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शनिवार, 25 जनवरी 2014

...लोहा पिघल गया !

यौमे-जम्हूरियत पर ख़ास

सदमे  में   हैं  हुज़ूर    के:    मौक़ा     निकल  गया
दिल्ली  का  तख़्त  हाथ  में  आ  के  फिसल  गया

कल  तक  खड़े  हुए  थे  ख़िलाफ़त  में   शाह  की
मनसब  मिला  तो  आपका  लोहा  पिघल  गया

जम्हूरियत  के  नाम  पे  घर-बार  लुट  गया
आख़िर  उम्मीद  का  दिन  नाकाम  ढल  गया

ईमां    ख़रीदने    को    मेरा    शाह   अड़  गया
अल्लाह  तेरा  शुक्र  है  कि  दिल  संभल  गया

आमद  पे  मेरी  बज़्म  में  वो:  ख़ुश  न  थे  अगर
दिल  बल्लियों  जनाब  का  क्यूं  कर  उछल  गया

हम    आ    चुके     थे    दूर     तलाशे-बहार     में
क़िस्मत  की  बात  ख़ुल्द  का  मौसम  बदल  गया !

                                                                        ( 2014 )

                                                                  -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: सदमे में: आघात की स्थिति में; ख़िलाफ़त: विरोध; मनसब: ऊंचा पद; लोहा: संघर्ष की भावना; जम्हूरियत: गणतंत्र; 
ईमां: नैतिकता; आमद: आगमन; बज़्म: सभा; तलाशे-बहार: बसंत की खोज; ख़ुल्द: स्वर्ग।

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

तीर चूका नहीं...!

बच  गए  गर  फ़रेब  खाने  से
क्या  कहेंगे  भला  ज़माने  से

आप  ख़ुद  ही  ठिठक  गए  वर्ना
किसने  रोका  क़रीब  आने  से

एक  कोशिश  तो कीजिए  शायद
बात  बन  जाए  मुस्कुराने  से

दोस्ती  यूं  नहीं  चला  करती
बाज़  आ  जाएं  दिल  जलाने  से

तोहफ़:-ए-दिल  संभाल  के  रखियो
जो  मिला  है  ग़रीब ख़ाने  से

तंज़  करने  लगे  हैं  वो:  हम  पर
तीर  चूका  नहीं  निशाने  से

थी  तुम्हें  ख़ुल्द  में  ज़रूरत  तो
रोक  लेते  हमें  बहाने  से  !

                                                    ( 2014 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: गर: यदि; फ़रेब: छल-कपट; तोहफ़:-ए-दिल: हृदय-रूपी उपहार; ग़रीब ख़ाना: आतिथ्य-कर्त्ता का घर; तंज़: व्यंग्य; ख़ुल्द: स्वर्ग। 

मौसम के साज़िंदे ..!

हम  तो  खुल  कर  सच्ची  बातें  करते  हैं
साहिब  जाने  क्यूं    दुनिया  से   डरते  हैं

रफ़्ता-रफ़्ता   याद  किसी  की   आती  है
रेशा-रेशा   दिल  में    नक़्श    उभरते  हैं

मौसम    के    साज़िंदे   सुर  में  आते  हैं
क़ुदरत  के   दामन  में  रंग   निखरते  हैं

हम  क्या  हैं  दरिया  की  मौजों  से  पूछो
तूफ़ां    हम  से    मीलों  दूर    गुज़रते  हैं

अपनी  ख़ुशियों  को  चौराहे  पर  ला  कर
हम सब के  ग़म का ख़मियाज़ा  भरते  हैं

अपना दिल वो: कश्ती है जिसके दम  पर
मज़लूमों   के   अरमां    पार    उतरते  हैं

एक  अक़ीदत  का    सरमाया   काफ़ी  है
इस  ज़रिये  से  बिगड़े  काम  संवरते  हैं !

                                                        ( 2014 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: साहिब: मालिक, विशिष्ट व्यक्ति; रफ़्ता-रफ़्ता: धीरे-धीरे; रेशा-रेशा: तंतु-तंतु पर;  नक़्श: आकार; साज़िंदे: वाद्य-यंत्र बजाने वाले; दरिया: नदी; मौजों: लहरों; ख़मियाज़ा: क्षति-पूर्त्ति; कश्ती: नौका; मज़लूमों: अत्याचार-ग्रस्त; अरमां: महत्वाकांक्षाएं; अक़ीदत: आस्था; सरमाया: पूंजी; ज़रिये: संसाधन।     

बुधवार, 22 जनवरी 2014

... ज़हर लाए हैं !

दर्द  लाए  हैं  के:  अश्'आर-ए-असर  लाए  हैं
आज  क्या  आप  कोई  ख़ास  ख़बर  लाए  हैं

चंद  अल्फ़ाज़े-हुनर  और  कुछ  नए  एहसास
जो  भी  लाए  हैं  बिना  कोर-कसर  लाए  हैं

नाज़ो-अंदाज़  पे  इतराएं  क्यूं  न  वो:  अपने
लूट  कर  हमसे  दिलकशी  की  बहर  लाए  हैं

एक  ही  बूंद  से  क़िस्सा  तमाम  कर  डाला
सुब्हान अल्लाह !  बड़ा  तेज़  ज़हर  लाए  हैं

दाद  का  हक़  है  हमें,  काम  बेमिसाल  किया
हम  शबे-तार  की  आंखों  से  सहर  लाए  हैं

राज़  है  कुछ  तो  जो  सीने  में  छिपा  रक्खा  है
जाम  भर-भर  के  जो  ये:  ख़ुम्रे-नज़र  लाए  हैं

दिल  बिछाएं  के:  नज़र  कोई  तो  इस्ला:  कीजे
तोहफ़:-ए-नूर  ख़ुदा  फिर  मेरे  घर  लाए  हैं !

                                                                            ( 2014 )

                                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अश्'आर-ए-असर: प्रभावी शे'र; अल्फ़ाज़े-हुनर: दक्षता-पूर्ण शब्द; नाज़ो-अंदाज़: भाव-भंगिमाएं; दिलकशी की बहर: मनमोहक छंद; सुब्हान अल्लाह: साधु-साधु; दाद: प्रशंसा; बेमिसाल: अनुपम; शबे-तार: अमावस्या; सहर: उष:काल; राज़: रहस्य; जाम: मदिरा-पात्र; ख़ुम्रे-नज़र: दृष्टि-रूपी मदिरा; इस्ला: : परामर्श; तोहफ़:-ए-नूर: प्रकाश का उपहार।

सोमवार, 20 जनवरी 2014

...ये: मुद्द'आ नहीं है !

दिल  दें  न  दें  हमें  वो:  ये:  मुद्द'आ  नहीं  है
लेकिन  नज़र  में  उनकी  शायद  वफ़ा  नहीं  है

क्या  ढूंढते   हैं   यां-वां  जो  चाहिए   बता  दें
हालांकि  हमको  दिल  का  ख़ुद  भी  पता  नहीं  है

दिन-रात  तड़पने  की  कोई  वजह  बताएं
यूं  दरमियां  हमारे  कुछ  भी  हुआ  नहीं  है

है  कौन  दुश्मने-दिल  अल्लाह  देख  लेगा
काफ़िर  हैं  जिनके  लब  पे  कोई  दुआ  नहीं  है

ऐसे  भी  लोग  हम  पर  तन्क़ीद  कर  रहे  हैं
इल्मे-सुख़न  से  जिनका  कुछ  वास्ता  नहीं  है

दिल  तोड़ने  का  सबको  हक़  तो  ज़रूर  है  पर
इस  जुर्म  के  मुताबिक़  कोई  सज़ा  नहीं  है

आज़ारे-दिल  के  आगे  अल्लाह  भी  है  बेबस
पढ़ते  हैं  सब  नमाज़ें  लेकिन  शिफ़ा  नहीं  है !

