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गुरुवार, 18 जुलाई 2013

क्या फ़र्क़ पड़ता है !

मेरे  बेज़ार  होने  से  तुम्हें  क्या  फ़र्क़  पड़ता  है
तड़पने  और  रोने  से तुम्हें  क्या  फ़र्क़  पड़ता  है

हमीं  नादां  थे  जो  तुमको  बनाया  नाख़ुदा  अपना
मेरी  कश्ती  डुबोने  से  तुम्हें  क्या  फ़र्क़  पड़ता  है

लगी  है  अब  नज़र  जिसपे  तुम्हारी  वो:  मेरा  दिल  है
मगर  नश्तर  चुभोने  से  तुम्हें  क्या  फ़र्क़  पड़ता  है

तुम्हारे  हाथ  सौंपी  थीं  चमन  की  क्यारियां  हमने
वहां  बदख़्वाब  बोने  से  तुम्हें  क्या  फ़र्क़  पड़ता  है

लगा  है  हमपे  अब  इल्ज़ाम  तुमसे  बेवफ़ाई  का
ये:  बोझा  दिल  पे  ढोने  से  तुम्हें  क्या  फ़र्क़  पड़ता  है

तुम्हारे  साथ  चलते  हैं  हज़ारों  चाहने  वाले
मेरे  होने  न  होने  से  तुम्हें  क्या  फ़र्क़  पड़ता  है

हमीं  को  दर्द  सहना  है  जहाँ  की  संगशारी  का
हमारे  होश  खोने  से  तुम्हें  क्या  फ़र्क़  पड़ता  है !

                                                                  ( 2013 )

                                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बेज़ार: व्याकुल; नादां: अबोध; नाख़ुदा: नाविक; नश्तर: चीरा; बदख़्वाब: दु:स्वप्न; संगशारी: पत्थर मार-मार कर 
मार डालने का दण्ड।

बुधवार, 17 जुलाई 2013

मुख़ातिब मेरे ख़ुदा

दाग़  कुछ  दस्तयाब  हैं  मेरे
एक-दो   ही   सबाब  हैं  मेरे

क्या  करूं  मैं  के: मै  नहीं  छुटती
दोस्त  ख़ाना-ख़राब  हैं  मेरे

नेक  सरमाय:  हैं  बुज़ुर्गों  का
शे'र  यूं  लाजवाब  हैं  मेरे

नींद  आती  हुई   नहीं आती
दर-ब-दर    ख़्वाब    हैं  मेरे

आप कब तक दवा किया कीजे
रोग   तो   बे-हिसाब   हैं  मेरे

ज़िक्र  उठने  लगा  नशिस्तों  में
ज़ख़्म  फिर  बे-नक़ाब  हैं  मेरे

क़त्ल  हो  के  भी  सुर्ख़रू:  हूं  मैं
क़तर:-ए-ख़ूं  गुलाब  हैं  मेरे

हैं  मुख़ातिब  मेरे  ख़ुदा  मुझसे
अश्क  अब  कामयाब  हैं  मेरे !

                                         ( 2013 )

                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दस्तयाब: हस्तगत; सबाब: पुण्य; मै: मदिरा; ख़ाना-ख़राब: अ-गृहस्थ; नेक  सरमाय: : पवित्र पूंजी; बुज़ुर्गों: पूर्वजों; दर-ब-दर: द्वार-द्वार भटकते; ज़िक्र: उल्लेख; नशिस्तों: गोष्ठियों; ज़ख़्म: घाव; बे-नक़ाब: अनावृत्त; सुर्ख़रू: : पूर्ण सफल; क़तर:-ए-ख़ूं: रक्त-कण; मुख़ातिब: संबोधित; अश्क: अश्रु।

