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शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2013

पांव फिसला अगर...

टूट  जाए  न  दिल  दिल्लगी  में  कहीं
आप  संजीदा  हों    ज़िंदगी    में  कहीं

हमको  ख़ुद से ये: उम्मीद हर्गिज़ न थी
घर   लुटा  आए    बाद:कशी    में  कहीं

हर  शबे-वस्ल  में  इक  नसीहत  भी  है
दर्द  भी   है  निहां    आशिक़ी   में  कहीं

एक  से  एक  दाना  हैं  इस  बज़्म  में
राज़  ज़ाहिर  न  हो  ख़ामुशी  में  कहीं

आज  हैं  हम  यहां  कल  गुज़र  जाएंगे
आ  मिलेंगे  कभी  ख़्वाब  में  ही  कहीं

मांगते  हैं    ख़ुदा  से  दुआ   हम  यही
अब  नज़र  आइए   आदमी  में  कहीं

तय  है  गिरना  निगाहों  में  अल्लाह  की
पांव  फिसला   अगर    बे-ख़ुदी  में  कहीं !

                                                        ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: संजीदा: गंभीर; बाद:कशी:मद्यपान की लत; शबे-वस्ल: मिलन-निशा; नसीहत: शिक्षा;  निहां: छिपा हुआ; 
            दाना: विद्वान; बज़्म: सभा, गोष्ठी; बे-ख़ुदी: अन्यमनस्कता !

बुधवार, 2 अक्टूबर 2013

अक़ीदत का खेल

रग़ों  में    ख़ून   नहीं    जिस्म   में    सुरूर  नहीं
ये:     तकाज़ा-ए-उम्र     है     मेरा    क़ुसूर  नहीं

न  जाने  किसने  इस  अफ़वाह  को  हवा  दी  है
हमने  पाया  है  के:  जन्नत  में  कोई  हूर  नहीं

नज़र   का  फेर    अक़ीदत  का  खेल   है  सारा
ख़ुदा  अगर  है  तो  इंसां  के  दिल  से  दूर  नहीं

उम्र  फ़ाक़ों  में    जो  गुजरे    तो  शान  है  मेरी
ग़ैर  के  हक़  का    निवाला    मुझे  मंज़ूर  नहीं

तमाम  बुत    मेरे  घर  का    तवाफ़  करते  हैं
ये:  और  बात  के:    इसका  मुझे    ग़ुरूर  नहीं

तमाम  उम्र  ये:   अफ़सोस   सताएगा  मुझको
मेरे   शजरे   में    ज़िक्रे  मूसा-ओ-मंसूर   नहीं

कहां  पे  चढ  के  पुकारूं  तुझे  के:  तू  सुन  ले
मेरे   शहर  के    आस-पास     कोहे-तूर  नहीं !

                                                           ( 2013 )

                                                   -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रग़ों: धमनियों;  सुरूर: नशा, हलचल; तकाज़ा-ए-उम्र: आयु के लक्षण; क़ुसूर: दोष; जन्नत: स्वर्ग; हूर: अप्सरा;अक़ीदत:आस्था; फ़ाक़ों: लंघनों, उपवासों; ग़ैर: पराए;  हक़: अधिकार, हिस्सा; निवाला: कौर; बुत: देव-मूर्त्तियां, देवता; तवाफ़: परिक्रमा; ग़ुरूर: अभिमान;  शजरे: वंश-वेलि;  ज़िक्रे  मूसा-ओ-मंसूर: हज़रात मूसा और मंसूर, इस्लाम के महानतम दार्शनिक, मूसा द्वैत और मंसूर अद्वैत के प्रचारक, का उल्लेख; कोहे-तूर: अंधेरे का पर्वत, काला पर्वत, मिथक के अनुसार अरब के शाम में स्थित इसी पर्वत पर हज़रत मूसा ख़ुदा से संवाद करते थे !

हक़ीक़त बता दीजिए !

हो  सके  तो    जहां  को    वफ़ा  दीजिए
दुश्मनी  ही  सही    पर    निभा  दीजिए

जो  शिकायत  है  हमको  बता  दीजिए
ग़ैर   के   हाथ     क्यूं    मुद्द'आ  दीजिए

चांद  बे-मौत   मर  जाए   न    शर्म  से
बेख़ुदी  में    न  चिलमन   उठा  दीजिए

दौलते-हुस्न    किसकी    ज़रूरत  नहीं
इसलिए  क्या  ख़ज़ाने  लुटा  दीजिए ?

उम्र  तो   इश्क़   का    मुद्द'आ  ही  नहीं
क्यूं  न  सबको  हक़ीक़त  बता  दीजिए

साहिबे-दिल  हैं  हम  आप  मलिकाए-दिल
दो-जहां   में     मुनादी      करा  दीजिए !

