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बुधवार, 2 अक्तूबर 2013

अक़ीदत का खेल

रग़ों  में    ख़ून   नहीं    जिस्म   में    सुरूर  नहीं
ये:     तकाज़ा-ए-उम्र     है     मेरा    क़ुसूर  नहीं

न  जाने  किसने  इस  अफ़वाह  को  हवा  दी  है
हमने  पाया  है  के:  जन्नत  में  कोई  हूर  नहीं

नज़र   का  फेर    अक़ीदत  का  खेल   है  सारा
ख़ुदा  अगर  है  तो  इंसां  के  दिल  से  दूर  नहीं

उम्र  फ़ाक़ों  में    जो  गुजरे    तो  शान  है  मेरी
ग़ैर  के  हक़  का    निवाला    मुझे  मंज़ूर  नहीं

तमाम  बुत    मेरे  घर  का    तवाफ़  करते  हैं
ये:  और  बात  के:    इसका  मुझे    ग़ुरूर  नहीं

तमाम  उम्र  ये:   अफ़सोस   सताएगा  मुझको
मेरे   शजरे   में    ज़िक्रे  मूसा-ओ-मंसूर   नहीं

कहां  पे  चढ  के  पुकारूं  तुझे  के:  तू  सुन  ले
मेरे   शहर  के    आस-पास     कोहे-तूर  नहीं !

                                                           ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रग़ों: धमनियों;  सुरूर: नशा, हलचल; तकाज़ा-ए-उम्र: आयु के लक्षण; क़ुसूर: दोष; जन्नत: स्वर्ग; हूर: अप्सरा;अक़ीदत:आस्था; फ़ाक़ों: लंघनों, उपवासों; ग़ैर: पराए;  हक़: अधिकार, हिस्सा; निवाला: कौर; बुत: देव-मूर्त्तियां, देवता; तवाफ़: परिक्रमा; ग़ुरूर: अभिमान;  शजरे: वंश-वेलि;  ज़िक्रे  मूसा-ओ-मंसूर: हज़रात मूसा और मंसूर, इस्लाम के महानतम दार्शनिक, मूसा द्वैत और मंसूर अद्वैत के प्रचारक, का उल्लेख; कोहे-तूर: अंधेरे का पर्वत, काला पर्वत, मिथक के अनुसार अरब के शाम में स्थित इसी पर्वत पर हज़रत मूसा ख़ुदा से संवाद करते थे !

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