न नींद आए न चैन आए
तो आशिक़ क्यूं हुआ जाए
लिया तक़दीर से लोहा
बहारें लूट कर लाए
हज़ारों बार दिल जीते
हज़ारों बार पछताए
ज़ुबां ख़ामोश रह लेगी
नज़र को कौन समझाए
कहां हम थे, कहां दुनिया
न आपस में निभा पाए
रहे रश्क़े-समंदर हम
हमीं कमज़र्फ़ कहलाए
चलो माना, ख़ुदा भी है
कभी तो शक्ल दिखलाए !
( 2015 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रश्क़े-समंदर: समुद्र की ईर्ष्या के पात्र; कमज़र्फ़: उथले।
तो आशिक़ क्यूं हुआ जाए
लिया तक़दीर से लोहा
बहारें लूट कर लाए
हज़ारों बार दिल जीते
हज़ारों बार पछताए
ज़ुबां ख़ामोश रह लेगी
नज़र को कौन समझाए
कहां हम थे, कहां दुनिया
न आपस में निभा पाए
रहे रश्क़े-समंदर हम
हमीं कमज़र्फ़ कहलाए
चलो माना, ख़ुदा भी है
कभी तो शक्ल दिखलाए !
( 2015 )
-सुरेश स्वप्निल
शब्दार्थ: रश्क़े-समंदर: समुद्र की ईर्ष्या के पात्र; कमज़र्फ़: उथले।
सार्थक प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (09-02-2015) को "प्रसव वेदना-सम्भलो पुरुषों अब" {चर्चा - 1884} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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