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सोमवार, 14 अक्टूबर 2013

जोश का इम्तेहान...

जोश  का  इम्तेहान  हो   जाए
आज    ऊंची   उड़ान  हो  जाए

वो:  अगर  मेहेरबान  हो  जाए
हर  शहर  हमज़ुबान  हो  जाए

काश  गुज़रे  चमन  से  बादे-सबा
ग़ुंच:-ए-दिल   जवान  हो  जाए

खोल  दें  दिल  कहीं  सभी  पे  हम
घर  बुतों  की  दुकान  हो  जाए

बर्फ़  पिघले  ज़रा  निगाहों  की
हर   तमन्ना  बयान  हो  जाए

एक  परवाज़  चाहिए  दिल  से
और  सर  आसमान  हो  जाए !

                                                   ( 2013 )

                                             -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:

रविवार, 13 अक्टूबर 2013

करिश्मा-ए-इश्क़ ...

आसमां  यूं    भी   तेरे  क़र्ज़  उतारे  हमने
लहू-ए-दिल  से  कई  हुस्न  संवारे  हमने    

कहेगी  वक़्ते-अज़ल  रूह  शुक्रिया  तुझको
के:  ये:    लम्हात    तेरे  संग  गुज़ारे  हमने

जहां-जहां  से  भी  गुज़रे  तेरी  दुआओं  से
बुझा  दिए  हैं     नफ़रतों  के  शरारे  हमने

हमारे   हक़    में  फ़रिश्ते  गवाहियाँ  देंगे
दिए  उन्हें  भी  बाज़  वक़्त  सहारे  हमने

ये: करिश्मा-ए-इश्क़  है  के: सामने  हो  के
बदल  दिए  हैं   बुरे  वक़्त  के  धारे  हमने

किया  करें  वो:  शौक़  से  हिजाब  के  दावे
दरख़्ते-तूर  पे      देखे  हैं     नज़ारे  हमने !      

                                                            ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आसमां: परलोक, विधाता; लहू-ए-दिल: ह्रदय का रक्त; हुस्न: सौन्दर्य; वक़्ते-अज़ल: मृत्यु के समय; रूह: आत्मा; 
लम्हात: क्षण ( बहुव.); शरारे: चिंगारियां; फ़रिश्ते:ईश्वर के दूत;  बाज़  वक़्त: समय पड़ने पर, अनेक बार;  करिश्मा-ए-इश्क़: प्रेम का चमत्कार; हिजाब: आवरण में रहना, आवरण में रहने के नियम मानना; दरख़्ते-तूर: कोहे-तूर पर स्थित वह वृक्ष, जिसके पीछे 
हज़रत मूसा अ.स. ने ख़ुदा के रूप ( प्रकाश ) की  एक झलक देखी थी; नज़ारे: दर्शन,  दृश्य।

शनिवार, 12 अक्टूबर 2013

घर सजाओ कभी...!

सर  उठाओ       कभी    मेरी  ख़ातिर
मुस्कुराओ        कभी    मेरी  ख़ातिर

ज़िंदगी         बेमज़ा       नहीं  इतनी
दिल  लगाओ   कभी     मेरी  ख़ातिर

रास्तों   में          बहार      बिखरी  है
देख  आओ   कभी        मेरी  ख़ातिर

रंजो-ग़म     दिल  को    तोड़  देते  हैं
भूल  जाओ        कभी  मेरी  ख़ातिर

है  तरन्नुम     तुम्हारी     आँखों  में
गुनगुनाओ        कभी  मेरी  ख़ातिर

लौट  जाएं     न    बाम  से  ख़ुशियाँ
घर  सजाओ      कभी  मेरी  ख़ातिर

अश्क    दिल    का     ग़ुरूर  होते  हैं
मत  बहाओ      कभी  मेरी  ख़ातिर

तोड़  कर       बेबसी  की      दीवारें
ज़िद  दिखाओ  कभी  मेरी  ख़ातिर !

                                                  ( 2013 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: 

शुक्रवार, 11 अक्टूबर 2013

आशिक़ी की उमर...

वक़्त    गुज़रा    सहर     नहीं  आई
आज     अच्छी   ख़बर    नहीं  आई

क़ैद          सरमाएदार      के  हाथों
रौशनी      लौट    कर     नहीं  आई

रूठ  कर मुफ़लिसी  से  निकली थी
ज़िन्दगी   फिर   नज़र   नहीं  आई

हुस्ने-बेताब      सब्र  तो        कीजे
आशिक़ी    की    उमर    नहीं  आई

शब  ने  मेरे  ख़िलाफ़  साज़िश  की
नींद    कल    रात  भर   नहीं  आई

ख़ुशनसीबी    प'   शेर  क्या  कहते
बात        ज़ेरे-बहर        नहीं  आई

ख़ुल्द  में    तश्न:काम  हैं    ग़ालिब
कोई    उम्मीद    बर    नहीं  आई !

