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बुधवार, 5 मार्च 2014

हिजाब मत रखिए ...!

वो:  बहाना  बना  के  मिलते  हैं
हम  जहां  को  बता  के  मिलते  हैं

साज़े-दिल  छेड़-छेड़  जाते  हैं
ख़्वाब  में  जब  वो:  आ  के  मिलते  हैं

बेवफ़ाई,  फ़रेब,  ख़ुदग़र्ज़ी
क्या  सिले  ये:  वफ़ा  के  मिलते  हैं

हरकतों  पर  नज़र  रखें  उनकी
जो  बहुत  मुस्कुरा  के  मिलते  हैं

आप  हमसे  हिजाब  मत  रखिए
यूं  भी  हम  सर  झुका  के  मिलते  हैं

अह् ले-दिल  जब  ख़ुदी  पे  आते  हैं
लाख  ख़तरे  उठा  के  मिलते  हैं

ऐ  फ़रिश्तों !  उन्हें  सलाम  कहो
नक़्श  जिनसे  ख़ुदा  के  मिलते  हैं !

                                                    ( 2014 )

                                              -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: साज़े-दिल: हृदय रूपी वाद्य, बेवफ़ाई: छल; फ़रेब: कपट;  ख़ुदग़र्ज़ी: स्वार्थ; सिले: प्रतिदान; वफ़ा: आस्था; 
हिजाब: पर्दा, आवरण; अह् ले-दिल: हृदय में आस्था रखने वाले; ख़ुदी: अपनी अस्मिता; नक़्श: मुख-चिह्न।

मंगलवार, 4 मार्च 2014

दिल गुनहगार नहीं...

जो तलबगार  नहीं  है
वो:  मिरा  यार  नहीं  है

मुआमला-ए-नज़र  है
दिल  गुनहगार  नहीं  है

ख़्वाब  बेताब  हैं  बहुत
रात  बेज़ार   नहीं  है

गर्मिए-इश्क़  है  ज़रा
कोई  आज़ार  नहीं  है

आप  ज़रयाब  ही  सही
इश्क़  बाज़ार  नहीं  है

ख़्वाबे-आवारगी हूं मैं
मेरा  घरबार  नहीं  है

लाख पसमांदगी  सही 
राह  दुश्वार  नहीं  है

बेशक़ीमत  वफ़ाएं  हैं
तू  ख़रीदार  नहीं  है

मैं  रहे-इंक़ेलाब  हूं
वक़्त  तैयार  नहीं  है  !

                                  ( 2014 )

                           -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: तलबगार: इच्छुक; मुआमला-ए-नज़र: दृष्टि-दोष; गुनहगार: अपराधी; बेताब: उत्कंठित; बेज़ार: चिंतित; गर्मिए-इश्क़: प्रेम का ताप; आज़ार: रोग; ज़रयाब: समृद्ध; यायावरी का स्वप्न; पसमांदगी: थकान; दुश्वार: कठिन; बेशक़ीमत: अति-मूल्यवान; वफ़ाएं: आस्थाएं; रहे-इंक़ेलाब: क्रांति का मार्ग।

सोमवार, 3 मार्च 2014

रूह की रौशनी

इश्क़  के  वलवले  बचा  रखिए
दीद  के  हौसले  सजा  रखिए

क्या  ख़बर  कौन  कब  बदल  जाए
वक़्त  से  दोस्ती  निभा  रखिए

अश्क  बेसाख़्त:  छलकते  हैं
दर्द  दिल  में  कहीं  दबा  रखिए

ख़्वाब  भी  राह  भूल  सकते  हैं
रास्तों  में  शम्'अ  जला  रखिए

दुश्मनों  की  कमी  नहीं  दिल  को
दोस्तों  को  गले  लगा  रखिए

तर्के-उल्फ़त  सही  मगर  दिल  में
आने-जाने  का  रास्ता  रखिए

तीरगी  में  फ़रेब  मुमकिन  है
रूह  की  रौशनी  बचा  रखिए !

                                           ( 2014 )

                                   -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:

 

रविवार, 2 मार्च 2014

बन सके न यूं आशना..!

रहा  दर-ब-दर  जिसे   ढूंढता,   वो:    क़रीब  आ  के    ठहर  गया
मैं  नज़र  की  ताब  न  ला  सका,  मेरे  दिल  में  नूर  उतर  गया

तुझे  मालो-ज़र  की  तलाश  थी,  मुझे  आक़बत  का  ख़याल  था
कभी  बन  सके  न  यूं  आशना,  कि  तेरा  ज़मीर  ही  मर  गया

मेरी  चश्म  में     तेरा  नूर  है,   मेरी  रूह  पर    है  करम  तेरा
मेरे  सर  पे  यूं  तेरा  हाथ  है  कि  मैं  डूब  कर  भी  उबर  गया

तू  यज़ीद  है   कभी  मान  ले,   यूं  भी    जानता  है    तुझे  जहां
कोई  और  होगा  वो:  हम  नहीं;  तेरे  अस्लहों  से  जो  डर  गया

ये:  वो:  राह  है  जहां  दूर  तक  किसी  हमसफ़र  का  पता  नहीं
के:    तेरी  तलाश  में     ज़िंदगी    मैं  हरेक  हद  से  गुज़र  गया

मेरी   हस्रतों   का     क़सूर  था    के:   फ़रेबे-बुत  में    उलझ  गया
तेरा  दर  गया,  मेरा  घर  गया,  मेरे  नाल:-ए-दिल  का  असर  गया

मुझे  इल्म  था  तू  है  आईना,  मैं  संभल-संभल  के  चला  बहुत
तू  मिला   तो  शक्ले-ख़्वाब  में,   कि  छुए  बग़ैर  बिखर  गया  !

