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शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

मेरी परेशानी !


उन्हें  मेरी    परेशानी   समझ  में  आ  नहीं   सकती
निगाहों  की  पशेमानी  समझ  में  आ  नहीं  सकती

ख़ुदा  के  नाम  पर   तुमने    फ़रिश्ते  क़त्ल  कर  डाले
ख़ुदा  को   ही  ये  क़ुर्बानी  समझ  में  आ  नहीं  सकती

उन्हें   आज़ाद   रहने    दो   अगर   परवाज़   प्यारी है
परिंदों  को  निगहबानी   समझ  में  आ  नहीं   सकती

इसे   अब  कुफ़्र  कहिए,   जब्र  कहिए  या  ख़ता  कहिए
हमें    ये   चाल   शैतानी    समझ  में  आ  नहीं   सकती

जिन्हें  पाला  कभी  तुमने  उन्हीं  ने   घर  जला  डाला
तुम्हारी  आज   हैरानी   समझ  में    आ  नहीं  सकती

जिन्हें  फ़िरक़ापरस्ती  से  मिला   हो  शाह  का  रुतबा
उन्हीं  की  फ़िक्रे-बेमानी  समझ  में  आ  नहीं  सकती

ज़ुबां  पर   ज़ह्र  हो   जिनकी   नज़र  में  वहशतें  तारी
उन्हें   इस्लाहे-क़ुर'आनी   समझ  में  आ  नहीं  सकती

ख़ुदा  के  नूर  से  ख़ाली    तुम्हारे    मीरवाइज़  को
हमारी  सुर्ख़  पेशानी  समझ  में  आ  नहीं  सकती !

                                                                                   (2014)

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: पशेमानी: लज्जा; फ़रिश्ते: देवदूत; क़ुर्बानी: बलि; परवाज़: उड़ान; निगहबानी: सतर्कता; कुफ़्र: अधर्म; जब्र: बलात् कृत्य; 
ख़ता: अपराध; चाल: षड्यंत्र; दानवी; हैरानी: आश्चर्य; फ़िरक़ापरस्ती: सांप्रदायिकता; रुतबा: पद; फ़िक्रे-बेमानी: निरर्थक, दिखावे की चिंता; ज़ह्र: विष; वहशतें: क्रूरता; तारी: प्रच्छन्न; इस्लाहे-क़ुर'आनी: पवित्र क़ुर'आन का मार्गदर्शन; नूर: प्रकाश; मीरवाइज़: प्रधान धर्मोपदेशक; सुर्ख़: उत्तप्त, उज्ज्वल; पेशानी: भाल। 

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

हमदम से हारे हैं !

हम  जब  भी  हारे,  मौसम  से  हारे  हैं
बिछड़े  अपनों  के  मातम  से  हारे  हैं

सहमे-सहमे    से    लगते  हैं  दरवाज़े
मेहमानों  के    रंजो-ग़म  से   हारे   हैं

गुलदस्तों  से,  पुरसिश  से,  हमदर्दी  से
दिल  के  ज़ख्म  कभी  मरहम  से  हारे  हैं ?

अपने-अपने     क़िस्से  हैं      रुसवाई  के 
हम  भी  तो  अक्सर  हमदम से  हारे  हैं !

गुमगश्ता  हैं  ख़्वाब  सफ़र  की  गर्दिश  में
तक़दीरों   के    पेचो - ख़म  से     हारे  हैं

कितने  ही    सरमायादारों   के     लश्कर 
मेहनतकश  हाथों   के    दम  से   हारे  हैं

ताजिर  आदमख़ोर  लहू  पी  जाते  हैं
ग़ुरबा  इस  क़ातिल  आलम  से  हारे  हैं !
                                                                           
                                                                                    (2014) 

                                                                           -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मातम: शोक; रंजो-ग़म: खेद और दुःख; पुरसिश: पूछताछ; हमदर्दी: सहानुभूति; रुसवाई: अपमान; हमदम: साथी; 
गुमगश्ता: भटके हुए;  गर्दिश: भटकाव; पेचो - ख़म: मोड़ और जटिलता; सरमायादारों: पूंजीपतियों; लश्कर: सेनाएं; 
ताजिर: व्यापारी; आदमख़ोर: नरभक्षी; ग़ुरबा: निर्धन (बहुव.); आलम: परिस्थिति । 

सोमवार, 1 दिसंबर 2014

शाह का फ़र्ज़ी करिश्मा...

