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मंगलवार, 8 अप्रैल 2014

गुनगुनाए वीराने ...!

इस  क़दर  रास  आए  वीराने
महफ़िलों  में  सजाए  वीराने

दौलते-दिल  लुटाई  रातों  में
और  दिन  में  कमाए  वीराने

बेरुख़ी  की  दुहाई  देते  थे
जब  मिले  साथ  लाए  वीराने

बेख़ुदी  में  गले  लगा  बैठे
उन्स  ने  यूं  मिटाए  वीराने

वस्ल  की  शब  गुज़र  गई  यूं  ही
सुब्ह  तक  गुनगुनाए  वीराने 

दिल  जतन  से  छिपाए  रखता  था
चश्मे-तर  ने  लुटाए  वीराने

नफ़रतों  ने  शहर  मिटा  डाले
दुश्मनों  ने  बसाए  वीराने

वो:  न  समझे  हमें  न हम  उनको
ख़ुल्द  में  याद   आए   वीराने  !

                                                             (2014)

                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दौलते-दिल: मन की समृद्धि; बेरुख़ी: उपेक्षा; बेख़ुदी: आत्म-विस्मृति; उन्स: अनुराग; 
वस्ल की शब: मिलन-निशा; चश्मे-तर: भीगी आंखें; ख़ुल्द: स्वर्ग ।



शनिवार, 5 अप्रैल 2014

अच्छी ख़बर ...!

लोग  अच्छी  ख़बर  से  डरते  हैं
क़िस्मतों  के  क़हर  से  डरते हैं

दुश्मनों  से  नहीं  हमें  पर्दा :
दोस्तों  की  नज़र  से  डरते हैं

आप  छू  दें  तो  सांप  मर  जाए
आप  किसके  ज़हर  से  डरते  हैं

एक-दो  तो  ज़रूर   हैवां  हैं 
आप  सारे  शहर  से  डरते  हैं

नाम  आतिश-फ़िशां  बताते  हैं
और  दाग़े-शरर  से  डरते  हैं

लोग   तो  बद्दुआ  से  डरते  हैं
हम  दुआ-ए-असर  से  डरते  हैं

नूर  के  ख़्वाब  देखने  वाले
दिल  ही  दिल  में  सहर  से  डरते  हैं !
 
                                                               (2014) 

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़हर: प्रकोप;  हैवां; हैवान, पशु-स्वभाव वाले; आतिश-फ़िशां: ज्वालामुखी; दाग़े-शरर: चिंगारी का दाग़; 
बद्दुआ: श्राप; दुआ-ए-असर: प्रभावी शुभकामना; सहर: उष:काल । 

सोमवार, 17 मार्च 2014

रंगे-ईमान काम आता है

अजनबी  ही  रहे  ज़माने  में
शर्म  आती  है  मुंह  दिखाने  में

दिल  लिया  है  तो  ये:  हिचक  कैसी
नाम  अपना  हमें  बताने  में

आप  शायद  हमें  मना  लेते
पर  कमी  रह  गई  बहाने  में

वो:  ही  जानें  जो  इश्क़  करते  हैं
क्या  मज़ा  है  फ़रेब  खाने  में

आप  से  क्या  मुक़ाबिला  अपना
आप  माहिर  हैं  दिल  चुराने  में

क्या  बताएं  किसे  बताएं  अब
दर्द  होता  है  मुस्कुराने  में

कट  गई  उम्र  इम्तिहां  देते
मुब्तिला  हैं  वो:  आज़माने  में

गर  मुखौटा  कभी  हटे  उनका
आग  लग  जाएगी  ज़माने  में

रंगे-ईमान  काम  आता  है
दूरियां  रूह  की  मिटाने  में  !

                                                ( 2014 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: अजनबी: अपरिचित; फ़रेब: छल; माहिर: प्रवीण; मुब्तिला: व्यस्त; रंगे-ईमान: निष्ठा की चमक। 

मंगलवार, 11 मार्च 2014

ज़रा सी हड़बड़ी है..

फूल  मत  देना  हमें  सौग़ात  में 
खिल  न  पाएंगे  नए  हालात  में

कह  न  पाएंगे  किसी  से  राज़े-दिल
क्या  मिलेगा  वस्ल  की  इस  रात  में

तुम  सियासतदां  समझते  क्यूं  नहीं
बह  रहे   हैं  लोग  किन  जज़्बात  में

असलहों  की  है  हुकूमत  आजकल
बंट  रही  हैं  गोलियां  ख़ैरात  में 

क्यूं  ख़ुदा  से मांगता  है  रोटियां
क्या  कमी  है  आदमी  की  ज़ात  में

सिलसिला  जब  से  ख़ुदा  से  कर  लिया
तर-ब-तर  हैं  नूर  की  बरसात  में 

कौन  कहता  है  कि  हम  बेताब  हैं
बस  ज़रा  सी  हड़बड़ी  है  बात  में  !

