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गुरुवार, 7 नवंबर 2013

अल्लः मियां बुलाते हैं !


जब  भी  तूफ़ां  क़रीब  आते  हैं
नाख़ुदा    साथ    छोड़  जाते  हैं

देख  के  लोग  साथ-साथ  हमें
संखिया  खा  के  बैठ  जाते  हैं

ज़िल्लते-हिंद  हैं  सियासतदां
क़ौम  की  बोटियां   चबाते  हैं

गर  सियासत  हमें  पसंद  नहीं
मुद्द'आ    क्यूं   इसे    बनाते  हैं

वो:  अगर शाम तक न आ पाएं
रात  भर  ख़्वाब   छटपटाते  हैं

आ   रहें    वो:     ज़रा    मदीने  से
फिर  कोई  सिलसिला  जमाते  हैं

आपके  नाम  रहा    शौक़े-सुख़न
हमको  अल्लः  मियां  बुलाते  हैं !

                                            (  2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: नाख़ुदा: नाविक; संखिया: एक घातक विष; ज़िल्लते-हिंद: भारत के कलंक; क़ौम: राष्ट्र; मुद्द'आ: विवाद का विषय; 
सिलसिला: मिल बैठने की युक्ति;  शौक़े-सुख़न: रचना-कर्म। 




मंगलवार, 5 नवंबर 2013

आपका जामे-नज़र ...

जी    बड़ा   तेज़    ज़हर   पीते  हैं
आजकल    आठ  पहर    पीते  हैं

जब  कोई  ज़ख़्म  उभर  आता  है
भूल   के    अपनी    उम्र   पीते  हैं

जाम   उमरा   नहीं    छुआ  करते
ख़ूने-इंसान        मगर      पीते  हैं

जीत   के    आए   हैं     अंधेरों  को
जश्न   में     जामे-सहर     पीते  हैं

उज्र  क्यूं  हो  किसी  फ़रिश्ते  को
अपने  हिस्से  की  अगर  पीते  हैं

ईद    पे     आप     बग़लगीर  हुए
उस  इनायत  का   असर  पीते  हैं

तूर   पे    त'अर्रुफ़    हुआ   जबसे
आपका     जामे-नज़र     पीते  हैं  !

                                                 ( 2013 )

                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जाम: मदिरा-पात्र; उमरा: अमीर ( बहुव. ), संभ्रांत-जन; ख़ूने-इंसान: मनुष्य-रक्त; जामे-सहर: उष: काल के प्रकाश की मदिरा; उज्र: आपत्ति; फ़रिश्ते: देवदूत;  बग़लगीर: गले लगना;  इनायत: कृपा; तूर: अरब का एक पहाड़ जहां हज़रत मूसा अ. स. को ख़ुदा के प्रकाश की झलक मिली; त'अर्रुफ़: परिचय; जामे-नज़र: दृष्टि-रूपी मदिरा। 


रविवार, 3 नवंबर 2013

दुश्मने-चैनो-अमन

ख़्वाब  पलकों  का  वतन  छोड़  गए
सुर्ख़   आंखों  में     जलन  छोड़  गए

चार   पत्ते      हवा   से       क्या  टूटे
सारे    सुर्ख़ाब     चमन     छोड़  गए

ख़ूब   मोहसिन   हुए     मेरे   मेहमां
चंद    अंगुश्त    क़फ़न     छोड़  गए

ख़ार    दिल  से    निकल  गए   सारे
ज़िंदगी  भर  की   चुभन   छोड़  गए

हिंद  को      अज़्म      बख़्शने  वाले
दुश्मने-चैनो-अमन          छोड़  गए

ले      गए       रूह       आसमां  वाले
जिस्म   मिट्टी  में   दफ़्न  छोड़  गए

मीरो-ग़ालिब       हमारे      हिस्से  में
सिर्फ़      आज़ारे-सुख़न     छोड़  गए !

                                               ( 2013 )

                                         -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सुर्ख़: लाल; परिंद: पक्षी; मोहसिन: कृपालु-जन; चंद  अंगुश्ते-क़फ़न: चार अंगुल शवावरण; ख़ार: कांटे; अज़्म: महत्ता; 
दुश्मने-चैनो-अमन: सुख-शांति के शत्रु; रूह: आत्मा; आसमां वाले : परलोक-वासी, मृत्यु-दूत; जिस्म: शरीर; 
मीरो-ग़ालिब: हज़रात मीर तक़ी 'मीर' और मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू  के  महानतम शायर; आज़ारे-सुख़न: रचना-कर्म का रोग।

शनिवार, 2 नवंबर 2013

सौग़ाते-नूर !

एक      सौग़ाते-नूर     ले  आए
देखिए     क्या    हुज़ूर  ले  आए

तिफ़्ल  हमसे  उम्मीद  रखते  हैं
कुछ  न  कुछ  तो  ज़ुरूर  ले  आए

ज़िद  पे   आए  हैं   दुश्मने-तौबा
चश्म  भर  के    सुरूर    ले  आए

ख़ूब  ग़म  का    इलाज    ढूंढा  है
मयकदे   में     तुयूर     ले  आए

क्या  अदा  पाई  मोहसिने-जां  ने
दो-जहां   का    ग़ुरूर     ले  आए

शाह    सुनता  नहीं    ग़रीबों  की
लोग      आवाज़े-सूर     ले  आए

हम   फ़क़ीरों के  पास  है  भी  क्या
शायरी   का     शऊर     ले  आए  !

