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शनिवार, 17 मई 2014

गिरे काश ! दीवार...

करें  जो  न  पूरी  उमीदें  जहां  की
लगेगी  उन्हें  बद्दुआ  आसमां  की

ज़ेह्न  में  तिरे  मुद्द'आ  कुछ  नहीं  है
कहे  जा  रहा  है  यहां  की,  वहां  की

कभी  हाथ  में  गुल,  कभी  तेज़ नश्तर
अजब  हैं  अदाएं  मिरे   मेह्रबां  की

हुई  हुक्मरां  क़ातिलों  की  जमा'अत
हिफ़ाज़त  कहां  अब  रही  जिस्मो-जां  की

जिन्हें  मुंतख़ब  कर  लिया  आंधियों  ने
उन्हें  फ़िक्र  क्यूं  हो  मिरे  आशियां  की

बहुत  हो  चुकीं  दूरियां  दो  दिलों  में
गिरे  काश ! दीवार  ये:  दरमियां  की

सुनी  है  फ़लक़  पर  अज़ां  जो  ख़ुदा  ने
शिकायत  है  वो:  एक  ज़ख्मे-निहां  की !

                                                              ( 2014 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: जहां: संसार; बद्दुआ: श्राप; आसमां: आकाश, देवलोक, ईश्वर; ज़ेह्न: मस्तिष्क; मुद्द'आ: विषय, प्रश्न; गुल: पुष्प; नश्तर: छुरी, नुकीली वस्तु; अदाएं: भंगिमाएं; मेह्रबां: दयालु, शुभचिंतक; हुक्मरां: शासक; जमा'अत: दल, संगठन; हिफ़ाज़त: सुरक्षा; जिस्मो-जां: शरीर और प्राण, तन-मन; मुंतख़ब: निर्वाचित; आशियां: भवन, झोपड़ी; दरमियां: बीच;  फ़लक़: आकाश; ज़ख्मे-निहां: अन्तर्मन का घाव ।




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