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सोमवार, 28 जुलाई 2014

कड़वी दवा न दें, साहब !

नफ़स-नफ़स  में  हमें  बद्दुआ  न  दें  साहब
क़दम-क़दम  पे  नया  मुद्द'आ  न  दें  साहब

हमारे   रिज़्क़  पे    सरमाएदार  क़ाबिज़  हैं
कि  मर्ज़े-भूख  में  कड़वी  दवा  न  दें  साहब

हमारे  होश  सलामत,  यही  ग़नीमत  है
इसे  गुनाह  बता  कर  सज़ा  न  दें  साहब

हमें  है  इल्म,  शबे-हिज्र  के  मानी  क्या  हैं
दिखा  के  ज़ख़्म  जिगर  के  रुला  न  दें  साहब

हमीं  हैं,  आपको  जिसने  ख़ुदा  बनाया  है
करम  के  वक़्त  ये  एहसां  भुला  न  दें  साहब

हमारा  काम  महज़  आईना  दिखाना  है
हमें  रक़ीब  समझ  कर  मिटा  न  दें  साहब

उन्हें  तो  ज़िक्रे-रौशनी  तलक  से  नफ़रत  है
कहीं  ये माहो-शम्स  भी  बुझा  न  दें   साहब  !

                                                                 (2014)

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नफ़स: सांस; बद्दुआ: श्राप; मुद्द'आ: विवाद का विषय; रिज़्क़: दो समय का भोजन; सरमाएदार: पूंजीपति;   मर्ज़े-भूख: भूख का रोग; ग़नीमत: पर्याप्त; इल्म: ज्ञान; शबे-हिज्र: वियोग की निशा; मानी: अर्थ;ज़ख़्म: घाव; जिगर: हृदय; करम: कृपा; एहसां: अनुग्रह; 
महज़: मात्र, विशुद्धत: ; रक़ीब: शत्रु, प्रतिद्वंद्वी; ज़िक्रे-रौशनी: प्रकाश का उल्लेख; नफ़रत: घृणा; माहो-शम्स: चंद्र-सूर्य । 

रविवार, 27 जुलाई 2014

ख़राबात है, मियां...!

तोड़  कर  दिल  मियां  चले  आए
छोड़  कर       दास्तां   चले   आए

क़ीमतें    यूं    बढ़ीं    ज़मीनों   की
हम      दरे-आसमां      चले  आए

था   कहीं    एक  घर    हमारा  भी
क्या   बताएं,     कहां    चले  आए

नींद  जब  ख़्वाब  के  सफ़र  में  थी
वो:    कहीं      दरम्यां     चले  आए

ईद    के     दिन      गले    लगाएंगे
सोच    कर      मेह्रबां    चले   आए

ये:    ख़राबात  है,    मियां  मोमिन
क्या  समझ  कर  यहां  चले  आए  ?

जल्दबाज़ी     नहीं    ख़ुदा  को    यूं
पर      मिरे     रहनुमां   चले  आए  !

                                                                            (2014)

                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:   दास्तां: आख्यान;  दरे-आसमां: ईश्वर के द्वार; दरम्यां: मध्य में; मेह्रबां: कृपालु;    ख़राबात: मदिरालय; मोमिन: धार्मिक, आस्तिक;   रहनुमां: पथ-प्रदर्शक, मृत्यु-दूत।

शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

क़ायम दुआ-सलाम रहे...!

