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रविवार, 13 अक्तूबर 2013

करिश्मा-ए-इश्क़ ...

आसमां  यूं    भी   तेरे  क़र्ज़  उतारे  हमने
लहू-ए-दिल  से  कई  हुस्न  संवारे  हमने    

कहेगी  वक़्ते-अज़ल  रूह  शुक्रिया  तुझको
के:  ये:    लम्हात    तेरे  संग  गुज़ारे  हमने

जहां-जहां  से  भी  गुज़रे  तेरी  दुआओं  से
बुझा  दिए  हैं     नफ़रतों  के  शरारे  हमने

हमारे   हक़    में  फ़रिश्ते  गवाहियाँ  देंगे
दिए  उन्हें  भी  बाज़  वक़्त  सहारे  हमने

ये: करिश्मा-ए-इश्क़  है  के: सामने  हो  के
बदल  दिए  हैं   बुरे  वक़्त  के  धारे  हमने

किया  करें  वो:  शौक़  से  हिजाब  के  दावे
दरख़्ते-तूर  पे      देखे  हैं     नज़ारे  हमने !      

                                                            ( 2013 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आसमां: परलोक, विधाता; लहू-ए-दिल: ह्रदय का रक्त; हुस्न: सौन्दर्य; वक़्ते-अज़ल: मृत्यु के समय; रूह: आत्मा; 
लम्हात: क्षण ( बहुव.); शरारे: चिंगारियां; फ़रिश्ते:ईश्वर के दूत;  बाज़  वक़्त: समय पड़ने पर, अनेक बार;  करिश्मा-ए-इश्क़: प्रेम का चमत्कार; हिजाब: आवरण में रहना, आवरण में रहने के नियम मानना; दरख़्ते-तूर: कोहे-तूर पर स्थित वह वृक्ष, जिसके पीछे 
हज़रत मूसा अ.स. ने ख़ुदा के रूप ( प्रकाश ) की  एक झलक देखी थी; नज़ारे: दर्शन,  दृश्य।

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