                                                         ( 2013 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:





मंगलवार, 1 अक्टूबर 2013

निगाहें चुरा लीजिए

दर्द   है  कुछ  अगर   तो   दवा  लीजिए
जो  न  हो  तो  हमीं  को  बुला  लीजिए

रूठ  के  हम  भी  आख़िर  कहां  जाएंगे
क्या  बुरा  है  जो  हमको  मना  लीजिए

बात-बेबात    दिल  जो     धडकने  लगे
नब्ज़  हमको  किसी  दिन  दिखा  लीजिए

आप  को    शैख़    किसने    बुलाया  यहां
मैकदा     है      मियां      रास्ता   लीजिए

सुबह    की    सैर    में     ढूंढते      जाइए
दिल    पडा    है     हमारा    उठा  लीजिए

अपने  आमाल  पे    अब   नज़र  डालिए
रूह    को    साफ़-सुथरा     बना  लीजिए

ज़र्रे-ज़र्रे   में     हम    ही   नज़र  आएंगे
हो   सके    तो    निगाहें    चुरा   लीजिए !

                                                   ( 2013 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शैख़: धर्म-भीरु, मैकदा: मदिरालय, आमाल: आचरण, ज़र्रे-ज़र्रे में: कण-कण में !











                                 

बुधवार, 25 सितंबर 2013

रहबरों के बयानात

क्या  कहें  और  कहने  को  क्या  रह  गया
क़िस्स-ए-दिल  अगर  अनसुना  रह  गया

आए   भी  वो:    पिला   के    चले  भी  गए
सिर्फ़  आंखों  में    बाक़ी     नशा  रह  गया

रहबरों      के      बयानात     चुभने    लगे
शोर    के    बीच    मुद्दा     दबा    रह  गया

ख़्वाब    फिर    से    दबे  पांव   आने  लगे
शब  का  दरवाज़ा  शायद  खुला  रह  गया

उसके   इसरार   पे    जल्व:गर    हम  हुए
शैख़  का  सर   झुका  तो   झुका  रह  गया

कुछ  अक़ीदत  में  शायद   कमी  रह  गई
मेरे   घर    आते-आते     ख़ुदा    रह  गया

ज़लज़ले  ने    मिटा  दी    मेरी   गोर  तक
नाम  दिल  पे  किसी  के  लिखा  रह  गया !

                                                             ( 2013 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़िस्स-ए-दिल:मन की गाथा; रहबरों: नेताओं; बयानात: भाषण; मुद्दा: काम की बात; इसरार: आग्रह; 
               जल्व:गर: प्रकट; शैख़: अति-धर्म-भीरु; अक़ीदत: आस्था; ज़लज़ले: भूकम्प; गोर: क़ब्र, समाधि  !

रविवार, 22 सितंबर 2013

सनम न जाएं कहीं !

दूर  हमसे    सनम    न  जाएं  कहीं
खा  के  झूठी  क़सम  न  जाएं  कहीं

मंज़िलें    अब    मेरी  नज़र    में  हैं
छोड़  कर  हमक़दम  न  जाएं  कहीं

सांस   आती   है     सांस   जाती  है
ज़िंदगी  के    भरम   न  जाएं  कहीं

कर  रहे  हैं   वो:    बात    जाने  की
ख़्वाब  मेरे   सहम   न  जाएं  कहीं

आह  निकले   के:  मौत   आ  जाए
दर्द   सीने  में   जम  न  जाएं  कहीं

देख  कर  हुस्न   उस   परीवश  का
वक़्त  के  पांव  थम  न  जाएं  कहीं

दोस्ती   का      पयाम     आया  है
अपने  दीनो-धरम  न  जाएं  कहीं !

                                                 ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हमक़दम: पग-पग के साथी; भरम: भ्रम; परीवश: परियों जैसे चेहरे वाला;   पयाम: संदेश।

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

हटाइए दिल को !

ख़ुदी  को  याद  रख  के  भूल  जाइए  दिल  को
तलाशे-हुस्न  में  क्यूं  कर  गंवाइए   दिल  को

रखा  है  बांध  के  यूं    ज़ुल्फे-ख़मीदा  में   उसे
सिला-ए-इश्क़     यही   है   सताइए  दिल  को

कोई  कमी  है  इस  शहर  में  हुस्न  वालों  की
यहां-वहां    जहां    चाहे     गिराइए   दिल  को

मेरे  मज़ार  पे   फिर   आज   रौशनी-सी  है
तुलू   हुई   हैं    उम्मीदें    बुझाइए  दिल  को

ज़मीं-ए-मीर-ओ-ग़ालिब   पे   जो  हुए  पैदा
सुख़नवरों  से  कहां  तक  बचाइए  दिल  को

ज़रा  बताए    क्या  बुराई  है    मयनोशी  में
उसी  से  पूछ  लें  ज़ाहिद  बुलाइए  दिल  को

बुला   रहा   है    ख़ुदा    अर्श  पे   ज़माने  से
ख़याले-यार  से  अब  तो  हटाइए  दिल  को !

                                                           ( 2013 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुदी: अस्मिता, स्वाभिमान; तलाशे-हुस्न: सौंदर्य की खोज; ज़ुल्फे-ख़मीदा: घुंघराली लटें; सिला-ए-इश्क़: प्रेम का प्रतिदान; 
मज़ार: समाधि; तुलू: उदित; ज़मीं-ए-मीर-ओ-ग़ालिब: महान शायर मीर तक़ी 'मीर' और मिर्ज़ा ग़ालिब की भूमि; सुख़नवरों: रचनाकारों, शायरों; मयनोशी: मदिरा-पान; ज़ाहिद: धर्मोपदेशक; अर्श: आकाश, परलोक; ख़याले-यार: प्रिय का विचार, प्रिय का मोह।