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शनिवार, 2 नवंबर 2013

सौग़ाते-नूर !

एक      सौग़ाते-नूर     ले  आए
देखिए     क्या    हुज़ूर  ले  आए

तिफ़्ल  हमसे  उम्मीद  रखते  हैं
कुछ  न  कुछ  तो  ज़ुरूर  ले  आए

ज़िद  पे   आए  हैं   दुश्मने-तौबा
चश्म  भर  के    सुरूर    ले  आए

ख़ूब  ग़म  का    इलाज    ढूंढा  है
मयकदे   में     तुयूर     ले  आए

क्या  अदा  पाई  मोहसिने-जां  ने
दो-जहां   का    ग़ुरूर     ले  आए

शाह    सुनता  नहीं    ग़रीबों  की
लोग      आवाज़े-सूर     ले  आए

हम   फ़क़ीरों के  पास  है  भी  क्या
शायरी   का     शऊर     ले  आए  !

                                                       ( 2013 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सौग़ाते-नूर: प्रकाश का उपहार; हुज़ूर: स्वामी, ईश्वर; तिफ़्ल: बच्चे; दुश्मने-तौबा: शराब न पीने की प्रतिज्ञा के शत्रु;  
चश्म: आंख; सुरूर: नशा, मदिरा; मयकदा: मदिरालय; तुयूर: चहकने वाली चिड़िएं; मोहसिने-जां: प्राणों पर अनुग्रह करने वाला;  
दो-जहां: दोनों लोक, इहलोक-परलोक; ग़ुरूर: घमण्ड;  आवाज़े-सूर: दुंदुभि का स्वर; फ़क़ीर: संत; शऊर: शिष्टाचार।

शुक्रवार, 1 नवंबर 2013

डूबेगा ज़माना !

तरब  से  शौक़  से  ज़िंदादिली  से
कभी  गुज़रो  मेरे  दिल  की  गली से

गरेबां  चाक  कर  लें  दिल  जला  दें
मिले  आराम  शायद   काहिली  से

हमारे     साथ      डूबेगा     ज़माना
करेगा  साज़िशें  गर  बुजदिली  से

बिगड़  जाए  न  बनती  बात  अपनी
ज़रा  कह  दो  निगाहे-आजिली  से

न  रोज़ी  का  ठिकाना  है  न  घर  का
जिए  जाते  हैं  बस  दरियादिली  से

न  जाने  कब  रुकें  मंहगाईयां  ये:
परेशां  हो  गए  सब  बेकली  से

हमें  उस  मोड़  तक  पहुंचा  न  देना
के:  दुनिया  छोड़  दें  हम  बेदिली  से

रहें  वो:  साथ  तूफ़ां  में  हमारे
गुज़ारिश  है  यही  मौला  अली  से !

                                                    ( 2013 )

                                               -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तरब: प्रसन्नता; शौक़: रुचि; ज़िंदादिली: जीवंतता; गरेबां: गला; चाक करना: काटना; काहिली: अकर्मण्यता; साज़िशें: षड्यंत्र;  
गर: यदि; बुजदिली: कायरता; निगाहे-आजिली: जल्दबाज़ी करने वाली दृष्टि;रोज़ी: आजीविका;  दरियादिली: नदी-जैसा, उदार स्वभाव; 
बेकली: बेचैनी; गुज़ारिश: प्रार्थना; मौला  अली: हज़रत अली अ. स., इस्लाम के ख़लीफ़ा, एक मत से पहले और दूसरे मत से चौथे। 

गुरुवार, 31 अक्टूबर 2013

बंदगी का इम्तेहां

बड़े  सुकूं  से  मेरा  यार  दिलो-जां  मांगे
मगर  ये:  बात  न  हुई  के:  वो:  ईमां  मांगे

हमें  हंसी  न  आएगी  के:  जब  कोई  क़ासिद
पयामे-यार  से  पहले  कोई  निशां   मांगे

मेरी  परवाज़  पे  हंसते  हैं  जो  जहां  वाले
उन्हीं  से  आज  मेरा  अज़्म  आस्मां  मांगे

मेरे  ख़यालो-ओ-तसव्वुर  की  हद  नहीं  कोई
मेरा  वक़ार  कई  और  भी  जहां  मांगे

हमारे  इश्क़  की  तौहीन  और  क्या  होगी
ख़ुदा  हमीं  से  बंदगी  का  इम्तेहां  मांगे  !

