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शुक्रवार, 20 जून 2014

बहाने बदल गए ...!

किसका  गुनाह  है  कि  ज़माने  बदल  गए
तहज़ीबे-रस्मो-राह   के   मा'ने  बदल  गए

तर्ज़े-बयां  में  अब  वो:  कहां  बात  रह  गई
वो:  मुर्कियां,  वो:  राग  पुराने  बदल  गए

ये:  कनख़ियों  के  वार,  ये:  हंसना,  ये:  रूठना 
कब  से  तिरी  नज़र  के  निशाने  बदल  गए

ग़ालिब  तिरे  शह्र   में  रहें  किस  ख़याल  से
तेरे  शहर  के  चाहने  वाले  बदल  गए

मजलिस  वही,  मिज़ाज  वही,  मर्ज़  भी  वही
अच्छे  दिनों  के  ख़्वाब  सुहाने  बदल  गए

सच  है  कि   इंतेख़ाब  का  हक़  है  जनाब  को
मौक़ा  मिला  नहीं  कि  दिवाने  बदल  गए

अब  भी  वही  है  भूख  के  मारों  की  दास्तां
बदला  निज़ाम  या  कि  बहाने  बदल  गए ?!

                                                                      (2014)

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गुनाह: अपराध; तहज़ीबे-रस्मो-राह: परस्पर शिष्टाचार की सभ्यता; मा'ने: मा'यने, अर्थ; तर्ज़े-बयां: अभिव्यक्ति की शैली, गीत आदि की धुन;   मुर्कियां: स्वरों का घुमाव-फिराव; मजलिस: सभा (लोकसभा, आदि); मिज़ाज: स्वभाव, पद्धति; मर्ज़: रोग, समस्या; इंतेख़ाब: चुनाव; दास्तां: आख्यान; निज़ाम: शासन।  


बुधवार, 18 जून 2014

अच्छे दिनों से क़ब्ल...

मजमूं  तड़प  रहे  हैं  रिहाई  के  वास्ते
लब  खोलिए  जनाब  ख़ुदाई  के  वास्ते

गर्दो-ग़ुबार  रूह  तलक  आ  न  पाएंगे
कहते  हैं  शे'र  दिल  की  सफ़ाई  के  वास्ते

तहज़ीब  तिरे  शह्र  से  कुछ  दूर  रुक  गई
मिलते  हैं  लोग  रस्म-अदाई  के  वास्ते

अच्छे  दिनों  से  क़ब्ल  हमें  अक़्ल  आ  गई
कासा  मंगा  लिया  है  गदाई  के  वास्ते

फ़रमाने-शाह  है  कि  सर-ब-सज्द: सब  रहें
वो:  क़त्ल  कर  रहे  हैं  भलाई  के  वास्ते

जश्ने-जम्हूर  रंग  पे  आया  है  इस  तरह
दुम्बे  सजे  हुए  हैं  क़साई  के  वास्ते

सुनते  हैं  तिरी  बज़्म  में  हाज़िर  हैं  शाहे-अर्श 
हम  भी  खड़े  हुए  हैं  रसाई  के  वास्ते

फ़ातेह  क्या  हुए  कि  निगाहें  बदल  गईं
लाए  हैं  नमक  ज़ख़्म-कुशाई  के  वास्ते

रिश्वत से  मुअज़्ज़िन  की  जिन्हें  नौकरी  मिली
देते  हैं  अज़ां  नेक  कमाई  के  वास्ते ! 

                                                                 (2014)

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मजमूं: विषय, कथ्य; रिहाई: मुक्ति; लब: ओष्ठ; ख़ुदाई: संसार; गर्दो-ग़ुबार: धूल-मिट्टी; तहज़ीब: सभ्यता;  रस्म-अदाई: प्रथा का निर्वाह, औपचारिकता;  क़ब्ल: पहले; कासा: भिक्षा-पात्र;  गदाई: भिक्षा-वृत्ति; फ़रमाने-शाह: शासकीय आदेश; सर-ब-सज्द::नतमस्तक; जश्ने-जम्हूर: लोकतंत्र का उत्सव; दुम्बे:  भेड़; क़साई: वधिक;  बज़्म: सभा, गोष्ठी;  रसाई: पहुंच; फ़ातेह: विजयी; ज़ख़्म-कुशाई: घाव उभारने;  मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला।  

सोमवार, 26 मई 2014

बादशाह है कोई ...!