                                                                   ( 2014 )

                                                             -सुरेश  स्वप्निल  

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शुक्रवार, 7 मार्च 2014

जश्न हो जाए..!

कह  चुके,  अब  रुख़्सती  का  वक़्त  है
जश्न   हो   जाए,     ख़ुशी  का  वक़्त  है

अश्कबारी  भूल  कर  हंस  दीजिए
ये:  गुलों  में  ताज़गी  का  वक़्त  है

इंतेख़ाबे-आम      इस  जम्हूर  का
रहबरों  की  रहज़नी  का  वक़्त  है

शाहे-ग़ाफ़िल,  होश  में  आ  जा  ज़रा
ज़ालिमों  की  ख़ुदकुशी  का  वक़्त  है

ऐ  फ़रिश्तों !  बख़्श  दो  कुछ  देर  को
रिंद हैं,     बाद:कशी      का    वक़्त  है

मैकदे  की  लाज  रखियो,  ज़ाहिदों !
चल  दिए  हम,  बंदगी  का वक़्त  है

मौत  कहिए  जिस्म  की  या  यूं  कहें
रूह  की     आवारगी  का     वक़्त  है !

                                                        ( 2014 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रुख़्सती: बिदाई; जश्न: उत्सव; अश्कबारी: अश्रु-प्रवाह; इंतेख़ाबे-आम: आम चुनाव; जम्हूर: लोकतंत्र; रहबरों  की  रहज़नी: नेताओं की बीच रास्ते में लूटमार; शाहे-ग़ाफ़िल: भ्रम में पड़े लोगों का राजा; ज़ालिमों: अत्याचारियों; ख़ुदकुशी: आत्महत्या;  फ़रिश्तों: मृत्यु-दूतों; बख़्श  दो: छोड़ दो; रिंद: मद्यप; बाद:कशी: मदिरा-पान; मैकदे: मदिरालय;  ज़ाहिदों: धर्मोपदेशकों; रूह  की  आवारगी: आत्मा की यायावरी।

गुरुवार, 6 मार्च 2014

फूल-सा नर्म दिल..

फूल-सा  नर्म  दिल  सनम  का  है
ये:  करिश्मा  किसी  करम  का  है

तोड़  कर  दिल  तमाम  कहते  हैं
अब  ज़माना  नई  नज़्म  का   है

मिरा  होना    अगर     ख़राबी  है
मुद्द'आ    आपके    रहम   का  है

रूह   को    दाग़दार    मत  कीजे
जिस्म  तो  यूं  भी  चार  दम  का  है

आक़बत   को    संवारिए    अपनी
ये:  सबक़  वक़्त  के  सितम  का  है

दरम्यां    दो  दिलों  के    दुनिया  है
फ़ासला   सिर्फ़  इक  क़दम  का  है

मैं  तिरे   अज़्म  की    हक़ीक़त  हूं
तू    नतीजा    मिरे  वहम  का  है  !

                                                     ( 2014 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 


शब्दार्थ: करिश्मा: चमत्कार; करम: ईश्वरीय कृपा; ख़राबी: दोष;  रहम: दया; दाग़दार: कलंकित; दम: सांस; आक़बत: परलोक; सबक़: पाठ, शिक्षा; सितम: अत्याचार; दरम्यां: बीच में; फ़ासला: अंतराल, दूरी; अज़्म: अस्तित्व; हक़ीक़त: यथार्थ; नतीजा: परिणाम; वहम: भ्रम। 

क्या शिकायत करें ?

ज़िंदगी  यूं  रवां  नहीं  होती
और  ग़फ़लत  कहां  नहीं  होती

क्या  मुअम्मा  है,  तिरे  कूचे  में
कोई  हसरत  जवां  नहीं  होती

एक  बस्ती  कहीं  बता  दीजे
कोई  वहशत  जहां  नहीं  होती

क्या  शिकायत  करें  शहंशह  से
मुफ़लिसों  में  ज़ुबां  नहीं  होती

ढूंढते  हैं  वफ़ा  ज़माने  में
चाहते  हैं,  वहां  नहीं  होती

टूटतीं  गर  न  उम्मीदें  अपनी
रू:  सरे-आस्मां  नहीं  होती

ज़ीस्त  जब  रास्ता  नहीं  देती
मौत  भी  मेह्र्बां  नहीं  होती  !

                                             ( 2014 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: रवां: प्रवहमान; ग़फ़लत: भ्रम, त्रुटि; मुअम्मा: पहेली; कूचे: गली; हसरत: इच्छा;  जवां:  पूर्ण; वहशत: उन्माद, क्रूरता; 
मुफ़लिसों: विपन्न जनों; ज़ुबां: वाणी; वफ़ा: आस्था; रू:: आत्मा; सरे-आस्मां: आकाश पर, देवलोक में; ज़ीस्त: जीवन; मेह्र्बां: कृपालु ।