                                                                                               ( 2014 )

                                                                                        -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: दर-ब-दर: द्वारे-द्वारे; ताब: बराबरी;  मालो-ज़र: स्वर्ण-संपत्ति;  आक़बत: परमगति; आशना: निकट मित्र;  ज़मीर: विवेक;  
चश्म: नयन; करम: कृपा;    यज़ीद: हज़्रत इमाम हुसैन और उनके साथियों का शत्रु,  हत्यारा; अस्लहों: शस्त्रास्त्रों; हस्रतों:इच्छाओं; 
फ़रेबे-बुत: मूर्त्ति का छल, मानवीय सौन्दर्य का छल;  नाल:-ए-दिल: हृदय का आर्त्तनाद; इल्म: अभिज्ञान; शक्ले-ख़्वाब: स्वप्न-रूप।

बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

कहां तक गिरोगे ...?

नमी   ही    नहीं   है    तुम्हारी   नज़र  में
ये:  दौलत  लुटा  आए  किसके  असर  में

नहीं  सर  पे  साया   कहीं  इस  सफ़र  में
बड़ी  तेज़    है  धूप    दिल  के    शहर  में

वही     रंजो-ग़म     हैं,     वही    आरज़ूएं
नया  कुछ  नहीं    ज़िंदगी  की   ख़बर  में

ये:  मासूमियत     देखिए     क़ातिलों  की
दवा    दे  रहे  हैं    मिला  कर     ज़हर  में

ये:  दावा-ए-उल्फ़त  है  कमज़ोर  कितना
बराबर  वज़न  में,   न  कामिल   बहर  में

बहुत   क़ीमती   है   ये:   सरमाय:-ए-ईमां
न  आए  कभी     दुश्मनों  की    नज़र  में

हज़ारों   गुनाहों   पे     बस     एक  माफ़ी
कहां  तक  गिरोगे  किसी  की  नज़र  में  ?!

                                                             ( 2014 )

                                                      -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ: साया: छाया; रंजो-ग़म: दु:ख-दर्द; आरज़ूएं: अभिलाषाएं; मासूमियत: अबोधता; दावा-ए-उल्फ़त: प्रेम का स्वत्व; 
वज़न: मात्रा; कामिल बहर: परिपूर्ण छंद; सरमाय:-ए-ईमां: आस्था की पूंजी।

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

दिलकुशी की वजह...!

काश !  दिल  को  क़रार  आ  जाए
कारवां  - ए - बहार        आ  जाए

कौन    कम्बख़्त   ख़ुम्र   मांगे  है
जो  नज़र  में    ख़ुमार   आ जाए

ख़्वाब  भी    आएंगे    निगाहों  में
नींद  पर    इख़्तियार    आ  जाए

दिलकुशी  की  वजह  ज़रा-सी  है
आपको        ऐतबार     आ  जाए

दोस्ती    चार  दिन   नहीं  चलती
गर  दिलों  में    दरार    आ  जाए 

हो  हुकूमत  यज़ीद  की  हम  पर
तो  क़यामत    हज़ार    आ  जाए

ज़िंदगी     रोज़    मार     डाले  है
मौत  ही     एक   बार   आ  जाए

हो  अज़ां-ए-फजर  तेरे  मुंह  से
तो      शबे-इंतेज़ार     आ  जाए

बोरिया  बंध  गया  हमारा  अब
आस्मां  से    पुकार     आ जाए  !

                                                  ( 2014 )

                                            -सुरेश  स्वप्निल

शब्दार्थ:   क़रार: धैर्य, संतोष; कारवां-ए-बहार: दल-बल सहित बसंत; कम्बख़्त: अभागा; ख़ुम्र: मदिरा; ख़ुमार: मद; इख़्तियार: नियंत्रण; दिलकुशी: मन पर नियंत्रण, इच्छाओं का दमन; ऐतबार: विश्वास; गर: यदि; यज़ीद: हज़रत इमाम हुसैन स.अ. और उनके साथियों का हत्यारा; क़यामत: प्रलय; अज़ां-ए-फजर: उष:काल के समय होने वाली अज़ान; शबे-इंतेज़ार: प्रतीक्षा की रात्रि; बोरिया: बिस्तर-बोरिया, यात्रा का सामान 

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

अज़ान का जादू

उसका  चेहरा  दुआओं  जैसा  है
सुब्हे-नौ  की  शुआओं  जैसा  है

तिफ़्ले-मासूम  की  तबस्सुम-सा
दिल  तेरा  देवताओं  जैसा  है

उस  हसीं  की  अज़ान  का  जादू
दर्दे-दिल  की  दुआओं  जैसा  है

'आप'  क्या  कीजिए  सियासत  में
ये:  शहर  बेवफ़ाओं  जैसा  है

तू  ज़ुलैख़ा  तो  हम  भी  यूसुफ़  हैं
रंग  बेशक़  घटाओं  जैसा  है

भेस  जिसका  फ़क़ीर  जैसा  है
अज़्म  उसका  ख़ुदाओं  जैसा  है

बेवजह  अर्शे-नुहुम  तक  दौड़े
देस  उसका  ख़लाओं  जैसा  है !

                                             ( 2014 )

                                      -सुरेश  स्वप्निल 

शब्दार्थ: सुब्हे-नौ: नई प्रात: ; शुआ: किरण; तिफ़्ले-मासूम: अबोध शिशु; तबस्सुम: मुस्कुराहट; ज़ुलैख़ा-यूसुफ़:मिथकीय चरित्र, 
संसार के सुंदरतम मनुष्य; भेस: वेश; फ़क़ीर: सन्यासी; अज़्म: महत्ता; अर्शे-नुहुम: नौवां आकाश, स्वर्ग-द्वार; ख़ला: निर्जन स्थान।