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सोमवार, 15 जुलाई 2013

आसमानों में ज़लज़ले

दिल  मिले  हैं  तो  फ़ासले  क्यूं  हैं
होंठ   हर  बात  पे    सिले   क्यूं  हैं

तुम  ज़मीं  पे   क़दम  नहीं  रखते
तो  ये:   पांवों  में  आबले   क्यूं  हैं

दिल    रक़ीबों  में    बांट  आते  हैं
आप  इतने  भी  मनचले  क्यूं   हैं

गुनगुनाते   हैं    वो:    ग़ज़ल  मेरी
आरिज़े-गुल   खिले-खिले  क्यूं  हैं

कर  चुके    मंज़िलें    फ़तह  सारी
दिल में फिर जोशो-वलवले क्यूं  हैं

हक़-ओ-इंसाफ़    मांगते    हैं  हम
वक़्त को  इस  क़दर  गिले  क्यूं  हैं

मल्कुल-ए-मौत  फिर  शहर  में  है
घर  खुले  हैं   मगर     खुले  क्यूं  हैं

शाह     दहशतज़दा   है    रय्यत  से
राह-ए-दिल्ली  में  काफ़िले   क्यूं  हैं

हम  चले   कोह-ए-तूर  की  जानिब
आसमानों   में    ज़लज़ले    क्यूं  हैं ?

                                               ( 2013 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: आबले: छाले; रक़ीबों: शत्रुओं; आरिज़े-गुल: फूलों के गाल, सतह;  फ़तह: विजित; जोशो-वलवले: उत्साह और उमंगें; हक़-ओ-इंसाफ़: अधिकार और न्याय; गिले: आपत्तियां; मल्कुल-ए-मौत: मृत्यु-दूत;  दहशतज़दा: भयभीत; रय्यत: नागरिक गण; काफ़िले: यात्री-दल; कोह-ए-तूर: मिथकीय पर्वत, 'अँधेरे का पहाड़', मिथक है कि हज़रत मूसा स. अ. को यहीं ख़ुदा ने दर्शन दिए थे; जानिब: ओर; आसमानों: देवलोक; ज़लज़ले: भूकंप, उथल-पुथल।



1 टिप्पणी:

  1. आसमानों में ज़लज़ले ...
    टलर का कहना याद आया कि‍ आसमान हरा कैसे पेंट कि‍या जा सकता है

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