सोमवार, 15 जुलाई 2013

आसमानों में ज़लज़ले

दिल  मिले  हैं  तो  फ़ासले  क्यूं  हैं
होंठ   हर  बात  पे    सिले   क्यूं  हैं

तुम  ज़मीं  पे   क़दम  नहीं  रखते
तो  ये:   पांवों  में  आबले   क्यूं  हैं

दिल    रक़ीबों  में    बांट  आते  हैं
आप  इतने  भी  मनचले  क्यूं   हैं

गुनगुनाते   हैं    वो:    ग़ज़ल  मेरी
आरिज़े-गुल   खिले-खिले  क्यूं  हैं

कर  चुके    मंज़िलें    फ़तह  सारी
दिल में फिर जोशो-वलवले क्यूं  हैं

हक़-ओ-इंसाफ़    मांगते    हैं  हम
वक़्त को  इस  क़दर  गिले  क्यूं  हैं

मल्कुल-ए-मौत  फिर  शहर  में  है
घर  खुले  हैं   मगर     खुले  क्यूं  हैं

शाह     दहशतज़दा   है    रय्यत  से
राह-ए-दिल्ली  में  काफ़िले   क्यूं  हैं

हम  चले   कोह-ए-तूर  की  जानिब
आसमानों   में    ज़लज़ले    क्यूं  हैं ?

                                               ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आबले: छाले; रक़ीबों: शत्रुओं; आरिज़े-गुल: फूलों के गाल, सतह;  फ़तह: विजित; जोशो-वलवले: उत्साह और उमंगें; हक़-ओ-इंसाफ़: अधिकार और न्याय; गिले: आपत्तियां; मल्कुल-ए-मौत: मृत्यु-दूत;  दहशतज़दा: भयभीत; रय्यत: नागरिक गण; काफ़िले: यात्री-दल; कोह-ए-तूर: मिथकीय पर्वत, 'अँधेरे का पहाड़', मिथक है कि हज़रत मूसा स. अ. को यहीं ख़ुदा ने दर्शन दिए थे; जानिब: ओर; आसमानों: देवलोक; ज़लज़ले: भूकंप, उथल-पुथल।



तू किसका ख़ुदा हुआ ?

दो-चार   दिन   में   लोग   नज़र   से   उतर  गए
तेरे   शहर   में    यूं    मेरे    अरमां    बिखर  गए

मीनारे-क़ुतुब    देख    के    होता   है     ये:  गुमां
कितने   अज़ीम    शख़्स  जहां    से   गुज़र  गए

ख़ुशियां  कभी  जो  आईं  तो  मेहमान  की  तरह
ग़म   हैं   के:   लहू   बन   के   रग़ों  में  ठहर  गए

रोज़ा-नमाज़    न    सही    आमाल   अपने  देख
इस    मश्क़   से    तमाम    मुक़द्दर    संवर  गए

मुझको  ख़बर  नहीं  के:  तू  किसका  ख़ुदा  हुआ
ना'ले    मेरे   गली   में    तेरी      बे-असर    गए

होगी    ग़ज़ल    ज़रूर    ज़रा     देर    सब्र   कर
अश'आर  दिल  से  जो  हुए  कमाल  कर  गए !

                                                               ( 2013 )

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: अरमां: अभिलाषाएं; मीनारे-क़ुतुब: दिल्ली में स्थित क़ुतुब मीनार; गुमां: आभास;  अज़ीम: महान, विराट; 
शख़्स: व्यक्ति, व्यक्तित्व; रग़ों  में: शिराओं में; आमाल: आचरण; मश्क़: अभ्यास; ना'ले: आर्त्तनाद; अश'आर: शेर (बहुव.) ।

रविवार, 14 जुलाई 2013

दुश्मने - ख़ानुमां ...

उम्र     इतनी    रवां     हुई     कैसे
दुश्मने - ख़ानुमां         हुई     कैसे

आप  गर  हमपे  मेहरबान  न  थे
रात     इतनी   जवां    हुई    कैसे

उनपे मख़्सूस थी  गली  दिल  की
वो:        रहे - कारवां      हुई  कैसे

क्या  ख़बर   होश  कब   गंवा  बैठे
ये:      अदा    बदगुमां     हुई  कैसे

हम  अगर  हमनज़र  नहीं  हैं  तो
ख़ामुशी      ये:    ज़ुबां    हुई  कैसे

उसपे    दारोमदार  था    दिल  का
याद      दर्दे - निहाँ       हुई    कैसे

वक़्त  पे   पांव   कब   रखा  हमने
मौत   फिर    मेहरबां    हुई   कैसे ? !

