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मंगलवार, 28 जनवरी 2014

ज़िंदगी की रिदा ...!

वक़्त   बदला  नहीं,  दौड़  कर  चल  दिया
मौसमे-गुल  चमन  छोड़  कर  चल  दिया

जी  रहे  थे  वफ़ा  का  भरोसा  किए
और  वो:  सिलसिला  तोड़  कर  चल  दिया

दिल  के  तूफ़ां  ने  कश्ती  डुबोई  मेरी
रुख़  भंवर  की  तरफ़  मोड़  कर  चल  दिया

चांद   टूटे    दिलों    का    सहारा  बना
रिश्त:-ए-ज़िंदगी  जोड़  कर  चल  दिया

मुस्कुरा  के  फ़रिश्ता  दग़ा  कर  गया
ज़िंदगी  की  रिदा  ओढ़  कर  चल  दिया !

                                                             ( 2014 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: फूलों की ऋतु; चमन: उपवन; सिलसिला: क्रम, सम्बंध; तूफ़ां: झंझावात; कश्ती: नौका; रुख़: दिशा; रिश्त:-ए-ज़िंदगी: जीवन-सम्बंध; फ़रिश्ता: मृत्यु-दूत, ईश्वरीय दूत; दग़ा: कपट;

सोमवार, 27 जनवरी 2014

ख़ुदा से रू-ब-रू हों ..!

दर्द  दुनिया  के   मेरी  चश्म  में  उतर  आए
बड़ी  ख़ुशी  है  कि  मेहमान  सही  घर  आए

तुम्हारी  याद  जो  आई  तो  मोजज़े  की  तरह
कई    मक़ामे-इश्क़    ज़ेह्न    में   उभर  आए

न  जी  को  चैन  मिला  और  न  रूह  को  तस्कीं
तेरे   ख़याल   हमें    क्यूं    रहे-सफ़र    आए 

तमाम  उम्र     गुज़ारी    बिना  तग़ाफ़ुल  के
उम्मीद  तो  है  कि  उम्मीद  कोई  बर  आए 

बचा  नहीं  है  कोई  उन्स  ज़िंदगी  से  मुझे
दुआ  करो  कि  फ़रिश्ता  मेरा  नज़र  आए 

वक़्ते-मग़रिब  जहां  में  आए  थे  शम्'अ  बन  कर
है  तमन्ना  कि  मौत  अब  लबे-सहर  आए

ख़ुदा  से  रू-ब-रू  हों  हम  तो  ये:  नज़ारा  हो
अज़ां  लबों  पे  रहे   और  निगाह  भर  आए  !

                                                                     ( 2014 )

                                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: चश्म: नयन; मोजज़ा: चमत्कार; मक़ामे-इश्क़: प्रेम से सम्बंधित स्थल; ज़ेह्न: मस्तिष्क, स्मृति; 
तग़ाफ़ुल: आपत्ति;  उन्स: लगाव, अनुराग;  फ़रिश्ता: मृत्यु-दूत; सांध्य-समय; रू-ब-रू: समक्ष; नज़ारा: दृश्य।

शनिवार, 25 जनवरी 2014

...लोहा पिघल गया !

यौमे-जम्हूरियत पर ख़ास

सदमे  में   हैं  हुज़ूर    के:    मौक़ा     निकल  गया
दिल्ली  का  तख़्त  हाथ  में  आ  के  फिसल  गया

कल  तक  खड़े  हुए  थे  ख़िलाफ़त  में   शाह  की
मनसब  मिला  तो  आपका  लोहा  पिघल  गया

जम्हूरियत  के  नाम  पे  घर-बार  लुट  गया
आख़िर  उम्मीद  का  दिन  नाकाम  ढल  गया

ईमां    ख़रीदने    को    मेरा    शाह   अड़  गया
अल्लाह  तेरा  शुक्र  है  कि  दिल  संभल  गया

आमद  पे  मेरी  बज़्म  में  वो:  ख़ुश  न  थे  अगर
दिल  बल्लियों  जनाब  का  क्यूं  कर  उछल  गया

हम    आ    चुके     थे    दूर     तलाशे-बहार     में
क़िस्मत  की  बात  ख़ुल्द  का  मौसम  बदल  गया !

                                                                        ( 2014 )

                                                                  -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: सदमे में: आघात की स्थिति में; ख़िलाफ़त: विरोध; मनसब: ऊंचा पद; लोहा: संघर्ष की भावना; जम्हूरियत: गणतंत्र; 
ईमां: नैतिकता; आमद: आगमन; बज़्म: सभा; तलाशे-बहार: बसंत की खोज; ख़ुल्द: स्वर्ग।

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

तीर चूका नहीं...!

बच  गए  गर  फ़रेब  खाने  से
क्या  कहेंगे  भला  ज़माने  से

आप  ख़ुद  ही  ठिठक  गए  वर्ना
किसने  रोका  क़रीब  आने  से

एक  कोशिश  तो कीजिए  शायद
बात  बन  जाए  मुस्कुराने  से

दोस्ती  यूं  नहीं  चला  करती
बाज़  आ  जाएं  दिल  जलाने  से

तोहफ़:-ए-दिल  संभाल  के  रखियो
जो  मिला  है  ग़रीब ख़ाने  से

तंज़  करने  लगे  हैं  वो:  हम  पर
तीर  चूका  नहीं  निशाने  से

थी  तुम्हें  ख़ुल्द  में  ज़रूरत  तो
रोक  लेते  हमें  बहाने  से  !

                                                    ( 2014 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गर: यदि; फ़रेब: छल-कपट; तोहफ़:-ए-दिल: हृदय-रूपी उपहार; ग़रीब ख़ाना: आतिथ्य-कर्त्ता का घर; तंज़: व्यंग्य; ख़ुल्द: स्वर्ग। 

मौसम के साज़िंदे ..!