न  दिल  टूटे  न  दीवारें  तो   वो   क्या  था  जो  टूटा  है
सियासत    के   दयारों   में    भरोसा   था  जो  टूटा  है

हवाएं   रो  रही  हैं,    चांद  भी   कुछ    ग़मज़दा-सा  है
किसी   मासूम  बच्चे  का    खिलौना  था   जो  टूटा  है

अदावत  भी  तुम्हीं  ने  की,  शिकायत  भी  तुम्हीं  को  है
तुम्हारा  दिल   सलामत  है,  हमारा  था   जो   टूटा   है

हमारा   दिल    दिखाते  घूमते  थे    आप    दुनिया   में
उसी  से   आपका  भी  तो    गुज़ारा   था,   जो   टूटा  है

न   मंहगाई   हुई  है  कम,  न  ज़र  ही   हाथ  में  आया
तुम्हारे  शाह  का    फ़र्ज़ी    करिश्मा  था,   जो  टूटा  है

हमें  वो    ग़र्क़   कर  देता,    अगर  मौक़ा  मिला  होता
कहीं   तूफ़ान   के   दिल   में   इरादा  था,    जो  टूटा  है

निज़ामे-हिंद    पर     क़ाबिज़     फ़रेबी   हैं,   लुटेरे  हैं
ख़ुदा  पर  हर  किसी  को  ही  अक़ीदा  था  जो  टूटा  है !

                                                                                             (2014)

                                                                                     -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  दयारों: नगरों; ग़मज़दा: शोकग्रस्त; अदावत: शत्रुता; गुज़ारा: निर्वाह; फ़र्ज़ी: छलपूर्ण; करिश्मा: चमत्कार; ग़र्क़: जलमग्न; 
इरादा: संकल्प; निज़ामे-हिंद: भारत की व्यवस्था; क़ाबिज़: आधिपत्य में; फ़रेबी: कपटी; अक़ीदा: विश्वास, आस्था ।



रविवार, 30 नवंबर 2014

तबस्सुम रखा कीजिए !



जफ़ा  कीजिए  या  वफ़ा  कीजिए
मगर  होश  में  तो  रहा  कीजिए

शबे-हिज्र  में  कुछ  तसल्ली  मिले
ख़ुदा  के  लिए  राब्ता  कीजिए

बहारें  चमन  छोड़  कर  जा  चुकीं
कहां  खो  गए  हम,  पता  कीजिए

करे  ख़ल्क़  तारीफ़  तहरीर  की
फ़लक़  पर  इरादे  लिखा  कीजिए

संवरते  हुए  या  बिखरते  हुए 
लबों  पर  तबस्सुम  रखा  कीजिए

गई  उम्र  सरगोशियों  की,  मियां
ख़ुदा  से  ज़रा  वास्ता  कीजिए

फ़रिश्ते  खड़े  हैं  बहुत  देर  से
सफ़र  को  हमारे  दुआ  कीजिए !

                                                    (2014)

                                            -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ:  जफ़ा:निष्ठाहीनता; वफ़ा: निष्ठा; शबे-हिज्र: वियोग-निशा; राब्ता: संपर्क; ख़ल्क़: सृष्टि; तहरीर: लिखावट; फ़लक़: आकाश; लबों: ओंठों; तबस्सुम: स्मित; सरगोशियां: सिर से सिर मिला कर कानाफूसी करना; वास्ता: संबंध; फ़रिश्ते: मृत्यु-दूत; सफ़र: यात्रा, यहां मृत्यु-मार्ग की ।

                                      

सोमवार, 24 नवंबर 2014

...तैयारी जनाज़े की !

क़सम  ले  लो  अगर  हमने  ख़ुदा  को  आज़माया  हो
कि  मन्नत  के  लिए  ही  जो  कहीं  पर  सर  झुकाया  हो

अमां,  मन्हूसियत  छोड़ो,  ज़रा-सा  मुस्कुराओ  भी
तुम्हीं  वाहिद  नहीं  जिसका  सबा  ने  दिल  चुराया  हो

ये  मामूली  घरौंदा,  रिज़्क़,  दस्तरख़्वान  ये  अपना
ख़ुदा  ग़ारत  करे  जो  बिन  पसीने  के  कमाया  हो

हमारा  काम  है  तारीकियों  से  मोर्चा  लेना
हमें  सूली  चढ़ा  दें  गर  किसी  का  घर  जलाया  हो

हमीं  ने  ही  उसे बदला,  हमें  उसने  नहीं  बदला
भले  ही  वक़्त  ने  हमको  उठाया  या  गिराया  हो

हमारा  सर  झुका  है  दोस्तों  के  सामने  हर  दम
वफ़ा  की  राह  में  जो  दिल  कभी  भी  डगमगाया  हो

अभी  से  कर  रहे  हैं  आप  तैयारी  जनाज़े   की
कि  जैसे  आज  ही  हमको  ख़ुदा  ने  घर  बुलाया  हो !