                                                ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रवां: गतिवान; दुश्मने - ख़ानुमां: घर-गृहस्थी की शत्रु; मख़्सूस: विशिष्ट, आरक्षित; रहे-कारवां: यात्री-समूह का मार्ग;      बदगुमां:भ्रमित; हमनज़र: सम-दृष्टि; ख़ामुशी: चुप्पी; दारोमदार: उत्तरदायित्व;   दर्दे - निहाँ: छुपी हुई पीड़ा।

शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

दर्दे-दिल की दवा

आज   बादे-सबा   चली  आई
लब  पे  मेरे  दुआ  चली  आई

नाम:बर  की  ख़ुशी  से  ज़ाहिर  है
दर्दे-दिल  की  दवा  चली  आई

कोसते  ही  ज़रा  मुअज़्ज़िन  को
मैकदे    से     सदा     चली  आई

ज़िक्र    मेरा    हुआ    हरीफ़ों  में
उनके  रुख़  पे  हिना  चली  आई

याद  जब  भी  किया  तहे-दिल  से
उनके  दिल  में  वफ़ा  चली  आई

अह्द  हमने  किया  मुहब्बत  का
आसमां  से  रज़ा  चली  आई

ख़ुल्द  के  ख़्वाब  में  महव  थे  हम
पास  हंस  के  क़ज़ा  चली  आई !

                                              ( 2013 )

                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: बादे-सबा: प्रातः की शीतल समीर; नाम:बर: सन्देश लाने वाला; मुअज़्ज़िन: अज़ान देने वाला; मैकदा: मदिरालय; सदा: स्वर; हरीफ़: प्रतिद्वंद्वी; रुख़: चेहरा; हिना: मेंहदी का लाल रंग, लाली; तहे-दिल: हृदय की गहराई; वफ़ा: निर्वाह की इच्छा; अह्द: संकल्प; रज़ा: स्वीकृति; ख़ुल्द: स्वर्ग;  महव: खोए हुए;  क़ज़ा: मृत्यु। 

गुरुवार, 11 जुलाई 2013

ज़ीस्त की रस्साकशी

वो:  हमें   ज़ेहन   में   लाते    तो   कोई   बात  भी  थी
अपने    अरमान    जगाते    तो  कोई    बात  भी  थी

तुमने  ख़ुशियों  को   तहे-दिल  से   निभाया  हर  दम
शान   से   ग़म  को  निभाते   तो  कोई   बात  भी  थी

ऐश-ओ-इशरत   की   हर  इक   चीज़    चाहने  वालों
घर   को    ईमां   से    सजाते  तो  कोई  बात  भी  थी

क्या   मिला    सोहबत-ए-कमज़र्फ़    से    वही  जानें
दायरा     अपना    बढ़ाते    तो   कोई   बात     भी  थी

दाग़-ए-सदमात      पे      हंसते    हैं    ज़माने    वाले
ख़ुद   को    फ़ौलाद    बनाते   तो  कोई   बात  भी  थी

तर्क-ए-उल्फ़त   में    टूट    जाना    तो     रवायत  है
कुछ   नया   करके   दिखाते   तो  कोई  बात  भी  थी

ज़ीस्त    की     रस्साकशी    हारते      रहे    हर  दम
इक   सिरा   हमको   थमाते   तो  कोई  बात  भी  थी !

                                                                          ( 2013 )

                                                                    -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  ज़ेहन: मस्तिष्क, विचार; तहे-दिल: हृदय की गहराई;ऐश-ओ-इशरत: विलासिता और समृद्धि; ईमां: आस्था; सोहबत-ए-कमज़र्फ़: ओछे व्यक्ति की संगति; दाग़-ए-सदमात : दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के चिह्न; तर्क-ए-उल्फ़त: प्रेम-भंग;  रवायत: परंपरा;ज़ीस्त: जीवन।