गुनाहगारे-मुहब्बत  को  क्या  सज़ा  दीजे
गुनाह  ख़ास  नहीं,   ज़ेह्न   से  मिटा  दीजे

तमाम  लोग  बैठते  हैं  आपके  घर  में
हमीं  क़ुबूल  नहीं,  ठीक  है,  उठा  दीजे

मरीज़  ला-इलाज  है  सनमपरस्ती  का
दवा  नहीं,  ग़रीब  को  फ़क़त  दुआ  दीजे

दिले-रक़ीब  बदल  जाए  तो  बुरा  क्या  है
गले  लगा  के  ईद  पर  गिले  भुला  दीजे

ख़राब  दौर  में  क़ायम  दुआ-सलाम  रहे
ज़रा-सी  रस्म  है,  हो  जाए  तो  निभा  दीजे

हमें  उम्मीद  नहीं  शाह  से  वफ़ाओं  की
मगर  ये:  ज़ुल्म  है  कि  रात-दिन  दग़ा  दीजे

ख़ुदा  निगाह  करे  हाले-तिफ़्ले -ग़ाज़ा  पर
नमाज़े-शुक्र  में  अल्फ़ाज़  कुछ  बढ़ा  दीजे  !

                                                                             (2014)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गुनाहगार: अपराधी; ज़ेह्न: -मस्तिष्क; क़ुबूल: स्वीकार; सनमपरस्ती: प्रियतम-पूजा;  फ़क़त: मात्र; दिले-रक़ीब: प्रतिद्वंद्वी का हृदय;  दौर: समय-चक्र; वफ़ा: निर्वाह; दग़ा: छल; हाले-तिफ़्ले -ग़ाज़ा: फिलिस्तीनियों के अंतिम आश्रय-स्थल ग़ाज़ा-पट्टी में रहने वाले बच्चों के हाल; नमाज़े-शुक्र: ईद उल फ़ित्र में अल्लाह का शुक्रिया अदा करने के लिए पढ़ी जाने वाली नमाज़; अल्फ़ाज़: शब्द (बहुव.) । 

शनिवार, 19 जुलाई 2014

हौसले परचम हुए !

नम  हुए,    गो   कम  हुए
खेत       ताज़ादम      हुए

किस  दुआ  का   काम  है
चश्मे-नम   ज़मज़म  हुए

कह  गया  अश्'आर  दिल
ज़ख्म  पर     मरहम  हुए

छू        गईं        रानाइयां
हम    हसीं    मौसम   हुए

दीद     से     उम्मीद    के
सिलसिले     क़ायम  हुए

आख़िरश      इंसान     हैं
तुम    हुए   या   हम  हुए

"या  अली!"   जिसने  कहा
हौसले      परचम       हुए !

                                                       (2014)

                                                -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: गो: यद्यपि; चश्मे-नम: भीगी आंखें; ज़मज़म: मक्का शरीफ़ के पास एक कुआं, जिसका जल इस्लाम के अनुयायी पवित्रतम मानते हैं; अश्'आर: शे'र का बहुवचन; रानाइयां: श्रृंगार, सौंदर्य; दीद: दर्शन; सिलसिले: संपर्क; क़ायम: स्थापित; आख़िरश: अंततः; अली: हज़रत अली (र. अ.), हज़रत मुहम्मद साहब (स. अ.) के दामाद, इस्लाम के चौथे ख़लीफ़ा और महान योद्धा; परचम: ध्वज।  

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

चोट खाना ज़रूरी नहीं...

हमें  भूल  जाना  ज़रूरी  नहीं  है
बहाने  बनाना   ज़रूरी  नहीं  है

यक़ीं  है  हमें  आशिक़ी  पर  हमारी
उन्हें  आज़माना  ज़रूरी  नहीं  है

न  चाहें  तो  न  आएं  दिल  में  हमारे
मगर  दूर  जाना  ज़रूरी  नहीं  है

तजुर्बा  नया  भी  ज़रूरी  है  यूं  तो
नई  चोट  खाना  ज़रूरी  नहीं  है

दग़ाबाज़  से  दिल  लगाना  बुरा  है
नज़र  से  गिराना  ज़रूरी  नहीं  है

वही  कीजिए  जो  लगे  ठीक  दिल  को
ग़लत  हो  ज़माना  ज़रूरी  नहीं  है

किसी  से  कभी  मत  कहो  दर्द  अपना
ख़ुदा  से  छुपाना  ज़रूरी  नहीं  है  !


