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शनिवार, 5 अक्तूबर 2013

ख़ाक की अमानत

दिल्लगी      भूल    जाइए  साहब
दिल  लगा  के    दिखाइए  साहब

शे'र    यूं  ही    नहीं  हुआ  करता
कोई     सदमा     उठाइए  साहब

चश्मे-नम    सुर्ख़   हुई    जाती  है
और     कितना    सताइए  साहब

जिस्मो-दिल  ख़ाक की  अमानत हैं
रू:   से    रिश्ता     बनाइए  साहब

हम  समन्दर-सा   ज़र्फ़  रखते  हैं
शौक़  से      डूब      जाइए  साहब

ये:  फ़क़ीरी  है    घर    जला  देगी
सोच  कर    पास    आइए  साहब

उम्र     बीती  है    बुतपरस्ती  में
ख़ाक       ईमां    बचाइए  साहब !

                                            ( 2013 )

                                     -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: दिल्लगी: हास-परिहास, विनोद; सदमा: दु:ख का आघात; चश्मे-नम: भीगी आंख; सुर्ख़: रक्तिम; जिस्मो-दिल: शरीर और  मन; ख़ाक: मिट्टी, धूल; अमानत: धरोहर; रू: : रूह, आत्मा;  ज़र्फ़: गहराई; फ़क़ीरी: वैराग्य; बुतपरस्ती: मूर्त्ति-पूजा, मानवीय सौन्दर्य की पूजा; ईमां: ईश्वर में आस्था !   

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