तेरे शहर में ख़ुदा के निशां नहीं मिलते
उफ़क़ तलक पे ज़मीं-आस्मां नहीं मिलते
नज़र की बात है कम्बख़्त जहां जा अटके
दिलों को लूटने वाले कहां नहीं मिलते
न दिल में सब्र न नज़रों में कहीं शर्म-हया
हवस के दौर में दिल के बयां नहीं मिलते
तेरे शहर में रह के जान लिया है हमने
यहां वफ़ापरस्त नौजवां नहीं मिलते
सियासतों ने दिलों में दरार वो: डाली
मुसीबतों के वक़्त हमज़ुबां नहीं मिलते
कली-कली है अश्कबार अपनी क़िस्मत पे
सरे-बहार उन्हें बाग़बां नहीं मिलते
कठिन डगर है किसी हमसफ़र का साथ नहीं
रहे-ख़ुदा में कभी कारवां नहीं मिलते !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: उफ़क़: क्षितिज; हवस: काम-वासना; हया: लज्जा; वफ़ापरस्त:निर्वाह करने वाले; हमज़ुबां: सह-भाषी, अपनी भाषा बोलने वाले; अश्कबार: आंसू बहाती हुई; सरे-बहार: बसंत के मध्य; बाग़बां: माली; हमसफ़र: सहयात्री; ईश्वरका मार्ग; कारवां: यात्री-समूह !
उफ़क़ तलक पे ज़मीं-आस्मां नहीं मिलते
नज़र की बात है कम्बख़्त जहां जा अटके
दिलों को लूटने वाले कहां नहीं मिलते
न दिल में सब्र न नज़रों में कहीं शर्म-हया
हवस के दौर में दिल के बयां नहीं मिलते
तेरे शहर में रह के जान लिया है हमने
यहां वफ़ापरस्त नौजवां नहीं मिलते
सियासतों ने दिलों में दरार वो: डाली
मुसीबतों के वक़्त हमज़ुबां नहीं मिलते
कली-कली है अश्कबार अपनी क़िस्मत पे
सरे-बहार उन्हें बाग़बां नहीं मिलते
कठिन डगर है किसी हमसफ़र का साथ नहीं
रहे-ख़ुदा में कभी कारवां नहीं मिलते !
( 2013 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: उफ़क़: क्षितिज; हवस: काम-वासना; हया: लज्जा; वफ़ापरस्त:निर्वाह करने वाले; हमज़ुबां: सह-भाषी, अपनी भाषा बोलने वाले; अश्कबार: आंसू बहाती हुई; सरे-बहार: बसंत के मध्य; बाग़बां: माली; हमसफ़र: सहयात्री; ईश्वरका मार्ग; कारवां: यात्री-समूह !
बेहतरीन ग़ज़ल... वाह.. ग्रैंड सैल्यूट ...
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