किसका गुनाह है कि ज़माने बदल गए
तहज़ीबे-रस्मो-राह के मा'ने बदल गए
तर्ज़े-बयां में अब वो: कहां बात रह गई
वो: मुर्कियां, वो: राग पुराने बदल गए
ये: कनख़ियों के वार, ये: हंसना, ये: रूठना
कब से तिरी नज़र के निशाने बदल गए
ग़ालिब तिरे शह्र में रहें किस ख़याल से
तेरे शहर के चाहने वाले बदल गए
मजलिस वही, मिज़ाज वही, मर्ज़ भी वही
अच्छे दिनों के ख़्वाब सुहाने बदल गए
सच है कि इंतेख़ाब का हक़ है जनाब को
मौक़ा मिला नहीं कि दिवाने बदल गए
अब भी वही है भूख के मारों की दास्तां
बदला निज़ाम या कि बहाने बदल गए ?!
(2014)
तहज़ीबे-रस्मो-राह के मा'ने बदल गए
तर्ज़े-बयां में अब वो: कहां बात रह गई
वो: मुर्कियां, वो: राग पुराने बदल गए
ये: कनख़ियों के वार, ये: हंसना, ये: रूठना
कब से तिरी नज़र के निशाने बदल गए
ग़ालिब तिरे शह्र में रहें किस ख़याल से
तेरे शहर के चाहने वाले बदल गए
मजलिस वही, मिज़ाज वही, मर्ज़ भी वही
अच्छे दिनों के ख़्वाब सुहाने बदल गए
सच है कि इंतेख़ाब का हक़ है जनाब को
मौक़ा मिला नहीं कि दिवाने बदल गए
अब भी वही है भूख के मारों की दास्तां
बदला निज़ाम या कि बहाने बदल गए ?!
(2014)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: गुनाह: अपराध; तहज़ीबे-रस्मो-राह: परस्पर शिष्टाचार की सभ्यता; मा'ने: मा'यने, अर्थ; तर्ज़े-बयां: अभिव्यक्ति की शैली, गीत आदि की धुन; मुर्कियां: स्वरों का घुमाव-फिराव; मजलिस: सभा (लोकसभा, आदि); मिज़ाज: स्वभाव, पद्धति; मर्ज़: रोग, समस्या; इंतेख़ाब: चुनाव; दास्तां: आख्यान; निज़ाम: शासन।
खूबसूरत ग़ज़ल...हर एक शेर सटीक और सारगर्भित...
जवाब देंहटाएंबेहद सुन्दर
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