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मंगलवार, 8 अक्टूबर 2013

कारवां नहीं मिलते !

तेरे  शहर  में     ख़ुदा  के    निशां    नहीं  मिलते
उफ़क़   तलक   पे    ज़मीं-आस्मां  नहीं  मिलते

नज़र  की  बात  है   कम्बख़्त  जहां   जा  अटके
दिलों   को     लूटने   वाले     कहां   नहीं  मिलते

न  दिल  में  सब्र  न  नज़रों  में  कहीं  शर्म-हया
हवस  के  दौर  में   दिल  के  बयां  नहीं  मिलते

तेरे   शहर   में    रह  के   जान  लिया  है  हमने
यहां      वफ़ापरस्त      नौजवां      नहीं  मिलते

सियासतों   ने     दिलों    में   दरार     वो:  डाली
मुसीबतों    के    वक़्त    हमज़ुबां  नहीं  मिलते

कली-कली  है   अश्कबार  अपनी  क़िस्मत  पे
सरे-बहार       उन्हें      बाग़बां      नहीं  मिलते

कठिन  डगर  है  किसी  हमसफ़र  का  साथ  नहीं
रहे-ख़ुदा    में      कभी      कारवां     नहीं  मिलते !

                                                                  ( 2013 )

                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: उफ़क़: क्षितिज; हवस: काम-वासना; हया: लज्जा; वफ़ापरस्त:निर्वाह करने वाले; हमज़ुबां: सह-भाषी, अपनी भाषा बोलने वाले; अश्कबार: आंसू बहाती हुई; सरे-बहार: बसंत के मध्य; बाग़बां: माली; हमसफ़र: सहयात्री; ईश्वरका मार्ग; कारवां: यात्री-समूह !


सोमवार, 7 अक्टूबर 2013

ख़्वाबीदा उर्फ़ रखते हैं

मरहले     रास्ता      नहीं  होते
मंज़िलों  का    पता  नहीं  होते

मालो-ज़र  से  जिन्हें  मुहब्बत  है
वो:      हबीबे-ख़ुदा   नहीं  होते

मुस्कुराना    अगर     नहीं  आता
तुम   मेरा    मर्तबा    नहीं  होते

काश !  इस्लाह  आप  सुनते  तो
तंज़  का     मुद्द'आ     नहीं  होते

आप  सज्दा  न  कीजिए  उनको
आदमी       देवता      नहीं  होते

अश्क  ज़ाया  न  कीजिए  अपने
ये:    ग़मों  की  दवा   नहीं  होते

वो:  जो  ख़्वाबीदा  उर्फ़  रखते  हैं
ख़्वाब    उनसे   जुदा  नहीं  होते !

                                          ( 2013 )

                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मरहले: पड़ाव; मालो-ज़र: धन-दौलत; हबीबे-ख़ुदा: ख़ुदा के प्रिय, पीर; मर्तबा: लक्ष्य, प्रतिष्ठा;  इस्लाह: सुझाव; तंज़: व्यंग; मुद्द'आ: आस्पद, विषय; सज्दा: सिर झुका कर प्रणाम करना; ज़ाया: व्यर्थ;  ख़्वाबीदा: स्वप्निल; उर्फ़: उपनाम !

रविवार, 6 अक्टूबर 2013

दीवाने हम हुए...!

जन्नत  से  लौट  आए  तेरे  एहतराम  में
सौग़ाते-शबे-वस्ल  मिले  अब  इनाम  में

इस  दौरे-मुफ़लिसी  में  आ  रहे  हैं  वो:  मेहमां
दीवाने    हम   हुए   हैं      इसी    इंतज़ाम  में

तौहीने-इश्क़    क्यूं  न   इसे  मानिए  जनाब
जो  मुस्कुरा  रहे  हैं  आप  जवाबे-सलाम  में

अब  वो:  भी  समझ  जाएं  के:  हम  दर-बदर  नहीं
भेजे  हैं  गुल    हमें  भी   किसी  ने  पयाम  में

ग़ाफ़िल  है  शाहे-हिन्द  जिसे  ये:  ख़बर  नहीं
दस्तार    तार-तार    है    उसकी   अवाम  में

उस  शाह  को  रैयत  पे  हुक़ूमत  का  हक़  नहीं
मरते  हों  तिफ़्ल  भूख  से  जिसके  निज़ाम  में

इस  दारे-सियासत  की  हक़ीक़त  है  बस  यही
'उरियां   खड़े  हुए   हैं    सभी    इस  हमाम  में !

                                                              ( 2013 )

                                                       -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:  एहतराम: सम्मान; सौग़ाते-शबे-वस्ल: मिलन-निशा का उपहार; दौरे-मुफ़लिसी: निर्धनता-चक्र; तौहीने-इश्क़: प्रेम का अपमान; पयाम: प्रेम-सन्देश; ग़ाफ़िल: दिग्भ्रमित; दस्तार: पगडी; अवाम:जन-सामान्य; रैयत: शाषित; तिफ़्ल: शिशु; निज़ाम: शासन-व्यवस्था; दारे-सियासत: राजनैतिक संसद; हक़ीक़त: वास्तविकता; 'उरियां: निर्वस्त्र; हमाम: सार्वजनिक स्नानागार !  

                       






शनिवार, 5 अक्टूबर 2013

ख़ाक की अमानत

दिल्लगी      भूल    जाइए  साहब
दिल  लगा  के    दिखाइए  साहब

शे'र    यूं  ही    नहीं  हुआ  करता
कोई     सदमा     उठाइए  साहब

चश्मे-नम    सुर्ख़   हुई    जाती  है
और     कितना    सताइए  साहब

जिस्मो-दिल  ख़ाक की  अमानत हैं
रू:   से    रिश्ता     बनाइए  साहब

हम  समन्दर-सा   ज़र्फ़  रखते  हैं
शौक़  से      डूब      जाइए  साहब

ये:  फ़क़ीरी  है    घर    जला  देगी
सोच  कर    पास    आइए  साहब

उम्र     बीती  है    बुतपरस्ती  में
ख़ाक       ईमां    बचाइए  साहब !