क्या  ग़रीबी  गुनाह  है  कोई
या  कि  बदनाम  राह  है  कोई

रो  रहा  है  मसल-मसल  कर  दिल
ख़ुदकुशी  का  गवाह  है  कोई

दुश्मनी  में  ख़ुदा  हुए  साहिब
दोस्ती  में  तबाह  है  कोई

दीजिए  क्या  सज़ा  दिवाने  को
आशिक़ी  भी गुनाह  है  कोई  ?

दावते-हुक्मरां  के  मजमे  में
एक  भी  बेगुनाह  है  कोई  ?

कर  रहा  है  सलाम  शायर  को
मुल्क  का  बादशाह  है  कोई  !

मौत  पुरसाने-हाल  है  अपनी
शुक्र  है,  ख़ैरख़्वाह  है  कोई

रात  भर  मुंतज़िर  रहे  ग़ालिब
और  वादा-निबाह  है  कोई  !

                                                     ( 2014 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ: दावते-हुक्मरां: शासक का भोज; मजमे  में : एकत्र जन, भीड़; पुरसाने-हाल: हाल पूछने वाला/ली; ख़ैरख़्वाह: शुभचिंतक;   मुंतज़िर: प्रतीक्षारत; ग़ालिब: हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू के महान शायर; वादा-निबाह: वचन पालन करने वाला, यह शे'र हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब की प्रख्यात ग़ज़ल 'वो जो  हममें-तुममें  क़रार था...' के प्रति आदरांजलि स्वरूप ।

शनिवार, 17 मई 2014

गिरे काश ! दीवार...

करें  जो  न  पूरी  उमीदें  जहां  की
लगेगी  उन्हें  बद्दुआ  आसमां  की

ज़ेह्न  में  तिरे  मुद्द'आ  कुछ  नहीं  है
कहे  जा  रहा  है  यहां  की,  वहां  की

कभी  हाथ  में  गुल,  कभी  तेज़ नश्तर
अजब  हैं  अदाएं  मिरे   मेह्रबां  की

हुई  हुक्मरां  क़ातिलों  की  जमा'अत
हिफ़ाज़त  कहां  अब  रही  जिस्मो-जां  की

जिन्हें  मुंतख़ब  कर  लिया  आंधियों  ने
उन्हें  फ़िक्र  क्यूं  हो  मिरे  आशियां  की

बहुत  हो  चुकीं  दूरियां  दो  दिलों  में
गिरे  काश ! दीवार  ये:  दरमियां  की

सुनी  है  फ़लक़  पर  अज़ां  जो  ख़ुदा  ने
शिकायत  है  वो:  एक  ज़ख्मे-निहां  की !

                                                              ( 2014 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: जहां: संसार; बद्दुआ: श्राप; आसमां: आकाश, देवलोक, ईश्वर; ज़ेह्न: मस्तिष्क; मुद्द'आ: विषय, प्रश्न; गुल: पुष्प; नश्तर: छुरी, नुकीली वस्तु; अदाएं: भंगिमाएं; मेह्रबां: दयालु, शुभचिंतक; हुक्मरां: शासक; जमा'अत: दल, संगठन; हिफ़ाज़त: सुरक्षा; जिस्मो-जां: शरीर और प्राण, तन-मन; मुंतख़ब: निर्वाचित; आशियां: भवन, झोपड़ी; दरमियां: बीच;  फ़लक़: आकाश; ज़ख्मे-निहां: अन्तर्मन का घाव ।




रविवार, 4 मई 2014

कहते हैं जिसे अश्क ...

चाहे       हमारे    मर्ग़     की    कोई    ख़बर     न  हो
मुमकिन  नहीं  कि  आपके  दिल  पर  असर  न  हो

हम  क्या  हुए  कि  खोल  के  रख  दें  न  दिल  अभी
वो:   यार   क्या  हुआ    कि  कभी    मोतबर   न  हो

कहते  हैं  जिसे  अश्क,   रग़-ए-दिल   का    है  लहू
टपके   ज़रूर    आंख    से,   प'  दर-ब-दर   न   हो  !

पीने    से     क़ब्ल      कौन     नमाज़ें     पढ़ा    करे
शायद    हमारे  जाम   में    बिल्कुल    ज़हर  न  हो

मांगी      तो    हैं    दुआएं      तेरे     वास्ते     मगर
तेरी    तरह   ख़ुदा     भी     कहीं    बेख़बर  न  हो  !

