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बुधवार, 20 अगस्त 2014

... मुहब्बत गुनाह है !

तेरे  शहर  में  कौन  मिरा  ख़ैर-ख़्वाह  है
हर  शख़्स  यहां  मेरी  तरह  ही  तबाह  है

रंगीनियों  से  ख़ास  हमें  वास्ता  नहीं
बस  चंद  हसीनों  से  महज़  रस्मो-राह  है

इक  तू  है,  जिसे  ख़ाक  हमारी  ख़बर  नहीं
वरना  मिरी  नज़र  का  ज़माना  गवाह  है

हक़  मान  कर  सताएं,  हमें  उज्र  नहीं  है
आख़िर  दिले-ग़रीब  तुम्हारी  पनाह  है

आ  तो  गए  हो  शैख़,  ख़राबात  में  मगर
क्या  याद  नहीं,  तुमपे  ख़ुदा  की  निगाह  है 

उस  शख़्स  का  निज़ाम  गवारा  नहीं  हमें
जिसका  लहू  सुफ़ैद, सियासत सियाह  है

जन्नत  तिरी  क़ुबूल  हमें  भी  नहीं,  मगर
हैरत  है,  तिरे  घर  में  मुहब्बत  गुनाह  है ! 

                                                                          (2014)

                                                                  -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़ैर-ख़्वाह: शुभचिंतक; शख़्स: व्यक्ति; महज़: केवल;  रस्मो-राह: शिष्टाचार का संबंध; ख़ाक: नाम-मात्र, रत्ती-भर; उज्र: आपत्ति; दिले-ग़रीब: असहाय व्यक्ति का हृदय; पनाह: शरण; शैख़: ईश्वर-भीरु; ख़राबात: मदिरालय; जन्नत: स्वर्ग;  क़ुबूल: स्वीकार; हैरत: आश्चर्य।

रविवार, 17 अगस्त 2014

समंदर जानता है !

वो  हमें  अच्छी  तरह  पहचानता  है
मानि-ए-वुस'अत  समंदर  जानता  है

राह  आसां  छोड़  कर  रूहानियत  की
ख़ाक  दर-दर  की  दिवाना  छानता  है

मै  बुरी  शै  है,  हमें  भी  इल्म  है  ये
ज़ाहिदों ! दिल  कब  नसीहत  मानता  है ?

लद   गए  दिन  अब  तुम्हारी  शायरी  के
कौन  अब  ग़ालिब,  तुम्हें  पहचानता  है ?

क्या  उसे  दिल  खोल  कर  दिखलाइएगा
गर  ख़ुदा  है  तो  हक़ीक़त  जानता  है  !

                                                                        (2014)

                                                                              -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मानि-ए-वुस'अत: विस्तार का अर्थ; रूहानियत: आध्यात्म; मै: मदिरा; शै: वस्तु; इल्म: बोध; ज़ाहिदों: धर्मोपदेशकों; नसीहत: सीख; ग़ालिब: हज़रत मिर्ज़ा ग़ालिब, उर्दू के महान शायर; गर: यदि; हक़ीक़त: वास्तविकता।

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

ख़ुश्बुओं की तरह...

दोस्तों  में  रहे,  दुश्मनों  में  रहे
हर  जगह  हम  जवां  धड़कनों  में  रहे

दरिय:-ए-अश्क  की  थाह  लें  या  न  लें
रात  भर  ख़्वाब  इन  उलझनों  में  रहे

ख़ूब  है  इस  शहर  की  रवायत  जहां
माहो-ख़ुर्शीद  भी  चिलमनों  में  रहे

बात  की  बात  में  अजनबी  हो  गए
हमनवा  जो  कभी  बचपनों  में  रहे

मिट  गए  जो  सबा-ए-सहर  के  लिए
ख़ुश्बुओं  की  तरह  गुलशनों  में  रहे

अश्क  बन  कर  हमें  आक़िबत  ये  मिली
चश्मे-नम  से  गिरे,  दामनों  में  रहे

आ  चुके  थे  ख़ुदा  की  नज़र  में  मगर
हम  महज़  चंद  दिन  मुमकिनों  में  रहे !

                                                                 (2014)

                                                          -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: दरिय:-ए-अश्क: आंसुओं की नदी; रवायत: परंपरा; माहो-ख़ुर्शीद: चंद्र-सूर्य; चिलमनों: आवरणों; हमनवा: एकस्वर,सदैव सहमत; सबा-ए-सहर: प्रातः समीर; आक़िबत: सद् गति; चश्मे-नम: भीगी आंखें; दामनों: उपरिवस्त्र, दुपट्टा आदि; महज़: मात्र; चंद: चार; मुमकिनों: संभावितों।

मंगलवार, 12 अगस्त 2014

... दूर तलक रौशनी नहीं !

