मजमूं तड़प रहे हैं रिहाई के वास्ते
लब खोलिए जनाब ख़ुदाई के वास्ते
गर्दो-ग़ुबार रूह तलक आ न पाएंगे
कहते हैं शे'र दिल की सफ़ाई के वास्ते
तहज़ीब तिरे शह्र से कुछ दूर रुक गई
मिलते हैं लोग रस्म-अदाई के वास्ते
अच्छे दिनों से क़ब्ल हमें अक़्ल आ गई
कासा मंगा लिया है गदाई के वास्ते
फ़रमाने-शाह है कि सर-ब-सज्द: सब रहें
वो: क़त्ल कर रहे हैं भलाई के वास्ते
जश्ने-जम्हूर रंग पे आया है इस तरह
दुम्बे सजे हुए हैं क़साई के वास्ते
सुनते हैं तिरी बज़्म में हाज़िर हैं शाहे-अर्श
हम भी खड़े हुए हैं रसाई के वास्ते
फ़ातेह क्या हुए कि निगाहें बदल गईं
लाए हैं नमक ज़ख़्म-कुशाई के वास्ते
रिश्वत से मुअज़्ज़िन की जिन्हें नौकरी मिली
देते हैं अज़ां नेक कमाई के वास्ते !
(2014)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: मजमूं: विषय, कथ्य; रिहाई: मुक्ति; लब: ओष्ठ; ख़ुदाई: संसार; गर्दो-ग़ुबार: धूल-मिट्टी; तहज़ीब: सभ्यता; रस्म-अदाई: प्रथा का निर्वाह, औपचारिकता; क़ब्ल: पहले; कासा: भिक्षा-पात्र; गदाई: भिक्षा-वृत्ति; फ़रमाने-शाह: शासकीय आदेश; सर-ब-सज्द::नतमस्तक; जश्ने-जम्हूर: लोकतंत्र का उत्सव; दुम्बे: भेड़; क़साई: वधिक; बज़्म: सभा, गोष्ठी; रसाई: पहुंच; फ़ातेह: विजयी; ज़ख़्म-कुशाई: घाव उभारने; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला।
लब खोलिए जनाब ख़ुदाई के वास्ते
गर्दो-ग़ुबार रूह तलक आ न पाएंगे
कहते हैं शे'र दिल की सफ़ाई के वास्ते
तहज़ीब तिरे शह्र से कुछ दूर रुक गई
मिलते हैं लोग रस्म-अदाई के वास्ते
अच्छे दिनों से क़ब्ल हमें अक़्ल आ गई
कासा मंगा लिया है गदाई के वास्ते
फ़रमाने-शाह है कि सर-ब-सज्द: सब रहें
वो: क़त्ल कर रहे हैं भलाई के वास्ते
जश्ने-जम्हूर रंग पे आया है इस तरह
दुम्बे सजे हुए हैं क़साई के वास्ते
सुनते हैं तिरी बज़्म में हाज़िर हैं शाहे-अर्श
हम भी खड़े हुए हैं रसाई के वास्ते
फ़ातेह क्या हुए कि निगाहें बदल गईं
लाए हैं नमक ज़ख़्म-कुशाई के वास्ते
रिश्वत से मुअज़्ज़िन की जिन्हें नौकरी मिली
देते हैं अज़ां नेक कमाई के वास्ते !
(2014)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: मजमूं: विषय, कथ्य; रिहाई: मुक्ति; लब: ओष्ठ; ख़ुदाई: संसार; गर्दो-ग़ुबार: धूल-मिट्टी; तहज़ीब: सभ्यता; रस्म-अदाई: प्रथा का निर्वाह, औपचारिकता; क़ब्ल: पहले; कासा: भिक्षा-पात्र; गदाई: भिक्षा-वृत्ति; फ़रमाने-शाह: शासकीय आदेश; सर-ब-सज्द::नतमस्तक; जश्ने-जम्हूर: लोकतंत्र का उत्सव; दुम्बे: भेड़; क़साई: वधिक; बज़्म: सभा, गोष्ठी; रसाई: पहुंच; फ़ातेह: विजयी; ज़ख़्म-कुशाई: घाव उभारने; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला।
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (20.06.2014) को "भाग्य और पुरषार्थ में संतुलन " (चर्चा अंक-1649)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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