                                                       ( 2013 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सौग़ाते-नूर: प्रकाश का उपहार; हुज़ूर: स्वामी, ईश्वर; तिफ़्ल: बच्चे; दुश्मने-तौबा: शराब न पीने की प्रतिज्ञा के शत्रु;  
चश्म: आंख; सुरूर: नशा, मदिरा; मयकदा: मदिरालय; तुयूर: चहकने वाली चिड़िएं; मोहसिने-जां: प्राणों पर अनुग्रह करने वाला;  
दो-जहां: दोनों लोक, इहलोक-परलोक; ग़ुरूर: घमण्ड;  आवाज़े-सूर: दुंदुभि का स्वर; फ़क़ीर: संत; शऊर: शिष्टाचार।

शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

डूबेगा ज़माना !

तरब  से  शौक़  से  ज़िंदादिली  से
कभी  गुज़रो  मेरे  दिल  की  गली से

गरेबां  चाक  कर  लें  दिल  जला  दें
मिले  आराम  शायद   काहिली  से

हमारे     साथ      डूबेगा     ज़माना
करेगा  साज़िशें  गर  बुजदिली  से

बिगड़  जाए  न  बनती  बात  अपनी
ज़रा  कह  दो  निगाहे-आजिली  से

न  रोज़ी  का  ठिकाना  है  न  घर  का
जिए  जाते  हैं  बस  दरियादिली  से

न  जाने  कब  रुकें  मंहगाईयां  ये:
परेशां  हो  गए  सब  बेकली  से

हमें  उस  मोड़  तक  पहुंचा  न  देना
के:  दुनिया  छोड़  दें  हम  बेदिली  से

रहें  वो:  साथ  तूफ़ां  में  हमारे
गुज़ारिश  है  यही  मौला  अली  से !

                                                    ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तरब: प्रसन्नता; शौक़: रुचि; ज़िंदादिली: जीवंतता; गरेबां: गला; चाक करना: काटना; काहिली: अकर्मण्यता; साज़िशें: षड्यंत्र;  
गर: यदि; बुजदिली: कायरता; निगाहे-आजिली: जल्दबाज़ी करने वाली दृष्टि;रोज़ी: आजीविका;  दरियादिली: नदी-जैसा, उदार स्वभाव; 
बेकली: बेचैनी; गुज़ारिश: प्रार्थना; मौला  अली: हज़रत अली अ. स., इस्लाम के ख़लीफ़ा, एक मत से पहले और दूसरे मत से चौथे। 

गुरुवार, 31 अक्टूबर 2013

बंदगी का इम्तेहां

बड़े  सुकूं  से  मेरा  यार  दिलो-जां  मांगे
मगर  ये:  बात  न  हुई  के:  वो:  ईमां  मांगे

हमें  हंसी  न  आएगी  के:  जब  कोई  क़ासिद
पयामे-यार  से  पहले  कोई  निशां   मांगे

मेरी  परवाज़  पे  हंसते  हैं  जो  जहां  वाले
उन्हीं  से  आज  मेरा  अज़्म  आस्मां  मांगे

मेरे  ख़यालो-ओ-तसव्वुर  की  हद  नहीं  कोई
मेरा  वक़ार  कई  और  भी  जहां  मांगे

हमारे  इश्क़  की  तौहीन  और  क्या  होगी
ख़ुदा  हमीं  से  बंदगी  का  इम्तेहां  मांगे  !

                                                             ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सुकूं: शांति;   ईमां: आस्था; क़ासिद: पत्र-वाहक; पयामे-यार: प्रेमी का संदेश, निशां: पहचान-चिह्न; परवाज़: उड़ान; जहां: दुनिया; अज़्म: अहम्मन्यता; आस्मां:आकाश; विचार और कल्पना-शक्ति; हद: सीमा; वक़ार: प्रतिष्ठा; जहां: ब्रह्माण्ड; तौहीन: अपमान; बंदगी: भक्ति।

बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

ख़ाना-ख़राब की बातें

छोड़िए  भी    किताब    की  बातें
ये:     गुनाहो-सवाब     की   बातें

आप  जो  बिन  पिए  बहकते  हैं
क्या  सुनें  हम  जनाब  की  बातें

उलझे-उलझे   सवाल  हैं   उनके
हम  कहें  क्या  जवाब  की  बातें

भूल  ही  जाएं  तो  बुरा  क्या  है
सूरतों  की    हिजाब    की  बातें

मुद्द'आ  मत  बनाइए  दिल  का
एक    ख़ाना-ख़राब     की  बातें

कोई  कम्बख़्त   ना  करे  हमसे
मुफ़लिसी  में   शराब  की  बातें

बेशक़ीमत  है    तोहफ़:-ए-यारी
छोड़    दीजे    हिसाब  की  बातें

पी   रहे   हैं   शराब    आंखों  से
सोचते  हैं     अज़ाब    की  बातें  !

                                          ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: किताब: धर्म-ग्रंथ, क़ुर'आन;  गुनाहो-सवाब: पाप-पुण्य;  हिजाब: पर्दा, मुखावरण; मुद्द'आ: बिंदु, विषय;  ख़ाना-ख़राब: गृह-त्यागी; कम्बख़्त: अभागा; मुफ़लिसी: विपन्नता; बेशक़ीमत: अति-मूल्यवान; तोहफ़:-ए-यारी: मित्रता का उपहार;  अज़ाब: पाप का फल।