                                            ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: दिल्लगी: हास-परिहास, विनोद; सदमा: दु:ख का आघात; चश्मे-नम: भीगी आंख; सुर्ख़: रक्तिम; जिस्मो-दिल: शरीर और  मन; ख़ाक: मिट्टी, धूल; अमानत: धरोहर; रू: : रूह, आत्मा;  ज़र्फ़: गहराई; फ़क़ीरी: वैराग्य; बुतपरस्ती: मूर्त्ति-पूजा, मानवीय सौन्दर्य की पूजा; ईमां: ईश्वर में आस्था !   

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2013

पांव फिसला अगर...

टूट  जाए  न  दिल  दिल्लगी  में  कहीं
आप  संजीदा  हों    ज़िंदगी    में  कहीं

हमको  ख़ुद से ये: उम्मीद हर्गिज़ न थी
घर   लुटा  आए    बाद:कशी    में  कहीं

हर  शबे-वस्ल  में  इक  नसीहत  भी  है
दर्द  भी   है  निहां    आशिक़ी   में  कहीं

एक  से  एक  दाना  हैं  इस  बज़्म  में
राज़  ज़ाहिर  न  हो  ख़ामुशी  में  कहीं

आज  हैं  हम  यहां  कल  गुज़र  जाएंगे
आ  मिलेंगे  कभी  ख़्वाब  में  ही  कहीं

मांगते  हैं    ख़ुदा  से  दुआ   हम  यही
अब  नज़र  आइए   आदमी  में  कहीं

तय  है  गिरना  निगाहों  में  अल्लाह  की
पांव  फिसला   अगर    बे-ख़ुदी  में  कहीं !

                                                        ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: संजीदा: गंभीर; बाद:कशी:मद्यपान की लत; शबे-वस्ल: मिलन-निशा; नसीहत: शिक्षा;  निहां: छिपा हुआ; 
            दाना: विद्वान; बज़्म: सभा, गोष्ठी; बे-ख़ुदी: अन्यमनस्कता !

बुधवार, 2 अक्टूबर 2013

अक़ीदत का खेल

रग़ों  में    ख़ून   नहीं    जिस्म   में    सुरूर  नहीं
ये:     तकाज़ा-ए-उम्र     है     मेरा    क़ुसूर  नहीं

न  जाने  किसने  इस  अफ़वाह  को  हवा  दी  है
हमने  पाया  है  के:  जन्नत  में  कोई  हूर  नहीं

नज़र   का  फेर    अक़ीदत  का  खेल   है  सारा
ख़ुदा  अगर  है  तो  इंसां  के  दिल  से  दूर  नहीं

उम्र  फ़ाक़ों  में    जो  गुजरे    तो  शान  है  मेरी
ग़ैर  के  हक़  का    निवाला    मुझे  मंज़ूर  नहीं

तमाम  बुत    मेरे  घर  का    तवाफ़  करते  हैं
ये:  और  बात  के:    इसका  मुझे    ग़ुरूर  नहीं

तमाम  उम्र  ये:   अफ़सोस   सताएगा  मुझको
मेरे   शजरे   में    ज़िक्रे  मूसा-ओ-मंसूर   नहीं

कहां  पे  चढ  के  पुकारूं  तुझे  के:  तू  सुन  ले
मेरे   शहर  के    आस-पास     कोहे-तूर  नहीं !

                                                           ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रग़ों: धमनियों;  सुरूर: नशा, हलचल; तकाज़ा-ए-उम्र: आयु के लक्षण; क़ुसूर: दोष; जन्नत: स्वर्ग; हूर: अप्सरा;अक़ीदत:आस्था; फ़ाक़ों: लंघनों, उपवासों; ग़ैर: पराए;  हक़: अधिकार, हिस्सा; निवाला: कौर; बुत: देव-मूर्त्तियां, देवता; तवाफ़: परिक्रमा; ग़ुरूर: अभिमान;  शजरे: वंश-वेलि;  ज़िक्रे  मूसा-ओ-मंसूर: हज़रात मूसा और मंसूर, इस्लाम के महानतम दार्शनिक, मूसा द्वैत और मंसूर अद्वैत के प्रचारक, का उल्लेख; कोहे-तूर: अंधेरे का पर्वत, काला पर्वत, मिथक के अनुसार अरब के शाम में स्थित इसी पर्वत पर हज़रत मूसा ख़ुदा से संवाद करते थे !

हक़ीक़त बता दीजिए !

हो  सके  तो    जहां  को    वफ़ा  दीजिए
दुश्मनी  ही  सही    पर    निभा  दीजिए

जो  शिकायत  है  हमको  बता  दीजिए
ग़ैर   के   हाथ     क्यूं    मुद्द'आ  दीजिए

चांद  बे-मौत   मर  जाए   न    शर्म  से
बेख़ुदी  में    न  चिलमन   उठा  दीजिए

दौलते-हुस्न    किसकी    ज़रूरत  नहीं
इसलिए  क्या  ख़ज़ाने  लुटा  दीजिए ?

उम्र  तो   इश्क़   का    मुद्द'आ  ही  नहीं
क्यूं  न  सबको  हक़ीक़त  बता  दीजिए

साहिबे-दिल  हैं  हम  आप  मलिकाए-दिल
दो-जहां   में     मुनादी      करा  दीजिए !

                                                         ( 2013 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: