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शुक्रवार, 22 नवंबर 2013

फ़िक्रे-दुनिया...!

बात     पूरी     अगर    न  हो  पाए
आज    शायद    सहर  न  हो  पाए

ख़्वाब  जो   साथ  छोड़  दें  अपना
रात  फिर   उम्र  भर   न   हो  पाए

बात  हो    इस  तरह    निगाहों  में
दुश्मनों  को    ख़बर     न  हो  पाए

इश्क़    करते    हुए    ख़याल   रहे
ज़िंदगी    ये:    ज़हर    न  हो  पाए

यार  की    नींद  में    पनाह  न  हो
ख़्वाब  यूं   शब-बदर   न  हो  पाए

अहले-ईमां  को  इश्क़  का  हक़  है
दिल   इधर  से  उधर   न  हो  पाए

फ़िक्रे-दुनिया  भी  कीजिए  लेकिन
जां  पे    बेजा  असर     न  हो  पाए

रूह    को     मग़फ़िरत    ज़रूरी  है
बस   ख़ुदा    बेख़बर    न  हो  पाए !

                                            (2013)

                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: ईमानदार, आस्थावान; फ़िक्रे-दुनिया: सांसारिक चिंता; रूह: आत्मा; मग़फ़िरत: मोक्ष।

जवां-उम्र में कीजे तौबा

जिसे    फ़रेबे -जहां    से    गिला   नहीं  होता
वो:  शख्स  अपने-आप  से  ख़फ़ा  नहीं  होता

देख   नासेह     गरेबां  में    झांक   कर   अपने
वक़्त  मुंसिफ़  है  किसी  का  सगा  नहीं  होता

हर   गुनहगार     ज़माने  से    मुंह  छुपाता  है
जब  तलक  आग  न  हो  तो  धुंवा  नहीं  होता

शोर    करता  है     वही    दूर  रह  के  मैदां  से
जिसमें   लड़ने   का    कोई   माद्दा  नहीं  होता

झूठ-ओ-मक्र  जो  दिल  में  छुपाए  रखता  हो
ऐसे   इंसान   के    हक़  में    ख़ुदा  नहीं  होता

ये:  सियासत  है  यहां  काम  क्या  शरीफ़ों  का
दूध  का    कोई    यहां  पर  धुला  नहीं  होता

बात  तब  है  के:  जवां-उम्र  में   कीजे  तौबा
मौत  के  बाद    कोई    रास्ता     नहीं  होता

अहले-ईमां  ही   सचाई  की   क़द्र  करते  हैं
बे-ईमानों  का  कोई  फ़लसफ़ा  नहीं  होता !

                                                               ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: फ़रेबे -जहां: दुनिया के छल; गिला: शिकायत; नासेह: धार्मिक शिक्षा देने वाला; मुंसिफ़: न्यायकर्त्ता; 
गुनहगार: अपराधी; माद्दा: शक्ति; मक्र: छद्म; अहले-ईमां: ईमानदार लोग; फ़लसफ़ा: दर्शन, सिद्धांत।

बुधवार, 20 नवंबर 2013

नशा नज़र का...!

तेरा  ख़याल  निगाहों  में  फिर  संवर  आया
यहां  वहां  से    लौट  के   परिंद:  घर  आया

हमें  वो:  अजनबी   जो  तूर  पर   नज़र  आया
ख़याल  क्यूं  उसी  का  फिर  शबो-सहर  आया

असर  तेरा  है    के:  बस   ख़ाम-ख़याली  मेरी
रग़े-जिगर  में  तेरा  अक्स  फिर  उभर  आया

मिले तो इस तरह  के:  नाम तक न पूछ  सके
नशा  नज़र  का  मगर  रूह  तक  उतर  आया

नफ़स-नफ़स  में  तेरा  नाम  लिए  जाते  थे
तुझे   ख़याल    हमारा    लबे-सफ़र    आया

उतर  गया  जो  शख़्स    एक  बार   नज़रों  से
हमारे  दिल  में  पलट  के   न  उम्र  भर  आया

ख़ुदा  क़सम  ये:  तेरा  शहर  छोड़  देंगे  हम
दिलों  के  बीच  कहीं  फ़ासला  अगर  आया !

                                                             ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: तूर: अरब में सीना की वादी में स्थित एक मिथकीय पर्वत जहां हज़रत मूसा को ख़ुदा के नूर की एक झलक मिली; 
शबो-सहर: रात और प्रात:; ख़ाम-ख़याली: व्यर्थ भ्रम; रग़े-जिगर: हृदय की पेशी; अक्स: छाया, प्रतिबिम्ब; 
नफ़स-नफ़स: सांस-सांस; लबे-सफ़र: (अंतिम) यात्रा पर निकलते समय; फ़ासला:अंतराल। 

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

तोड़ दें सब तिलिस्म !

शोख़  जज़्बात    पर  यक़ीन  नहीं
आपकी   बात     पर  यक़ीन  नहीं

यूं  यक़ीं  है    वफ़ाओं  पर  उनकी
बाज़  अवक़ात   पर  यक़ीन  नहीं

ख़्वाब  आएं  न  आएं  अब  हमको
रात  की  ज़ात   पर    यक़ीन  नहीं

तोड़  दें  सब  तिलिस्म  हम  उनके
गो    ख़ुराफ़ात    पर   यक़ीन  नहीं

पैदलों   ने     क़िला    तबाह  किया
शाह  को    मात  पर   यक़ीन  नहीं

था     भरोसा     कभी    ख़ुदाई  पर
आज    हालात  पर    यक़ीन  नहीं

ख़ाक    कर  दें     ज़मीर  को   मेरे
उन   इनायात  पर   यक़ीन  नहीं !

                                           ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शोख़  जज़्बात: चंचल भावनाएं;   वफ़ाओं;आस्थाओं; बाज़  अवक़ात: कुछ अवसर/समय; तिलिस्म: मायाजाल; गो: यद्यपि; ख़ुराफ़ात: उद्दंडता, बदमाशी; ख़ुदाई: ईश्वरीय कृति; ख़ाक: राख़;  ज़मीर: स्वाभिमान; इनायात: कृपाएं। 

सोच का दायरा

रास्तों  की  शम'अ  बुझा  लीजे
आज    ईमान    आज़मा  लीजे

है  दिमाग़ी  फ़ितूर  हुस्न  अगर
हो  सके  तो   नज़र   हटा  लीजे

आप  वाईज़  हैं  कीजिए  इस्ला:
मैकदे     से     हमें    उठा  लीजे

ख़ौफ़  है  गर  तुम्हें  ज़माने  का
तो  हमें   ख़्वाब  में   बसा  लीजे

शायरी   की    दूकान  से    आगे
सोच  का    दायरा     बढ़ा  लीजे

दूसरों   के   लिए     दुआ  करके
रूह   को    सुर्ख़रू:     बना  लीजे !

                                            ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दिमाग़ी  फ़ितूर: मानसिक भ्रम; वाईज़: धर्मोपदेशक, विद्वान; इस्ला::परामर्श; मैकदे: मदिरालय; ख़ौफ़: भय;  सुर्ख़रू:: सफल। 

रविवार, 17 नवंबर 2013

हज़ारों दाग़ हैं ...!

हमारे  पास  है  ही  क्या  किसी  का  दिल  लुभाने  को
हज़ारों  दाग़  हैं     दिल  पे     ज़माने  से     छुपाने  को

न  जाने  क्या     समझ  बैठे   के:  हंगामा  मचा  डाला
ज़रा  सी  बात  थी     हमने  कहा  था     मुस्कुराने  को

न  पूछो    सामने  सब  के   हमारी  कैफ़ियत  क्या  है
सफ़ेदी  ही    बहुत  है    बज़्म  में    नज़रें  झुकाने  को

हमारी  नज़्म  पढ़  आते  हैं  वो:   अपने  तख़ल्लुस  से
नई    ईजाद     लाए      हैं    हमें     नीचा  दिखाने   को

हमीं   पे    चोट   करते   हैं     हमीं   से    रूठ   जाते  हैं
ज़रा   सा    पास   होता   तो    चले  आते    मनाने  को

अज़ीयतदेह  हैं   आमाल   अब     अहले-सियासत  के
ख़ुदा   का    नाम    लेते  हैं    जहां  को    बरग़लाने  को

हमारे   ही     पड़ोसी   हैं     खड़े   हैं    असलहे    ले  कर
हमारी   जान    लेने   को    तुम्हारा   घर    जलाने  को !

                                                                             ( 2013 )

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: कैफ़ियत: हाल-चाल; सफ़ेदी: वृद्धावस्था, सफ़ेद बाल; बज़्म: महफ़िल, गोष्ठी; नज़्म: गीत; तख़ल्लुस: कवि-नाम;  
ईजाद: आविष्कार;  पास: चिंता; अज़ीयतदेह: कष्टदायक; आमाल: आचरण;   अहले-सियासत: राजनैतिक लोग; जहां: संसार;   
बरग़लाने: भ्रमित करने; असलहे: शस्त्रास्त्र। 

शनिवार, 16 नवंबर 2013

नींद आए न तुझे !

क्या ख़बर  किसकी दुआ  लग  जाए
 यार    को      मर्ज़े-वफ़ा   लग  जाए

कौन  बचता  है    घाट  का   घर  का
जो   ज़माने   की    हवा    लग  जाए

शायरी    के      सिवा      पनाह  नहीं
जो  दिल  पे    संगे-जफ़ा   लग  जाए

हो   शिफ़ा    इश्क़   की     हरारत  से
शैख़  साहब    की     दवा   लग  जाए

जान     बच     जाए      बेगुनाहों  की
काश!  क़ातिल  को   हया  लग  जाए

वो:  तेरा  अक्स  लगेगा   जिस  दिन
चांद    को     रंगे-हिना      लग  जाए

नींद   आए   न     तुझे   भी    या  रब
क़ैस   की      आहो-सदा    लग  जाए !

                                            ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मर्ज़े-वफ़ा: निर्वाह का रोग; पनाह: शरण; संगे-जफ़ा: बे-ईमानी/अन्याय का पत्थर; शिफ़ा: आरोग्य;
हरारत: गर्मी, बुख़ार; शैख़: धर्म-भीरु, मद्यपान-विरोधी;हया: लज्जा; अक्स: प्रतिबिम्ब; रंगे-हिना: मेंहदी का रंग;
क़ैस: लैला का प्रेमी, मजनूं, प्रेमोन्मादी; आहो-सदा: चीख़-पुकार।