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बुधवार, 2 अक्टूबर 2013

हक़ीक़त बता दीजिए !

हो  सके  तो    जहां  को    वफ़ा  दीजिए
दुश्मनी  ही  सही    पर    निभा  दीजिए

जो  शिकायत  है  हमको  बता  दीजिए
ग़ैर   के   हाथ     क्यूं    मुद्द'आ  दीजिए

चांद  बे-मौत   मर  जाए   न    शर्म  से
बेख़ुदी  में    न  चिलमन   उठा  दीजिए

दौलते-हुस्न    किसकी    ज़रूरत  नहीं
इसलिए  क्या  ख़ज़ाने  लुटा  दीजिए ?

उम्र  तो   इश्क़   का    मुद्द'आ  ही  नहीं
क्यूं  न  सबको  हक़ीक़त  बता  दीजिए

साहिबे-दिल  हैं  हम  आप  मलिकाए-दिल
दो-जहां   में     मुनादी      करा  दीजिए !

                                                         ( 2013 )

                                                  -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:





मंगलवार, 1 अक्टूबर 2013

निगाहें चुरा लीजिए

दर्द   है  कुछ  अगर   तो   दवा  लीजिए
जो  न  हो  तो  हमीं  को  बुला  लीजिए

रूठ  के  हम  भी  आख़िर  कहां  जाएंगे
क्या  बुरा  है  जो  हमको  मना  लीजिए

बात-बेबात    दिल  जो     धडकने  लगे
नब्ज़  हमको  किसी  दिन  दिखा  लीजिए

आप  को    शैख़    किसने    बुलाया  यहां
मैकदा     है      मियां      रास्ता   लीजिए

सुबह    की    सैर    में     ढूंढते      जाइए
दिल    पडा    है     हमारा    उठा  लीजिए

अपने  आमाल  पे    अब   नज़र  डालिए
रूह    को    साफ़-सुथरा     बना  लीजिए

ज़र्रे-ज़र्रे   में     हम    ही   नज़र  आएंगे
हो   सके    तो    निगाहें    चुरा   लीजिए !

                                                   ( 2013 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: शैख़: धर्म-भीरु, मैकदा: मदिरालय, आमाल: आचरण, ज़र्रे-ज़र्रे में: कण-कण में !











                                 

बुधवार, 25 सितंबर 2013

रहबरों के बयानात

क्या  कहें  और  कहने  को  क्या  रह  गया
क़िस्स-ए-दिल  अगर  अनसुना  रह  गया

आए   भी  वो:    पिला   के    चले  भी  गए
सिर्फ़  आंखों  में    बाक़ी     नशा  रह  गया

रहबरों      के      बयानात     चुभने    लगे
शोर    के    बीच    मुद्दा     दबा    रह  गया

ख़्वाब    फिर    से    दबे  पांव   आने  लगे
शब  का  दरवाज़ा  शायद  खुला  रह  गया

उसके   इसरार   पे    जल्व:गर    हम  हुए
शैख़  का  सर   झुका  तो   झुका  रह  गया

कुछ  अक़ीदत  में  शायद   कमी  रह  गई
मेरे   घर    आते-आते     ख़ुदा    रह  गया

ज़लज़ले  ने    मिटा  दी    मेरी   गोर  तक
नाम  दिल  पे  किसी  के  लिखा  रह  गया !

                                                             ( 2013 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: क़िस्स-ए-दिल:मन की गाथा; रहबरों: नेताओं; बयानात: भाषण; मुद्दा: काम की बात; इसरार: आग्रह; 
               जल्व:गर: प्रकट; शैख़: अति-धर्म-भीरु; अक़ीदत: आस्था; ज़लज़ले: भूकम्प; गोर: क़ब्र, समाधि  !

रविवार, 22 सितंबर 2013

सनम न जाएं कहीं !

दूर  हमसे    सनम    न  जाएं  कहीं
खा  के  झूठी  क़सम  न  जाएं  कहीं

मंज़िलें    अब    मेरी  नज़र    में  हैं
छोड़  कर  हमक़दम  न  जाएं  कहीं

सांस   आती   है     सांस   जाती  है
ज़िंदगी  के    भरम   न  जाएं  कहीं

कर  रहे  हैं   वो:    बात    जाने  की
ख़्वाब  मेरे   सहम   न  जाएं  कहीं

आह  निकले   के:  मौत   आ  जाए
दर्द   सीने  में   जम  न  जाएं  कहीं

देख  कर  हुस्न   उस   परीवश  का
वक़्त  के  पांव  थम  न  जाएं  कहीं

दोस्ती   का      पयाम     आया  है
अपने  दीनो-धरम  न  जाएं  कहीं !

                                                 ( 2013 )

                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: हमक़दम: पग-पग के साथी; भरम: भ्रम; परीवश: परियों जैसे चेहरे वाला;   पयाम: संदेश।

शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

हटाइए दिल को !