हम  तो  खुल  कर  सच्ची  बातें  करते  हैं
साहिब  जाने  क्यूं    दुनिया  से   डरते  हैं

रफ़्ता-रफ़्ता   याद  किसी  की   आती  है
रेशा-रेशा   दिल  में    नक़्श    उभरते  हैं

मौसम    के    साज़िंदे   सुर  में  आते  हैं
क़ुदरत  के   दामन  में  रंग   निखरते  हैं

हम  क्या  हैं  दरिया  की  मौजों  से  पूछो
तूफ़ां    हम  से    मीलों  दूर    गुज़रते  हैं

अपनी  ख़ुशियों  को  चौराहे  पर  ला  कर
हम सब के  ग़म का ख़मियाज़ा  भरते  हैं

अपना दिल वो: कश्ती है जिसके दम  पर
मज़लूमों   के   अरमां    पार    उतरते  हैं

एक  अक़ीदत  का    सरमाया   काफ़ी  है
इस  ज़रिये  से  बिगड़े  काम  संवरते  हैं !

                                                        ( 2014 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: साहिब: मालिक, विशिष्ट व्यक्ति; रफ़्ता-रफ़्ता: धीरे-धीरे; रेशा-रेशा: तंतु-तंतु पर;  नक़्श: आकार; साज़िंदे: वाद्य-यंत्र बजाने वाले; दरिया: नदी; मौजों: लहरों; ख़मियाज़ा: क्षति-पूर्त्ति; कश्ती: नौका; मज़लूमों: अत्याचार-ग्रस्त; अरमां: महत्वाकांक्षाएं; अक़ीदत: आस्था; सरमाया: पूंजी; ज़रिये: संसाधन।     

बुधवार, 22 जनवरी 2014

... ज़हर लाए हैं !

दर्द  लाए  हैं  के:  अश्'आर-ए-असर  लाए  हैं
आज  क्या  आप  कोई  ख़ास  ख़बर  लाए  हैं

चंद  अल्फ़ाज़े-हुनर  और  कुछ  नए  एहसास
जो  भी  लाए  हैं  बिना  कोर-कसर  लाए  हैं

नाज़ो-अंदाज़  पे  इतराएं  क्यूं  न  वो:  अपने
लूट  कर  हमसे  दिलकशी  की  बहर  लाए  हैं

एक  ही  बूंद  से  क़िस्सा  तमाम  कर  डाला
सुब्हान अल्लाह !  बड़ा  तेज़  ज़हर  लाए  हैं

दाद  का  हक़  है  हमें,  काम  बेमिसाल  किया
हम  शबे-तार  की  आंखों  से  सहर  लाए  हैं

राज़  है  कुछ  तो  जो  सीने  में  छिपा  रक्खा  है
जाम  भर-भर  के  जो  ये:  ख़ुम्रे-नज़र  लाए  हैं

दिल  बिछाएं  के:  नज़र  कोई  तो  इस्ला:  कीजे
तोहफ़:-ए-नूर  ख़ुदा  फिर  मेरे  घर  लाए  हैं !

                                                                            ( 2014 )

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अश्'आर-ए-असर: प्रभावी शे'र; अल्फ़ाज़े-हुनर: दक्षता-पूर्ण शब्द; नाज़ो-अंदाज़: भाव-भंगिमाएं; दिलकशी की बहर: मनमोहक छंद; सुब्हान अल्लाह: साधु-साधु; दाद: प्रशंसा; बेमिसाल: अनुपम; शबे-तार: अमावस्या; सहर: उष:काल; राज़: रहस्य; जाम: मदिरा-पात्र; ख़ुम्रे-नज़र: दृष्टि-रूपी मदिरा; इस्ला: : परामर्श; तोहफ़:-ए-नूर: प्रकाश का उपहार।

सोमवार, 20 जनवरी 2014

...ये: मुद्द'आ नहीं है !

दिल  दें  न  दें  हमें  वो:  ये:  मुद्द'आ  नहीं  है
लेकिन  नज़र  में  उनकी  शायद  वफ़ा  नहीं  है

क्या  ढूंढते   हैं   यां-वां  जो  चाहिए   बता  दें
हालांकि  हमको  दिल  का  ख़ुद  भी  पता  नहीं  है

दिन-रात  तड़पने  की  कोई  वजह  बताएं
यूं  दरमियां  हमारे  कुछ  भी  हुआ  नहीं  है

है  कौन  दुश्मने-दिल  अल्लाह  देख  लेगा
काफ़िर  हैं  जिनके  लब  पे  कोई  दुआ  नहीं  है

ऐसे  भी  लोग  हम  पर  तन्क़ीद  कर  रहे  हैं
इल्मे-सुख़न  से  जिनका  कुछ  वास्ता  नहीं  है

दिल  तोड़ने  का  सबको  हक़  तो  ज़रूर  है  पर
इस  जुर्म  के  मुताबिक़  कोई  सज़ा  नहीं  है

आज़ारे-दिल  के  आगे  अल्लाह  भी  है  बेबस
पढ़ते  हैं  सब  नमाज़ें  लेकिन  शिफ़ा  नहीं  है !

                                                                ( 2014 )

                                                         - सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मुद्द'आ: बिंदु, विषय; वफ़ा: ईमानदारी; यां-वां: यहां-वहां; दरमियां: बीच  में; हृदय का शत्रु; काफ़िर:नास्तिक; तन्क़ीद: टिप्पणी, समीक्षा; इल्मे-सुख़न: सृजन-कला; मुताबिक़: अनुरूप; आज़ारे-दिल: हृदय-रोग, प्रेम-रोग; शिफ़ा: आरोग्य्