दिल  में  रहा,  निगाह  बचा  कर  चला  गया
वो:  शख़्स  हमें   राह  भुला  कर  चला  गया

हम  बदगुमां  न  थे  वो:  मगर मेह्रबां  न  था
अच्छे  दिनों  के  ख़्वाब  दिखा  कर  चला  गया

शायद  किसी  ज़ेह्न  का  मुबारक  ख़्याल  था
मुरझाए  हुए  फूल  खिला  कर  चला  गया

ये  क्या  तिलिस्म  है  दिले-वादा-निबाह  का 
आया  ज़रूर,  ख़्वाब  में  आ  कर  चला  गया

क्या  ख़ूब  दोस्त  था  कि  जहां  मोड़  आ  गया
कमबख़्त  वहीं  हाथ  छुड़ा  कर  चला  गया 

मेरे   शहर   में     दूर  तलक      रौशनी  नहीं
एहसास  तिरा  दिल  को  बुझा  कर  चला  गया

मदहोश  हुक्मरां  को  कोई  फ़िक्र  ही  नहीं
आया   ग़ुबार,  शहर  जला  कर  चला  गया !

                                                                                  (2014)

                                                                          -सुरेश  स्वप्निल 
शब्दार्थ: बदगुमां: भ्रमित; मेह्रबां: कृपालु; ज़ेह्न: मस्तिष्क; मुबारक: शुभ; तिलिस्म: कूट-प्रपंच, टोना; दिले-वादा-निबाह: निर्वाह करने वाले का हृदय; एहसास: अनुभूति; मदहोश: उन्मत्त; हुक्मरां: प्रशासक;   ग़ुबार: झंझावात। 

सोमवार, 11 अगस्त 2014

परिंदों को क्यूं सज़ा ...?

दिल  बदल  जाए  तो  बता  दीजे
ये  न  हो,  ख़त  से  इत्तिला  दीजे

या  चलें  साथ  हमसफ़र  बन  कर
या    हमें     राह  से     हटा  दीजे

आज  ज़िंदा  हैं,  आज  मिल  लीजे
मौत  के   बाद   क्या  दुआ  दीजे

लोग  फ़ाक़ाकशी  से  आजिज़  हैं
भूख  की    कारगर    दवा  दीजे

है  शिकायत  अगर  फ़रिश्तों  से
तो  परिंदों  को  क्यूं  सज़ा  दीजे

आप  इस  दौर  का  करिश्मा  हैं
हम  गया  वक़्त  हैं,  भुला  दीजे

क़ब्ल  इसके  कि  ख़ून  पानी  हो
ज़ुल्म  की  सल्तनत  मिटा  दीजे !

                                                              (2014)

                                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: ख़त: पत्र; इत्तिला: सूचना; हमसफ़र: सहयात्री; फ़ाक़ाकशी: लंघन, भूखे रहना; आजिज़: तंग, असहाय; 
कारगर: प्रभावी; फ़रिश्तों: देवदूतों; परिंदों: पक्षियों; करिश्मा: चमत्कार; क़ब्ल: पूर्व; सल्तनत: साम्राज्य। 

शनिवार, 9 अगस्त 2014

चांद पर तोहमतें...

जो  न  आया  कभी  बुलाने  से
ख़्वाब  वो  आ  गया  बहाने  से

इश्क़  का  इम्तिहां  नहीं  देंगे
बाज़  आ  जाएं  आज़माने  से

कौन  है  जो  मिरे  रक़ीबों  को
रोकता  है  क़रीब  आने  से  ?

रूह  पर  रहमतें  बरसती  हैं
रस्मे-राहे-वफ़ा  निभाने  से

दोस्त-एहबाब  रूठ  जाएंगे
बज़्म  में  आइना  दिखाने  से

हाथ  से  बात  छूट  जाती  है
दर्द  को  मुद्द'आ  बनाने  से

नूर  किरदार  को  नहीं  मिलता
चांद  पर  तोहमतें  लगाने  से  !

                                                                (2014)

                                                        -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: रक़ीबों: प्रिय व्यक्तियों (व्यंजना); रहमतें: ईश्वरीय कृपाएं; रस्मे-राहे-वफ़ा: निर्वाह के मार्ग की प्रथा; दोस्त-एहबाब: मित्र एवं प्रियजन; बज़्म: सभा, सार्वजनिक रूप से; मुद्द'आ: विवाद का विषय; नूर: प्रकाश; किरदार: व्यक्तित्व, चरित्र; तोहमतें: आरोप, दोष।

... ख़ुदा कहा जाए ?

दिल  दिया  जाए  या  लिया  जाए
मश्विरा  रूह  से  किया  जाए

दर्दे-दिल  है  कि  बस,  क़यामत  है
हिज्र  में  किस  तरह   सहा  जाए

और  कुछ  देर  खेलिए  दिल  से
और  कुछ  देर  जी  लिया  जाए

दिल  प'  निगरानियां  रहें   वरना
क्या  ख़बर,  कब  फ़रेब  खा  जाए

दाल-रोटी    जहां    नसीब    नहीं
किस   यक़ीं   पर  वहां  जिया  जाए

हो  चुकी  सैर   ख़ुल्द  की  काफ़ी
लौट  कर  आज  घर  चला  जाए

मोमिनों  का  जिसे  ख़्याल  न  हो
क्या  उसे  भी  ख़ुदा  कहा  जाए  ? 

                                                       (2014)

                                                -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: मश्विरा: परामर्श; रूह: आत्मा; क़यामत: प्रलय; निगरानियां: चौकसी; फ़रेब: छल; नसीब: उपलब्ध; यक़ीं: विश्वास;  ख़ुल्द: स्वर्ग; मोमिन: आस्था रखने वाले ।