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शुक्रवार, 7 मार्च 2014

जश्न हो जाए..!

कह  चुके,  अब  रुख़्सती  का  वक़्त  है
जश्न   हो   जाए,     ख़ुशी  का  वक़्त  है

अश्कबारी  भूल  कर  हंस  दीजिए
ये:  गुलों  में  ताज़गी  का  वक़्त  है

इंतेख़ाबे-आम      इस  जम्हूर  का
रहबरों  की  रहज़नी  का  वक़्त  है

शाहे-ग़ाफ़िल,  होश  में  आ  जा  ज़रा
ज़ालिमों  की  ख़ुदकुशी  का  वक़्त  है

ऐ  फ़रिश्तों !  बख़्श  दो  कुछ  देर  को
रिंद हैं,     बाद:कशी      का    वक़्त  है

मैकदे  की  लाज  रखियो,  ज़ाहिदों !
चल  दिए  हम,  बंदगी  का वक़्त  है

मौत  कहिए  जिस्म  की  या  यूं  कहें
रूह  की     आवारगी  का     वक़्त  है !

                                                        ( 2014 )

                                                 -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रुख़्सती: बिदाई; जश्न: उत्सव; अश्कबारी: अश्रु-प्रवाह; इंतेख़ाबे-आम: आम चुनाव; जम्हूर: लोकतंत्र; रहबरों  की  रहज़नी: नेताओं की बीच रास्ते में लूटमार; शाहे-ग़ाफ़िल: भ्रम में पड़े लोगों का राजा; ज़ालिमों: अत्याचारियों; ख़ुदकुशी: आत्महत्या;  फ़रिश्तों: मृत्यु-दूतों; बख़्श  दो: छोड़ दो; रिंद: मद्यप; बाद:कशी: मदिरा-पान; मैकदे: मदिरालय;  ज़ाहिदों: धर्मोपदेशकों; रूह  की  आवारगी: आत्मा की यायावरी।

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