                                                                         (2014)

                                                                  -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: यक़ीं: विश्वास; आशिक़ी: प्रेम; तजुर्बा:प्रयोग, अनुभव; दग़ाबाज़: छल करने वाला।

गुरुवार, 17 जुलाई 2014

संगदिल का नाम...

ज़िंदगी  में  आज  भी  कुछ  ख़ास  है
सब्र  लेकिन  क्या  हमारे  पास  है  ?

ख़ुश  नहीं  हैं  आप  हमसे  रूठ  कर
जी,  हमें  इस  दर्द  का  एहसास  है

तोड़  कर  दिल  पढ़  रहा  है  मरसिया
देखिए,  वो  किस  क़दर  हस्सास  है  !

तख़्त  पर  बैठा  हुआ  जो  शख़्स  है
सीरतो - तासीर  से  ख़ुन्नास  है  !

ख़ुश्क  हैं  लब   ग़ुंच:-ओ-गुल  के  मगर
क्या  बहारों  को  वफ़ा  का  पास  है  ?

तू  नहीं  तो  याद  ही  तेरी  सही 
शुक्र  है,  कुछ  तो  हमारे  पास  है  !

क्या  कहें  उस  हुस्ने-जानां  की  अदा
संगदिल  का  नाम  तक  अलमास  है !

                                                           (2014)

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सब्र: धैर्य; एहसास: भान, प्रतीति; मरसिया: शोक-गीत; हस्सास: संवेदनशील; सीरतो - तासीर: प्रकृति और गुण; 
ख़ुन्नास: दुष्टात्मा; ख़ुश्क: शुष्क; लब: ओष्ठ; ग़ुंच:-ओ-गुल: कली और फूल; वफ़ा: निर्वाह; पास: ध्यान; हुस्ने-जानां: प्रियतम का सौंदर्य; संगदिल: पाषाण-हृदय; अलमास: हीरा । 

सोमवार, 14 जुलाई 2014

क्या चाहते हैं आप...?

फूलों  से  वास्ता  न  चमन  से,  बहार  से
फिर  ज़िक्रे-हुस्न  कीजिए  किस एतबार  से ?

यूं  तो हमें  यक़ीं  है  तिरी  ज़ात  पर  मगर
तस्दीक़  ज़रूरी  है  किसी  राज़दार  से

सज्दा  करें,  सलाम  करें  या  दुआ  करें
क्या  चाहते  हैं  आप  दिले-बेक़रार  से ?

वो  आज  शहंशाह  सही,  हम  भी  क्या  करें
होता  नहीं  है  इश्क़  हमें   ताजदार  से !

सज्दे  में  हम  हों  और  वो  पर्दे  में  जा  रहें
ऐसा  सुलूक  ठीक  नहीं  दोस्त  यार  से  ! 

अल्लाह  से  कहें  कि  कहें  आईने  से  हम
उम्मीद  नहीं  और  किसी  ग़म-गुसार  से 

आएंगे,  तिरी  ख़ुल्द  भी  देखेंगे  किसी  दिन
फ़ुर्सत  कभी  मिले  जो  ग़मे-रोज़गार  से  !

                                                                           (2014)

                                                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ज़िक्रे-हुस्न: सौंदर्य-चर्चा; एतबार: विश्वास; ज़ात: अस्तित्व, व्यक्तित्व; तस्दीक़: पुष्टि; राज़दार: रहस्य जानने वाला, मर्मज्ञ; 
सज्दा: प्रणिपात; दिले-बेक़रार: विकल-मन व्यक्ति; ताजदार: मुकुट-धारी; ख़ुल्द: जन्नत, स्वर्ग; सुलूक: व्यवहार; दोस्त  यार: निकट मित्र ग़म-गुसार: दुःख समझने वाला; ग़मे-रोज़गार: आजीविका/ जीवन जीने  का दुःख।