                                                                                         (2014)

                                                                                  -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: मन्नत: मान्यता; अमां: अजी, अनौपचारिक संबोधन; मन्हूसियत: anisht

रविवार, 23 नवंबर 2014

मुसव्विर भी नहीं समझे !

जियाले  आतिशे-दिल  से  गुज़र  कर  भी  नहीं  समझे
इरादों   की   बग़ावत   से   उबर  कर  भी  नहीं  समझे !

हवाएं   दोस्त  तो   हरगिज़   किसी  की  भी  नहीं  होतीं
रहे  अनजान    जो  पत्ते    बिखर  कर  भी  नहीं  समझे

किनारे  बैठ  कर    कुछ  लोग   बस,  गिनते  रहे  मौजें
दिवाने  तो    समंदर  में    उतर  कर   भी  नहीं  समझे

कहा  क्या   चांद  ने   बादे-सबा  की    लोरियां  सुन  कर
न  शायर  ही  कभी  समझे,  मुसव्विर  भी  नहीं  समझे

हमारे  नाम  की   हर  शाम  क्यूं   वो   शम्'अ  रखते  हैं
हमारे    मक़बरे   के    संगे-मरमर    भी    नहीं  समझे

जिन्हें  मानी  समझने  थे, समझ  कर  भी  नहीं  समझे
हज़ारों  साल    सीने  में    ठहर  कर   भी   नहीं  समझे !

अक़ीदत  तो    सभी  में  है,   मिलेंगे   कब-कहां-किसको
हमारी  राह  के     सच्चे  मुसाफ़िर     भी    नहीं  समझे !

                                                                              (2014)

                                                                       -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: जियाले: दुस्साहसी; आतिशे-दिल: हृदय की अग्नि; इरादों: संकल्पों; बग़ावत: विद्रोह; हरगिज़: कदापि; मौजें: लहरें; 
दिवाने: उन्मादी व्यक्ति; बादे-सबा: प्रातः समीर; मुसव्विर: चित्रकार; शम्'अ: दीपिका, मोमबत्ती;   मक़बरे: समाधि, क़ब्र पर बना स्मारक; मानी: आशय; सीने: हृदय; अक़ीदत: आस्था, श्रद्धा; मुसाफ़िर: यात्री। 

शनिवार, 22 नवंबर 2014

जब कोह पिघल जाएंगे !

ख़्वाब  जिस  रोज़  परिंदों  में  बदल  जाएंगे
वक़्त  के  हाथ  से  कुछ  लोग  निकल  जाएंगे

तुम  उठे  भी    तो   बार-बार    लड़खड़ाओगे
हम  गिरे  भी  तो  किसी  रोज़  संभल  जाएंगे

हम  यहां  वस्ल  की  उम्मीद  सजा  बैठे  थे
क्या  ख़बर  थी  कि  कभी  आप  फिसल  जाएंगे

इम्तिहां  लें  न  कभी  आप  हमारी  ख़ू  का
खेल  ही  खेल  में  अरमान  मचल  जाएंगे

शाह   दिन-रात   सब्ज़बाग़   दिखाना  छोड़े
लोग   नादान   नहीं   हैं   कि  बहल  जाएंगे

क़त्लो-ग़ारत  के  इरादों  को  हवा  मत  दीजे
इस  सियासत  से  चमनज़ार  दहल  जाएंगे

हर  तरफ़  दरिय:-ए-उम्मीद  नज़र  आएगा
आतिशे-इश्क़  से  जब  कोह  पिघल  जाएंगे !

                                                                            (2014)

                                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: परिंदों: पक्षियों; वस्ल: मिलन; ख़ू: प्रकृति, स्वभाव; सब्ज़बाग़: झूठे स्वप्न; नादान: अबोध; क़त्लो-ग़ारत: हत्या और रक्तपात; सियासत: राजनीति, षड्यंत्र; चमनज़ार: हरे-भरे उद्यान; दरिय:-ए-उम्मीद: आशा की नदियां; आतिशे-इश्क़: प्रेमाग्नि; कोह: पर्वत ।