                                                             ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सुकूं: शांति;   ईमां: आस्था; क़ासिद: पत्र-वाहक; पयामे-यार: प्रेमी का संदेश, निशां: पहचान-चिह्न; परवाज़: उड़ान; जहां: दुनिया; अज़्म: अहम्मन्यता; आस्मां:आकाश; विचार और कल्पना-शक्ति; हद: सीमा; वक़ार: प्रतिष्ठा; जहां: ब्रह्माण्ड; तौहीन: अपमान; बंदगी: भक्ति।

बुधवार, 30 अक्टूबर 2013

ख़ाना-ख़राब की बातें

छोड़िए  भी    किताब    की  बातें
ये:     गुनाहो-सवाब     की   बातें

आप  जो  बिन  पिए  बहकते  हैं
क्या  सुनें  हम  जनाब  की  बातें

उलझे-उलझे   सवाल  हैं   उनके
हम  कहें  क्या  जवाब  की  बातें

भूल  ही  जाएं  तो  बुरा  क्या  है
सूरतों  की    हिजाब    की  बातें

मुद्द'आ  मत  बनाइए  दिल  का
एक    ख़ाना-ख़राब     की  बातें

कोई  कम्बख़्त   ना  करे  हमसे
मुफ़लिसी  में   शराब  की  बातें

बेशक़ीमत  है    तोहफ़:-ए-यारी
छोड़    दीजे    हिसाब  की  बातें

पी   रहे   हैं   शराब    आंखों  से
सोचते  हैं     अज़ाब    की  बातें  !

                                          ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: किताब: धर्म-ग्रंथ, क़ुर'आन;  गुनाहो-सवाब: पाप-पुण्य;  हिजाब: पर्दा, मुखावरण; मुद्द'आ: बिंदु, विषय;  ख़ाना-ख़राब: गृह-त्यागी; कम्बख़्त: अभागा; मुफ़लिसी: विपन्नता; बेशक़ीमत: अति-मूल्यवान; तोहफ़:-ए-यारी: मित्रता का उपहार;  अज़ाब: पाप का फल। 

मंगलवार, 29 अक्टूबर 2013

पहली सालगिरह !

आदाब अर्ज़, दोस्तों !
आज आपका 'साझा आसमान' अपनी पहली सालगिरह मना रहा है।
पिछले साल ठीक इसी दिन, यानी 29 अक्टूबर को हमने-यानी आपका यह ख़ादिम और भाई जनाब शरद कोकास ने दुर्ग में 'साझा आसमान' की शुरुआत की थी। इस एक साल के दरमियान हमने तक़रीबन 275 ग़ज़लें क़ारीन के सामने पेश कीं जिनमें  225 एकदम नई ग़ज़लें हैं ! हमें इस दौरान दुनिया के तक़रीबन 190 मुमालिक के क़ारीन का भरपूर प्यार मिला।
'साझा आसमान' जैसे संजीदा शायरी पेश करने वाले ब्लॉग के लिए यह एक बेहद अहम् मक़ाम और बड़ी कामयाबी ही मानी जाएगी। ज़ाहिर है कि हम ख़ुश हैं, हालांकि हम यह भी जानते हैं कि हम इससे कहीं बेहतर काम कर सकते थे…!
इस कामयाबी का सेहरा सबसे पहले आप सब क़ारीन के सर जाता है। यह आप सब के उन्सो-ख़ुलूस और त'अव्वुन का ही नतीजा है कि आज हम यहां तक आ सके।
शुक्रिया, दोस्तों !
इस मौक़े पर मैं ख़ास तौर पर जिन साथियों का शुक्रिया अदा करना चाहता हूं, उनमें अव्वल हैं मेरी शरीक़े-हयात मोहतरिमा कविता जी, जिन्होंने मेरी चोरी हो चुकी क़रीब 150 ग़ज़लें दोबारा ढूंढ निकालीं; और दूसरे हैं भाई जनाब शरद कोकास, जिन्होंने 'साझा आसमान' का ख़ाका तैयार किया। वक़्त-ज़रूरत भाई जनाब प्रमोद ताम्बट और भाई पल्लव आज़ाद ने भी काफ़ी मदद की। इन सभी साथियों का तहे-दिल से शुक्रिया !
इस मौक़े पर ज़ाहिर है, एक नई ग़ज़ल बनती ही है, वह पेश कर रहा हूं।
अर्ज़ किया है,