                                                                              ( 201 4 )

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:  मर्ग़: निधन; मुमकिन: संभव; मोतबर: विश्वसनीय; अश्क: आंसू; रग़-ए-दिल: हृदय-तंतु; 
लहू: रक्त; दर-ब-दर: आश्रय-विहीन; क़ब्ल:पूर्व; जाम: मदिरा-पात्र ।

शुक्रवार, 2 मई 2014

दोस्त तंगहाल रहे !

मेरे  क़रीब  से  गुज़रो  तो  ये:  ख़्याल  रहे
मेरे  असर  का  कहीं  दिल  में  न  मलाल  रहे

हमें  नज़र  में  बसाएं  तो  ये:  समझ  लीजे
कि  हम  जहां  रहे  वहां  हज़ार  साल  रहे

ख़ुदा  बचाए  हमें  इश्क़  की   नियामत  से
जिगर  में  दर्द  रहे,   ज़ेहन   में  सवाल  रहे

जो  एक  बार   चढ़  गए   तेरी  निगाहों  में
तेरी  नज़र  में  वही  सिर्फ़  बा-कमाल  रहे

ख़ुदा  भी  माफ़  न  कर  पाएगा  तुझे  शायद
जला  के  बस्तियां  अगर  तेरा  जलाल  रहे

तमाम  वक़्त  निभाया  किए  अना  तेरी  
तमाम  उम्र    तेरे  दोस्त     तंगहाल  रहे  

निभा   न  पाए  हम  पाबंदिए-नमाज़  कभी
तेरे  करम  के  मगर  सिलसिले  बहाल  रहे  !

                                                                    ( 2014 ) 

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मलाल: खेद; नियामत: देन, कृपा; जिगर: हृदय-क्षेत्र; ज़ेहन: मस्तिष्क; बा-कमाल: काम के लोग, सुयोग्य;   जलाल: प्रताप; 
अना: गर्व; पाबंदिए-नमाज़: नमाज़ की नियमबद्धता; करम: कृपा; सिलसिले: क्रम; बहाल: यथावत ।




बुधवार, 30 अप्रैल 2014

जुनूनी बयां तेरे ...

दहशत   में    डालते  हैं     जुनूनी  बयां  तेरे
ये:  क्या  सिखा   गए   हैं  तुझे  रहनुमां  तेरे

सब   लोग     परेशां   हैं    तेरे  तौरे-कार  से
किसकी    हिफ़ाज़तों  में    बचेंगे  मकां  तेरे

सदियों  से  मुंतज़िर  हैं  तेरी  दीद  के  मगर
अब तक  नज़र  से  दूर  हैं  नामो-निशां  तेरे

भड़का  रहे  हैं  नफ़रतों  की  आग  हर  जगह
तुझसे  से  भी  बदज़ुबां  हैं  कई  हमज़ुबां  तेरे

जिस   ख़द्दो-ख़ाल  पे  तुझे     इतना  ग़ुरूर  है
मिट्टी  में  मिल  रहेंगे  यही  जिस्मो-जां  तेरे

वो:  जो  ख़ुदा  है  आस्मां  पे,  देखता  है  सब
देते     हैं    बद्दुआएं    तुझे        ख़ुर्दगां   तेरे  !

दुनिया  में  हो  निबाह  न  जन्नत  में  हो  जगह
किस  काम  के  मेरे    ये:     ज़मीं-आसमां:  तेरे !

                                                                      ( 2014 )

                                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:  दहशत: आतंक;   जुनूनी: उन्मादी; बयां: वक्तव्य; रहनुमां: मार्गदर्शक, गुरुजन;   तौरे-कार: कार्य-पद्धति; हिफ़ाज़तों: सुरक्षाओं; मकां: घर, महल आदि; मुंतज़िर: प्रतीक्षारत; दीद: दर्शन; नामो-निशां: चिह्न,लक्षण; बदज़ुबां: अपभाषी, बुरी भाषा बोलने वाले; 
हमज़ुबां: समभाषी; ख़द्दो-ख़ाल: शारीरिक सौंदर्य; ग़ुरूर: घमंड; जिस्मो-जां: तन-मन; आस्मां: आकाश; बद्दुआएं: अशुभ-कामनाएं; 
ख़ुर्दगां: प्रेम में छले गए लोग।