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बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

...वो ख़ुदा सा है !

रंगे-मौसम  नया-नया  सा  है
मोजज़ा  आज  ही  हुआ  सा  है

ये  शुआएं  उसी  की  नेमत  हैं
ख़द्द  जिसका  ज़रा  खुला  सा  है

आप  फिर  बेहिजाब  आ  निकले
चांद  देखो,  बुझा-बुझा  सा  है 

हालते-दिल  कहें,  ग़ज़ल  कह  लें
हर्फ़-ब-हर्फ़  इक  दुआ  सा  है

आप  रातें  तबाह  मत  कीजे
ख़्वाब  मेरा  वहीं  छुपा  सा  है

आज  मंज़िल  निगाह  में  होगी
रास्ता  बस,  अभी  मिला  सा  है

साज-सिंगार  देखिए  उसका
सोचता  है  कि  वो  ख़ुदा  सा  है

एक  फ़र्ज़ी  क़िला  डुबा  बैठा
शाह  का  सर  झुका-झुका  सा  है

लोग  ख़ाना-ख़राब  कहते  हैं
और  दिल  आप  पर  टिका  सा  है !

                                                           (2015)

                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रंगे-मौसम: ऋतु का रूप; मोजज़ा: चमत्कार; शुआएं: किरणें; नेमत: देन, कृपा; ख़द्द: मुख; बेहिजाब: निरावरण; हालते-दिल: मन की दशा; हर्फ़-ब-हर्फ़: एक-एक अक्षर,अक्षरशः; दुआ: प्रार्थना; फ़र्ज़ी: शतरंज की एक गोटी, वज़ीर, मंत्री; ख़ाना-ख़राब: यायावर । 

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