             रहेंगे  याद  हम


देख  लो    पीछा  छुड़ा  कर    देख  लो
दो  क़दम  भी   दूर  जा  कर  देख  लो

अब  कहां  वो:  दोस्त  जो  जां  दे  सकें
दांव  ये:  भी   आज़मा  कर   देख  लो

यूं   हमें    उम्मीद    ख़ुद  से  ही  नहीं
हो  सके  तो  तुम  निभा  कर  देख  लो

ख़ाक   हो  के  भी    रहेंगे    याद  हम 
नक़्शे-पा  दिल  से  मिटा  कर  देख  लो

है  मु'अय्यन   मौत  जब  भी  आएगी
एक  पल   आगे   बढ़ा  कर    देख  लो

लाख     बेहतर  है     हमारा  आशियां 
ख़ुल्द  में    फेरा  लगा  कर    देख  लो

वो:     जहां  चाहे     अयां   हो  जाएगा
मयकदे  में  सर  झुका  कर  देख  लो !

                                                     ( 29/10/2013 )

                                                   - सुरेश  स्वप्निल  

शब्दार्थ: ख़ाक: धूल;  नक़्शे-पा: पग-चिह्न;   मु'अय्यन: सुनिश्चित; आशियां: आवास, घर;  ख़ुल्द: ईश्वर का घर, स्वर्ग;   अयां: प्रकट; मयकदा: मदिरालय।     

बुधवार, 23 अक्टूबर 2013

ख़ेराजे-अकीदत: मन्ना दा

                                                      ख़ेराजे-अकीदत: मन्ना  दा

हिंदी फिल्मों के अज़ीम-तरीन गुलूकार जनाब प्रबोध चन्द्र डे उर्फ़ मन्ना डे, अपने करोड़ों मुरीदों के दिल में मेयारी मक़ाम रखने वाले और हम सब के अज़ीज़ फ़नकार मन्ना दा आज अल-फ़जर दुनिया-ए-फ़ानी को अलविदा कह गए…। 'साझा आसमान' उस लाजवाब फ़नकार और लासानी इन्सान को तहे-दिल से अपनी ख़ेराजे-अक़ीदत पेश करता है:


                                       ग़ुरुब  हुआ  वो:  शम्से-मौसिक़ी  अल-सुब्हा 

                                      जिसकी  आवाज़  थी  अज़ां-ए-फ़जर  के मानिंद!


अलविदा,  मन्ना  दा ! अल्लाह आपकी रूह को अपने क़रीब जगह अता करे…. ! आमीन !


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ख़्वाब पर ऐतबार...!

वो:  हक़ीक़त  से  प्यार  करते  हैं
ख़्वाब  पर     ऐतबार    करते  हैं

हो  ज़रूरत    तो   जान  ले  जाएं
हम    ख़ुशी  से   उधार  करते  हैं

हमपे  दावा   न   कीजिए  साहब
आप  आशिक़    हज़ार  करते  हैं

ख़्वाब  आंखों  से  दूर  ही  बेहतर
रूह   को     बेक़रार       करते  हैं

डालिए  ख़ाक  उनपे  जो  शो'अरा
दर्द    का     इश्तिहार     करते  हैं

चांद  से  उनको  दुश्मनी  क्या  है
शबो-शब     शर्मसार     करते  हैं

क़त्ल  कीजे     कभी    क़रीने  से
क्यूं  ज़िबह    बार-बार   करते  हैं

असलहे    आपको    मुबारक  हों
हम  नज़र     धारदार    करते  हैं

हममें  कुछ  है  के:  आसमां  वाले
दोस्तों   में     शुमार     करते  हैं  !

                                                   ( 2013 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ऐतबार: विश्वास; बेक़रार: बेचैन, विचलित;  ख़ाक: धूल, भस्म; शो'अरा: शायर का बहुवचन;  इश्तिहार: विज्ञापन; शबो-शब: निशा-प्रतिनिशा; शर्मसार: लज्जित;  क़रीने से: शिष्टाचार पूर्वक;  ज़िबह: छुरी फेरना; असलहे: शस्त्रास्त्र; आसमां वाले: परलोक वासी, देवता-गण; शुमार: गणना।