शैख़ जी ! कुछ शर्मसारी सीखिए
दोस्तों की पर्द: दारी सीखिए
मैकदे में मोमिनों पर फ़र्ज़ है
आप आदाबे-ख़ुमारी सीखिए
इक़्तिदारे मुल्क तो हथिया लिया
अब ज़रा सी ख़ाकसारी सीखिए
बे-हयाई बदजुबानी बदज़नी
ख़ाक ऐसे ताजदारी सीखिए
आशिक़ी में कामरानी चाहिए
तो शऊरे-बेक़रारी सीखिए
दर्द देने का सलीक़ा सीख लें
क़ब्ल उसके ग़म-गुसारी सीखिए
वस्ल की शब सब्र करना सीखिए
सब्र हो तो राज़दारी सीखिए !
(2016)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: शर्मसारी: लज्जा अनुभव करना; पर्द: दारी: अकारण बात/रहस्य प्रकट न करना; मैकदे : मधुशाला; मोमिनों : आस्तिकों, आस्थावानों; फ़र्ज़ : अनिवार्य कर्त्तव्य; आदाबे-ख़ुमारी : मदोन्मत्त होने के शिष्टाचार; इक़्तिदारे-मुल्क : देश की सत्ता; ख़ाकसारी: विनम्रता;
बे-हयाई : निर्लज्जता; बदजुबानी : अभद्र भाषा बोलना; बदज़नी : कुकृत्य; ख़ाक : निरर्थक; ताजदारी : शासन करने की कला;
आशिक़ी: उत्कट प्रेम; कामरानी : सफलता, विजयी होना; शऊरे-बेक़रारी : व्यग्र/व्याकुल अवस्था के व्यवहार; सलीक़ा : कला/ ढंग;
क़ब्ल : पूर्व; ग़म-गुसारी : संवेदना अनुभव/व्यक्त करना; वस्ल : मिलन; शब: निशा; सब्र: धैर्य; राज़दारी : गोपनीयता की कला।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-01-2016) को "सुब्हान तेरी कुदरत" (चर्चा अंक-2224) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'