ख़ुदी  को  याद  रख  के  भूल  जाइए  दिल  को
तलाशे-हुस्न  में  क्यूं  कर  गंवाइए   दिल  को

रखा  है  बांध  के  यूं    ज़ुल्फे-ख़मीदा  में   उसे
सिला-ए-इश्क़     यही   है   सताइए  दिल  को

कोई  कमी  है  इस  शहर  में  हुस्न  वालों  की
यहां-वहां    जहां    चाहे     गिराइए   दिल  को

मेरे  मज़ार  पे   फिर   आज   रौशनी-सी  है
तुलू   हुई   हैं    उम्मीदें    बुझाइए  दिल  को

ज़मीं-ए-मीर-ओ-ग़ालिब   पे   जो  हुए  पैदा
सुख़नवरों  से  कहां  तक  बचाइए  दिल  को

ज़रा  बताए    क्या  बुराई  है    मयनोशी  में
उसी  से  पूछ  लें  ज़ाहिद  बुलाइए  दिल  को

बुला   रहा   है    ख़ुदा    अर्श  पे   ज़माने  से
ख़याले-यार  से  अब  तो  हटाइए  दिल  को !

                                                           ( 2013 )

                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ुदी: अस्मिता, स्वाभिमान; तलाशे-हुस्न: सौंदर्य की खोज; ज़ुल्फे-ख़मीदा: घुंघराली लटें; सिला-ए-इश्क़: प्रेम का प्रतिदान; 
मज़ार: समाधि; तुलू: उदित; ज़मीं-ए-मीर-ओ-ग़ालिब: महान शायर मीर तक़ी 'मीर' और मिर्ज़ा ग़ालिब की भूमि; सुख़नवरों: रचनाकारों, शायरों; मयनोशी: मदिरा-पान; ज़ाहिद: धर्मोपदेशक; अर्श: आकाश, परलोक; ख़याले-यार: प्रिय का विचार, प्रिय का मोह।

हंगामे आरज़ू

हाँ  बादे तर्के इश्क़   भी  इक  हादसा  हुआ
देखा  उन्हें  तो  हश्र सा  दिल  में  बपा  हुआ

अब  उसके  बाद  पूछ  न  क्या  माजरा  हुआ
अपनी  ख़ता  पे  सर  था  किसी  का  झुका  हुआ

ज़ुल्फों  में  ख़ाके राह  गिरेबां  फटा  हुआ
दूर  आ  गया  जुनूं  में  तुझे  ढूंढता  हुआ

पूछा  जो  उनसे  कौन  था  पहलू  में  ग़ैर  के
मारे  हया  के  फिर  न  उठा  सर  झुका  हुआ

हंगामे आरज़ू  न  हुआ  ख़त्म  जीते  जी
मर कर  के  ख़्वाहिशों  का  मेरी  फ़ैसला  हुआ

देखा  जो  उसने  लुत्फ़  से  'राजन'  रक़ीब  को
पहलू  से  ख़ून  हो  के  मेरा  दिल  जुदा  हुआ

                                                             -चित्रेन्द्र  स्वरूप  'राजन'

शब्दार्थ: बादे तर्के इश्क़: प्रेम-परित्याग के बाद; हादसा: दुर्घटना; हश्र: प्रलय; बपा: उठा हुआ; माजरा: घटना;  ख़ता: दोष, भूल; 
ख़ाके राह: रास्ते की धूल; गिरेबां: उपरिवस्त्र; जुनूं: उन्माद; पहलू: गोद; हया: लज्जा; हंगामे आरज़ू: इच्छाओं का शोर; लुत्फ़: रुचि;  
रक़ीब: प्रतिद्वंदी। 




बुधवार, 18 सितंबर 2013

ज़िंदगी यूं दर-ब-दर

अगर    उफ़क़  पे    हमारी  नज़र  नहीं  होती
सबा-ए-सहर   ख़ुश्बुओं  से   तर   नहीं  होती

हमीं ने  आपकी  आंखों  में  कशिश  पैदा  की
मगर  हमीं  पे    आपकी    नज़र  नहीं  होती

वक़्त  करता  है  बहुत  कोशिशें  मिलाने  की
कभी  तुम्हें  कभी  हमको  ख़बर  नहीं  होती

शबे-विसाल  भी  आती  है  शबे-हिजरां  भी
हरेक  रात  की   लेकिन    सहर  नहीं  होती

तेरी  दुआ  भी    हमें    यूं  फ़रेब  लगती  है
हमारे  ग़म  में  कभी  पुरअसर  नहीं  होती

तेरे    हुज़ूर   में    इंसान    गर     बराबर  हैं
तो  तेरी  नज़्रे-करम  क्यूं  इधर  नहीं  होती

ख़ुदा  अगर  हमारे  सर  पे  हाथ  रख  देता
हमारी  ज़िंदगी  यूं  दर-ब-दर  नहीं  होती  !

                                                           ( 2013 )

                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: उफ़क़: क्षितिज; सबा-ए-सहर: प्रभात-समीर; तर: भीगी; कशिश: आकर्षण; शबे-विसाल: मिलन-निशा; शबे-हिजरां: वियोग-निशा; सहर: उषा; फ़रेब: छल; पुरअसर: प्रभावकारी; हुज़ूर: दरबार, समक्ष; नज़्रे-करम: कृपा-दृष्टि; दर-ब-दर: द्वार-द्वार भटकती, यायावर।