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बुधवार, 30 अप्रैल 2014

जुनूनी बयां तेरे ...

दहशत   में    डालते  हैं     जुनूनी  बयां  तेरे
ये:  क्या  सिखा   गए   हैं  तुझे  रहनुमां  तेरे

सब   लोग     परेशां   हैं    तेरे  तौरे-कार  से
किसकी    हिफ़ाज़तों  में    बचेंगे  मकां  तेरे

सदियों  से  मुंतज़िर  हैं  तेरी  दीद  के  मगर
अब तक  नज़र  से  दूर  हैं  नामो-निशां  तेरे

भड़का  रहे  हैं  नफ़रतों  की  आग  हर  जगह
तुझसे  से  भी  बदज़ुबां  हैं  कई  हमज़ुबां  तेरे

जिस   ख़द्दो-ख़ाल  पे  तुझे     इतना  ग़ुरूर  है
मिट्टी  में  मिल  रहेंगे  यही  जिस्मो-जां  तेरे

वो:  जो  ख़ुदा  है  आस्मां  पे,  देखता  है  सब
देते     हैं    बद्दुआएं    तुझे        ख़ुर्दगां   तेरे  !

दुनिया  में  हो  निबाह  न  जन्नत  में  हो  जगह
किस  काम  के  मेरे    ये:     ज़मीं-आसमां:  तेरे !

                                                                      ( 2014 )

                                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:  दहशत: आतंक;   जुनूनी: उन्मादी; बयां: वक्तव्य; रहनुमां: मार्गदर्शक, गुरुजन;   तौरे-कार: कार्य-पद्धति; हिफ़ाज़तों: सुरक्षाओं; मकां: घर, महल आदि; मुंतज़िर: प्रतीक्षारत; दीद: दर्शन; नामो-निशां: चिह्न,लक्षण; बदज़ुबां: अपभाषी, बुरी भाषा बोलने वाले; 
हमज़ुबां: समभाषी; ख़द्दो-ख़ाल: शारीरिक सौंदर्य; ग़ुरूर: घमंड; जिस्मो-जां: तन-मन; आस्मां: आकाश; बद्दुआएं: अशुभ-कामनाएं; 
ख़ुर्दगां: प्रेम में छले गए लोग।  

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