                                          ( 2013 )

                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सहर: उष:काल; सरमाएदार: पूंजीपति; मुफ़लिसी: निर्धनता; हुस्ने-बेताब: अधीर सौन्दर्य; सब्र: धैर्य; 
प्रेम-प्रसंग; साज़िश: षड्यंत्र; ख़ुशनसीबी: सौभाग्य; ज़ेरे-बहर: छन्द में; ख़ुल्द: जन्नत, स्वर्ग;   तश्न:काम: प्यासे;
ग़ालिब: उर्दू शायरी के पीराने-पीर, हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, विजेता; बर: पूर्ण।


गुरुवार, 10 अक्टूबर 2013

शाह बदकार है...!

दोस्त  समझे    न   आशना  समझे
आप  हमको  न  जाने  क्या  समझे

मुफ़लिसी   का    क़ुसूर    है     सारा
लोग    नाहक़      हमें    बुरा  समझे

वक़्त   पड़ते    ही    चल  दिए  सारे
दोस्तों  को     मेरे    ख़ुदा     समझे

तिफ़्ल   वो:   दूर   तलक   जाता  है
जो  नसीहत  को   भी  दुआ  समझे

शाह      बदकार    है      फ़राउन  है
वक़्त  देखे    न   मुद्द'आ    समझे

क्या  कहें  उस   निज़ामे-शाही  को
आप-हम  को  महज़  गदा   समझे

ये:  ख़ुदा  के   ख़िलाफ़   साज़िश  है
कोई  हमको  अगर   ख़ुदा  समझे !

                                             ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

 शब्दार्थ: आशना: साथी, प्रेमी; मुफ़लिसी: निर्धनता; क़ुसूर: दोष; नाहक: अकारण, निरर्थक; तिफ़्ल: बच्चा; नसीहत: समझाइश; 
दुआ: शुभकामना; बदकार: बुरे काम करने वाला; फ़राउन: मृत्यु के बाद जीवित होने में विश्वास करने वाले मिस्र के निर्दयी शासक, 
जिनकी क़ब्र में उनके सेवकों को उनके शव के साथ जीवित दफ़ना दिया जाता था; महज़: मात्र; गदा: भिखारी।




बुधवार, 9 अक्टूबर 2013

'... ख़ुदा-ख़ुदा कहते !

हिज्र  में        दोस्तों से        क्या  कहते
चल     बसे     बस      ख़ुदा-ख़ुदा  कहते

उम्र   भर        को    मुरीद       कर  लेते
तुमपे  हम   सिर्फ़   इक  क़त'आ  कहते
       
हम    वफ़ा    का     यक़ीन     कर  लेते
तुम         सरे-बज़्म       आशना  कहते

दुश्मनों      में        शुमार       हो  जाते
जो     कभी     उनको      बेवफ़ा  कहते

सी  लिए   लब    तो   रह  गई  इज़्ज़त
लोग   वरना     न   जाने    क्या  कहते

मंज़िलें      मुंतज़िर      हैं      मुद्दत  से
हम   ही    डरते   हैं     अलविदा  कहते

हां,   शिकायत    ख़ुदा  से     कर  आए
ज़ख़्म  को  किस  तरह  शिफ़ा  कहते !'

                                                     ( 2013 )
                               
                                               -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: हिज्र: वियोग; मुरीद: प्रशंसक; क़त'आ: किसी ग़ज़ल के दो अश'आर;  सरे-बज़्म: भरी सभा में, सबके बीच; 
आशना: मित्र,साथी,प्रेमी;  शुमार: गिना जाना; मुंतज़िर: प्रतीक्षारत; शिफ़ा: आरोग्य।  


मंगलवार, 8 अक्टूबर 2013

कारवां नहीं मिलते !

तेरे  शहर  में     ख़ुदा  के    निशां    नहीं  मिलते
उफ़क़   तलक   पे    ज़मीं-आस्मां  नहीं  मिलते

नज़र  की  बात  है   कम्बख़्त  जहां   जा  अटके
दिलों   को     लूटने   वाले     कहां   नहीं  मिलते

न  दिल  में  सब्र  न  नज़रों  में  कहीं  शर्म-हया
हवस  के  दौर  में   दिल  के  बयां  नहीं  मिलते

तेरे   शहर   में    रह  के   जान  लिया  है  हमने
यहां      वफ़ापरस्त      नौजवां      नहीं  मिलते

सियासतों   ने     दिलों    में   दरार     वो:  डाली
मुसीबतों    के    वक़्त    हमज़ुबां  नहीं  मिलते

कली-कली  है   अश्कबार  अपनी  क़िस्मत  पे
सरे-बहार       उन्हें      बाग़बां      नहीं  मिलते

कठिन  डगर  है  किसी  हमसफ़र  का  साथ  नहीं
रहे-ख़ुदा    में      कभी      कारवां     नहीं  मिलते !

                                                                  ( 2013 )

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: उफ़क़: क्षितिज; हवस: काम-वासना; हया: लज्जा; वफ़ापरस्त:निर्वाह करने वाले; हमज़ुबां: सह-भाषी, अपनी भाषा बोलने वाले; अश्कबार: आंसू बहाती हुई; सरे-बहार: बसंत के मध्य; बाग़बां: माली; हमसफ़र: सहयात्री; ईश्वरका मार्ग; कारवां: यात्री-समूह !