफ़ : खेद है कि ; मज़्हबी उलेमा : धार्मिक विद्वान, धर्म-गुरु; सवाब: पुण्य; रिज़्क़ : दो समय का भोजन; कमनसीबों : भाग्यहीनों; ज़र : स्वर्ण, संपत्ति; सुर्ख़ : रक्तिम; परचम : ध्वज; ख़ाना -ख़राब : घर बिगाड़ू। 




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