                                                                ( 2014 )

                                                         - सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मुद्द'आ: बिंदु, विषय; वफ़ा: ईमानदारी; यां-वां: यहां-वहां; दरमियां: बीच  में; हृदय का शत्रु; काफ़िर:नास्तिक; तन्क़ीद: टिप्पणी, समीक्षा; इल्मे-सुख़न: सृजन-कला; मुताबिक़: अनुरूप; आज़ारे-दिल: हृदय-रोग, प्रेम-रोग; शिफ़ा: आरोग्य्

शनिवार, 18 जनवरी 2014

महफ़िल की ख़लाओं से

हर    ज़ख़्म    सुलगता    है    यारों   की    दुआओं  से
पर    बाज़    नहीं    आते     कमबख़्त      जफ़ाओं  से

ईमां-ए-दुश्मनां        ने        उम्मीद      बचा     रक्खी
बेज़ार    हुए    जब-जब     अपनों     की   अनाऑ  से

क्यूं    शम्'अ    बुझाती    हैं  मुफ़लिस  के   घरौंदे  की
ये:      राज़      कोई      पूछे      गुस्ताख़     हवाओं  से

हम    दूर   आ    चुके    हैं    दुनिया    के    दायरों   से
आवाज़   न  अब    दीजे   महफ़िल   की   ख़लाओं  से

रहने   दे   ऐ   मुअज़्ज़िन   वो:   वक़्त    अलहदा   था
होता    था    उफ़क़    रौशन    जब   तेरी   सदाओं  से

गिन-गिन    के    रोटियां   हैं,   राशन    है   शराबों  पे
घर  क्या  बुरा  था  हमको   जन्नत  की    फ़ज़ाओं  से

मस्जिद  का  मुंह  न  देखा   मुश्किल  पड़ी  जो  हमपे
क्या    ख़ाक     दुआ    मांगें    पत्थर   के   ख़ुदाऑ  से  !

                                                                                ( 2014 )

                                                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ज़ख़्म: घाव;  कमबख़्त: अभागे; जफ़ाओं: अन्यायों, अत्याचारों; बेज़ार: दु:खी; अनाओं: अहंकारों; मुफ़लिस: विपन्न, निर्धन; गुस्ताख़: उद्दण्ड;  महफ़िल की ख़लाओं: सभा के एकांतों; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला;  अलहदा: भिन्न, अलग; उफ़क़: क्षितिज; 
रौशन: प्रकाशमान;  फ़ज़ाओं: शोभाओं, रंगीनियों। 

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

... हिजाबे-ख़ुदा !

ज़िद  नहीं  है  मगर  आज  दीदार  हो
तूर  से  फिर  मरासिम  का  इज़हार  हो

इश्क़  हो  या  महज़  आपकी  दिल्लगी
ये:  सियासत  मगर  आख़िरी  बार  हो

सात  तालों  में  दिल  की  हिफ़ाज़त  करें
आपको  ज़िंदगी  से  अगर  प्यार  हो

ज़ख़्म  हों  दर्द  हो  अश्क  हों  आह  हो
दुश्मनों  को  न  उल्फ़त  का  आज़ार  हो

लड़खड़ाते  रहें  हम  क़दम-दर-क़दम
वक़्त  की  तेज़  इतनी  न  रफ़्तार  हो

दीद  को  आपकी  ज़िंदगी  छोड़  दें
कोई  हम-सा  जहां  में  परस्तार  हो

ज़रिय:-ए-दुश्मनी  है  हिजाबे-ख़ुदा
क्यूं  इबादत  में  पर्दों  की  दीवार  हो ?!

                                                    ( 2014 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: दीदार: दर्शन; तूर: अरब में एक पर्वत, जिस पर चढ़ कर हज़रत मूसा ( अ.स.) ख़ुदा से वार्त्तालाप करते थे; मरासिम: सम्बंध; इज़हार: प्रदर्शन; उल्फ़त  का  आज़ार: प्रेम-रोग; दीद: 'दीदार' का लघु-रूप, दर्शन; परस्तार: पूजा करने वाला; ज़रिय:-ए-दुश्मनी: शत्रुता का उपकरण;  हिजाबे-ख़ुदा: ख़ुदा का पर्दा।