आप तो सिर्फ़ अपनी ज़ुबां से गए
रोज़ दो-चार दहक़ान जां से गए
है अज़ल से यही इश्क़ का क़ायदा
बदगुमां जो हुए, दो - जहां से गए
लुट गए लोग हमसे मिला कर नज़र
दीद:वर अपने तीरो-कमां से गए
चाहती हैं बहारें हमें इस क़दर
फूल खिलते गए हम जहां से गए
कोई किरदार दिल तक न पहुंचा कभी
आप जबसे मिरी दास्तां से गए
आपके नूर की बारिशें जब हुईं
सैकड़ों ग़म हमारे मकां से गए
रैयतें जब कभी होश में आ गईं
ज़ारो-फ़र् औन नामो-निशां से गए !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ज़ुबां: वचन; दहक़ान: कृषक (बहुव.); जां: प्राण; अज़ल: अनादिकाल; क़ायदा: नियम; बदगुमां: दिग्भ्रमित; दो-जहां: इहलोक-परलोक; दीद:वर: आंख वाले, दृष्टि से वार करने वाले; तीरो-कमां: तीर-कमान; किरदार: (कथा का) पात्र, चरित्र; दास्तां: कथा, आख्यान; नूर: प्रकाश; मकां: गृह; रैयतें: प्रजा (बहुव.); ज़ारो-फ़र् औन:ज़ार और फ़र् औन, ज़ार रूस के और फ़र् औन मिस्र के प्राचीन, निरंकुश और अत्याचारी शासक; नामो-निशां: स्मृति-चिह्न ।
रोज़ दो-चार दहक़ान जां से गए
है अज़ल से यही इश्क़ का क़ायदा
बदगुमां जो हुए, दो - जहां से गए
लुट गए लोग हमसे मिला कर नज़र
दीद:वर अपने तीरो-कमां से गए
चाहती हैं बहारें हमें इस क़दर
फूल खिलते गए हम जहां से गए
कोई किरदार दिल तक न पहुंचा कभी
आप जबसे मिरी दास्तां से गए
आपके नूर की बारिशें जब हुईं
सैकड़ों ग़म हमारे मकां से गए
रैयतें जब कभी होश में आ गईं
ज़ारो-फ़र् औन नामो-निशां से गए !
(2015)
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: ज़ुबां: वचन; दहक़ान: कृषक (बहुव.); जां: प्राण; अज़ल: अनादिकाल; क़ायदा: नियम; बदगुमां: दिग्भ्रमित; दो-जहां: इहलोक-परलोक; दीद:वर: आंख वाले, दृष्टि से वार करने वाले; तीरो-कमां: तीर-कमान; किरदार: (कथा का) पात्र, चरित्र; दास्तां: कथा, आख्यान; नूर: प्रकाश; मकां: गृह; रैयतें: प्रजा (बहुव.); ज़ारो-फ़र् औन:ज़ार और फ़र् औन, ज़ार रूस के और फ़र् औन मिस्र के प्राचीन, निरंकुश और अत्याचारी शासक; नामो-निशां: स्मृति-चिह्न ।
सुन्दर रचना !
जवाब देंहटाएंनवरात्रों की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (28-03-2015) को "जहां पेड़ है वहाँ घर है" {चर्चा - 1931} पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत खूब।
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