ज़िंदगी यूं रवां नहीं होती
और ग़फ़लत कहां नहीं होती
क्या मुअम्मा है, तिरे कूचे में
कोई हसरत जवां नहीं होती
एक बस्ती कहीं बता दीजे
कोई वहशत जहां नहीं होती
क्या शिकायत करें शहंशह से
मुफ़लिसों में ज़ुबां नहीं होती
ढूंढते हैं वफ़ा ज़माने में
चाहते हैं, वहां नहीं होती
टूटतीं गर न उम्मीदें अपनी
रू: सरे-आस्मां नहीं होती
ज़ीस्त जब रास्ता नहीं देती
मौत भी मेह्र्बां नहीं होती !
( 2014 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रवां: प्रवहमान; ग़फ़लत: भ्रम, त्रुटि; मुअम्मा: पहेली; कूचे: गली; हसरत: इच्छा; जवां: पूर्ण; वहशत: उन्माद, क्रूरता;
मुफ़लिसों: विपन्न जनों; ज़ुबां: वाणी; वफ़ा: आस्था; रू:: आत्मा; सरे-आस्मां: आकाश पर, देवलोक में; ज़ीस्त: जीवन; मेह्र्बां: कृपालु ।
और ग़फ़लत कहां नहीं होती
क्या मुअम्मा है, तिरे कूचे में
कोई हसरत जवां नहीं होती
एक बस्ती कहीं बता दीजे
कोई वहशत जहां नहीं होती
क्या शिकायत करें शहंशह से
मुफ़लिसों में ज़ुबां नहीं होती
ढूंढते हैं वफ़ा ज़माने में
चाहते हैं, वहां नहीं होती
टूटतीं गर न उम्मीदें अपनी
रू: सरे-आस्मां नहीं होती
ज़ीस्त जब रास्ता नहीं देती
मौत भी मेह्र्बां नहीं होती !
( 2014 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रवां: प्रवहमान; ग़फ़लत: भ्रम, त्रुटि; मुअम्मा: पहेली; कूचे: गली; हसरत: इच्छा; जवां: पूर्ण; वहशत: उन्माद, क्रूरता;
मुफ़लिसों: विपन्न जनों; ज़ुबां: वाणी; वफ़ा: आस्था; रू:: आत्मा; सरे-आस्मां: आकाश पर, देवलोक में; ज़ीस्त: जीवन; मेह्र्बां: कृपालु ।
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (07.03.2014) को "साधना का उत्तंग शिखर (चर्चा अंक-१५४४)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें, वहाँ आपका स्वागत है, धन्यबाद।
बेहतरीन ग़ज़ल...
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