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सोमवार, 17 मार्च 2014

रंगे-ईमान काम आता है

अजनबी  ही  रहे  ज़माने  में
शर्म  आती  है  मुंह  दिखाने  में

दिल  लिया  है  तो  ये:  हिचक  कैसी
नाम  अपना  हमें  बताने  में

आप  शायद  हमें  मना  लेते
पर  कमी  रह  गई  बहाने  में

वो:  ही  जानें  जो  इश्क़  करते  हैं
क्या  मज़ा  है  फ़रेब  खाने  में

आप  से  क्या  मुक़ाबिला  अपना
आप  माहिर  हैं  दिल  चुराने  में

क्या  बताएं  किसे  बताएं  अब
दर्द  होता  है  मुस्कुराने  में

कट  गई  उम्र  इम्तिहां  देते
मुब्तिला  हैं  वो:  आज़माने  में

गर  मुखौटा  कभी  हटे  उनका
आग  लग  जाएगी  ज़माने  में

रंगे-ईमान  काम  आता  है
दूरियां  रूह  की  मिटाने  में  !

                                                ( 2014 )

                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: अजनबी: अपरिचित; फ़रेब: छल; माहिर: प्रवीण; मुब्तिला: व्यस्त; रंगे-ईमान: निष्ठा की चमक। 

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